मजबूर मजदूर

मज़बूर मजदूर

मैं स्वयं कृषक कन्या हूँ, मज़दूर और किसानो की स्थिति बहुत करीब से देखी हूँ और समझती हूँ,सभी मजदूरों की पीड़ा को मैं हृदय से महसूस करती हूँ और उनका बहुत सम्मान करती हूँ ।

इस कोरोना काल के संकट में सबसे भयावह और दिल दहला देने वाली स्थिति हमारे देश के मजदूरों की है, कोरोना के भय से घरों को लौट रहे मजदूरों में से 70 से अधिक ने अपनी जान गंवा चुके हैं….देश दुनिया और अपने आस पास की खबरों को सुनकर देखकर मस्तिष्क क्षण भर को शून्य सा हो जाता है तरह-तरह के सवाल दिमाग में कोंधने लग जाते हैं।

अनिश्चितता के सवाल हर आदमी की आंखों में देखे जा रहे हैं , जैसे-जैसे समय बीत रहा है चिंता और हताशा बढ़ती जा रही है।सबसे बुरी और भयानक स्थिति उस तबके की है जो सालों से हाशिए पर रहता चला आया है। गरीब अशिक्षित,रोज ही दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पेट पालने वाला मजदूर , इनका ख्याल परेशान करता है ।
दशा परिवर्तन दिशाओं को परिवर्तित करने लगता है। जिनके पास कोई काम धंधा नहीं है खाने को रोटी नहीं है तन ढकने को कपड़ा नहीं है, सिर पर छत नहीं है,भविष्य में क्या होगा यह तो दूर की बात है ।
जिनके पेट खाली हैं वह सोशल डिस्टेंसिंग का मतलब नहीं समझ रहे , पेट की भूख और लाचारी उन्हें आक्रोशित कर रही है । जब वर्तमान की समस्याएं सुरसा की तरह मुंह फाड़े खड़ी हों तो भविष्य की योजनाओं पर सोचना बेमानी लगता है।

सच कहें सैद्धांतिक और हिदायतों की बातें उनकी मजबूरियों के आगे बौनी और सस्ती लगती हैं।
पिछले कुछ सालों से शहरी चमक दमक और भौतिक सुख की लालसा खेती किसानी और दूसरे पीढ़ीगत कार्यों तौर तरीकों पर भारी पड़ती रही है। गांवों के लिए शहर हमेशा आकर्षण का केंद्र रहे हैं।गांव की शुद्ध खुली हवा में पैदा होने वाले व्यक्ति को शहरी झुग्गी स्लम या मलिन बस्तियों में रहना मंजूर हो गया । अपने परिवार, पड़ोसी, खेत खलिहान को छोड़कर आंखों में खोखले सपनों की गठरी सजाए चल पड़ा शहरों की ओर अपनी बर्बादी की कहानी लिखने।

समय ने करवट बदली और आज आंखों में बेबसी के आंसू लिए अपने भाग्य को कोसता पैदल ही हजारों किमी दूर अपने गांव चल पड़ा है। कई कई दिन पैदल चलकर थके हारे ये अपने घर पहुंच रहे हैं।इन्हें आज केवल और केवल अपना घर अपना गांव अपना परिवार याद आ रहा है।माटी पुकार पुकार कर बुला रही है इन्हें।
जो जा नहीं सके वह आज दस बाय छः के अंधेरे सीलन भरे कमरे में महीने भर से आठ आठ दस लोग भूखे प्यासे बंद रहने को मजबूर हैं।

सरकारी सुविधाएं मदद इनके लिए ना काफी साबित हो रही हैं, बैठे ठाले कब तक, आखिर कब तक खिलाएगी इन्हें।खाने के लिए दो किमी पैदल चलकर खाना लेकर आना और चार व्यक्तियों के भोजन में दस लोगों का शामिल होना। भूखे पेट सोना इनकी नियति बन गई है।

शहरी कल कारखानों और बड़े से लेकर छोटे उद्योगों में कुछ एक हजार की नौकरी करने वाले ये श्रमिक हमारे देश की रीढ़ हैं। इनके श्रम बिंदुओं पर हमारी अर्थ व्यवस्था टिकी हुई है। गहरे जख्म लिए वापिस गांवों की ओर होता इनका पलायन रुकने वाला नहीं है । जाहिर सी बात है जब हालात इतने असामान्य हो परिस्थितयां प्रतिकूल हों तो घर ही याद आता है। जब काम नहीं तो कोई क्योंकर अपनी जान जोखिम में डालेगा। दूसरी बात हालात सामान्य हो भी गए तो ये शहरों की ओर रुख नहीं करने वाले , बिना श्रमिकों के अर्थ व्यवस्था और भी धराशायी होनी तय है, पटरी पर आने में जाने कितना समय लगेगा।

सामाजिक दूरी का पालन करते हुए मानवीय दृष्टिकोण की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए ।आशावादी बनकर विश्वास के साथ इनकी शारीरिक और मानसिक शक्ति को बिखरने से बचाना ही हमारा मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।
आज का दिन इन मजदूरों की एकता, हक और सम्मान को ध्यान में रखते हुए मनाया जाता है। देश के विकास में अपना योगदान देने वाले श्रमिकों के अधिकार और उनके वर्चस्व को कायम रखने का दिन है ।इन मजदूरों को गाँव में ही या गाँव के नजदीकी शहरों के रोजी रोटी मिल जाए और इनके बच्चों के लिए पाठशाला और अच्छे स्वस्थ्य सुविधाएं मुहैया करा दी जाए तो ये मज़दूर अन्य राज्यों का रुख़ नहीं करेंगे।

आइए हम सब मिलकर इनकी समृद्धि की कामना करें।

अनिता वर्मा
साहित्यकार
भिलाई , छत्तीसगढ़

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