कोरोना और जीवनशैली
मनुष्य की जीवनशैली का इतिहास बहुत ही प्राचीन है।आदि मानव से लेकर आज तक मनुष्य ने जीवन की जुगुप्सा और जिज्ञासा की आग में अनेकानेक संघर्षों की आहुति दी है।जीवन की यात्रा जिजीविषा का पर्याय है।मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों से भिन्न है यह आदिकाल में ही स्पष्ट हो गया था,जब मनुष्य ने अपने न केवल रक्षार्थ शरीर ढंकने के लिए पेंड़ की पत्तियों और उसके छाल को व्यवहार में लाया था , अपितु उसका यह व्यवहार और उसकी सोंच सांस्कृतिक चेतना की भी परिचायक थी।
मेरा मानना है कि”प्रत्येक परिवर्तन प्रगति नहीं होता है।”पर,साथ ही परिवर्तन कुछ संभावनाओं की पड़ताल अवश्य करता है।प्रकृति के गर्भ से ही परिवर्तन नदी के दो किनारे और सिक्के के दो पहलू की तरह सन्निहित है।विश्व ने चेचक, प्लेग,हैजा, मलेरिया, पोलियो आदि अनेक महामारी को झेला है और फिर उठ खड़ा हुआ है।भारत ने शताब्दियों तक गुलामी के तले जीवन जीकर आज विकासशील राष्ट्र की श्रृंखला में अग्रणी है।योग और आयुर्वेद ने भारत को पुनःविश्व गुरु के सपने के करीब लाकर खड़ा किया है।
आज कोरोना एक सूक्ष्म जीवाणु जो अदृश्य है,उसका जीवनवृत्त वर्तमान वैज्ञानिकों के समझ से परे है,तबाही मचा कर रख दिया है।विश्वशक्ति वाले पांक्तेय राष्ट्र आज घुटने के बल आ चुके हैं।भौतिक संसाधनों और विलासिता जीवन जीने वाले धनकुबेरों को घर के अंदर घर के व्यंजनों और सुख के सीमित साधनों से मन मसोसना पड़ रहा है।जिनके दिन, रात की रंगीनियों से भरा होता था और रात दिन के नहाते प्रकाश को चिढ़ाते चकाचौंध में गुलजार होती थी,उन्हें औंधे मुँह घरों में कैद होने के लिए इस महामारी ने विवश कर दिया है।जिन्होंने कभी सूर्योदय इसलिए नहीं देखा था कि रात उनकी शुरु होती थी 12 बजे से और नींद आती थी पौ फटने के पूर्व ,वे आज करवटों में रात के बिस्तर पर सबेरे ही जाग जाते हैं और सुबह तड़के बरामदे और छत पर नज़र आते हैं।जिनके घरों में व्यस्तता का आलम यह था कि पिता को बच्चे न घर से जाते देख पाते थे और न आते ही ,वे बच्चे दिन- रात पिताजी के चेहरे देखते थक चुके हैं।
यह छोटी-छोटी बातें हैं जिसके कारण जीवनशैली बदलतीं दिख रही है,किन्तु कोरोना ने लोगों को घर में रहना सिखाया है,बच्चों के संग घुलना-मिलना सिखाया है।जिस बच्चे को माता-पिता मोबाइल से दूर रहने के हिदायत देते थकते नहीं थे वे विद्यालय के वर्कसीट बनवाने के लिए बच्चों के लिए मोबाइल खरीद रहे हैं।वाह रे समय! कहते हैं”सबहिं नचावत राम गोसाईं”यह लोकोक्ति शत प्रतिशत सत्य होता दिख रहा है।जीवनशैली हमारी सांस्कृतिक चेतना की प्रतिबिंब होती है।हमारी सोंच और वैचारिकता का दर्पण है जीवनशैली।हम जिसप्रकार का भोजन करते हैं, जिसप्रकार का वस्त्र धारण करते हैं, जिसप्रकार की भाषा और संवाद करते हैं, जिसप्रकार के गीत और नृत्य करते हैं इन सारी क्रियाओं में हमारी जीवनशैली दृष्टिगत होती है।इतना ही नहीं हमारे कदम और चाल-चलन के तौर तरीक़े भी जीवन शैली को प्रतिबिंबित करता है।
हमारी पुरातन वेशभूषा और रहन-सहन का स्वरुप तात्कालिक जीवनशैली का दर्पण है,हमारे गुरुकुल की शिक्षा-दीक्षा और माता-पिता तथा गुरुजनों का व्यवहार और उनका सानिध्य हमें तात्कालिक जीवनशैली को ही इंगित करता है।यदि हमें गुरुकुलों में शिक्षा के साथ-साथ स्वावलंबन और सेवा, क्षमा तथा सहयोग के साथ योग,साधना तथा अंततः जीवन के उपारांत मोक्ष का मार्ग की ओर जाने के उपाय का मिलता था तो वह जीवनशैली ही थी हमारे पूर्वजों की।इसके विपरीत आज हमारे भोजन करने ढंग भोजन,सामग्री, वस्त्रादि के तौर तरीके भारतीयता के प्रतीक न होकर पाश्चात्य रहन-सहन का अनुकरण बनता दिखता है तो निश्चित रुप से हमें इसबात का एहसास हो जाना चाहिए कि हम अपनी सांस्कृतिक जीवनशैली की तिलांजली दे चुके हैं जिसमें बड़ों की मर्यादा का न कोई स्थान है और न नारी के प्रति सम्मान।इन तमाम विसंगतियों और दुरभिसंधियों की चर्चा यहाँ न तो अनावश्यक है और आज के संदर्भ में अरण्य में रोदन की कोशिश, अपितु ये सारे उदाहरण और स्मरण अतीत के हमारे लिए और विशेष कर आज की पीढ़ियों के लिए समय की माँग है।कोरोना का लम्बा अवकाश में इस गंभीर जीवनशैली के प्रति चिंतन और मनन के लिए उपयोग करना चाहिए जिससे सादा सात्विक भोजन,आहार-विहार तथा चिंतन के प्रति जागरुक हों और साथ ही अपनी वर्तमान जीवनशैली में गुणात्मक सुधार की गुँजाइश सुरक्षित हो सके।ध्यान रखें हम अपने मौज मस्ती के लिए उलूल-जुलूल हरकतों से तात्कालिक रुप से आनंदित हो सकते हैं, पर कदाचित हमारी पीढ़ियाँ विकृत जीवनशैली को विरासत रुप में पाकर हमें कभी माफ नहीं करेंगी।
प्रत्येक घटना के दो पहलू होते हैं।आज हमें कोरोना के नकारात्मक पहलू तो सरलता से नज़र आते हैं पर सकारात्मक तथ्यों को भी हम चाहें तो देख सकते हैं जिसके अनेकानेक विन्दु हैं, मितव्ययिता,(मजबूरी से ही)पारिवारिक जीवन,पेट्रोल इंधन की बचत,कम कपड़ों में जीवन निर्वाह, और आस-पास के वैसे समाज को देखने के क्षण भी जिनका जीवन कितना संघर्षमय है ,तंग है पर वे अभाव में भी खुश रहना जानते हैं।
डॉ अरुण सज्जन
हिन्दी अध्यापक सह साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड