लॉकडाउन के दौरान

लॉकडाउन के दौरान
( डायरी के कुछ पन्ने )

बचपन में ऐसी फिल्में देखकर जिसमें बच्चे अपने माता -पिता से बिछड़ जाते हैं देखकर बहुत डर लगता था और सोचती थी अगर माता पिता को कुछ होना है तो मुझे भी उनके साथ हो …आज सोचती हूँ मुझे कुछ होना है तो मेरे साथ मेरे बच्चों को भी हो जाये…

कुछ सामान जो कुछ लोगों तक पहुँचाना है ,कुछ देना है कुछ लोगों को… सोचती हूँ लॉकडाउन खत्म हो तो उन तक पहुँचाकर गंगा नहा जाऊँ …

बच्चों को उन आदर्शों वाली कहानियाँ सुनाने लगी हूँ इन दिनों जिनसे मेरा विश्वास बहुत पहले उठ गया था ,पर मन में चाह थी …काश वो ज़िंदा रहते…

बच्चे मुझे पागल समझने लगे हैं ।आते -जाते दिन में कई बार उनका माथा चूम कर गले लगा लेती हूँ…और…आँखें भरभरा जाती हैं…

डिब्बे खोलकर हर दूसरे दिन चैक करने लगी हूँ राशन कितना बचा है और खाली होते डिब्बे घबराहट पैदा करते हैं…

सुबह उठते ही बेटी का मोबाइल चार्जिंग पर लगा देती हूँ …वो याद दिलाती है” ममा मुझे कहीं नहीं जाना और मैं उसे समझाती हूँ कुछ इमरजेंसी आ गयी तो …फोन हमेशा चार्ज करके रखो …

एक दिन बेटी से पूछी “मुझे कुछ हो गया तो ,सबको कैसे पता चलेगा ” चिढ़कर बोली “चिंता मत कीजिए आपकी सबसे अच्छी फोटो के साथ फेसबुक पर सूचित कर दूँगी ” ।उसे चिड़चिड़ाहट से बाहर निकालते हुये हँस कर बोली “मुझे कैसे पता चलेगा ,कितने लाईक और कमेंट आये ?” दोनों मेरा वाक्य मुझे सुनाकर हँसती हैं …लोटपोट हो जाती हैं…मज़ाक उड़ाती हैं…पर सच कहूँ …उन्हें हँसता देखकर …बहुत अच्छा लगता है…

मुझे एक पत्र लिखना था ,जिसके अंत में “लिखा कम है ,समझना ज्यादा “लिखने की चाह बरसों से है…पर अब सोचती हूँ…क्यों लिखना…और किसे लिखना…

आप सब अपना ध्यान रखें …सब भला होगा…सब अच्छा होगा…
“तूफान को आना है
आकर चले जाना है
बादल हैं ये कुछ पल के
छा कर चले जाना है…
लॉकडाउन का पालन करें ,मुझे आदत है …बस कि मन उड़ने लगता है …उसे भी लॉकडाउन में रहना सीखा रही …

मौत से भय नहीं लगता ,मौत के कदमों की चाप ज्यादा डरावनी है फिर चाहे वो कितनी भी दूर क्यों न हो और किसी के भी पास क्यों न हो ।

वो सारे काम याद आते हैं जो अब तक ये सोचकर टाले जा रहे थे फिर कभी निपटा लेंगे और अचानक वो बहुत ज़रुरी लगने लगे हैं ।

स्मृति ज्यादा मुखर हो गयी है ।बिता हुआ बचपन ,मित्र ,बातें ,खेल यहाँ तक कि पेड़ ,पौधे ,पड़ोसी ,रिश्तेदार और जो नियमित घर से भीख ले जाती थी उस भिखारन का चेहरा भी स्पष्ट दिखने लगा है,यहाँ तक कि उसके शरीर से आती बदबू भी महसूस करती हूँ ।एक पीपल के पेड़ के नीचे हनुमानजी की टूटी हुई मूर्ति रखी थी जिसे शायद दस -बारह वर्ष की उम्र में देखी थी वो मूर्ति आँखों के सामने आती है …पता नहीं शिकायत करने…पता नहीं…कुछ कहने…

डायरियों में पुराने दोस्तों का फोन नंबर तलाश कर बात करने की इच्छा अचानक मन में पैदा हुई और लगा देखूँ उन्हें मैं याद हूँ या नहीं ।

आखिरी बेंच पर छुप कर काला चूरन खाने के बाद मेरा चेहरा कैसा लगता होगा …कल्पना करने लगती हूँ…लंबी चोटी में बँधे लाल रिबन से अलग अलग तरीके से फूल बनाने लगती हूँ …और पछतावा होता है उस दिन अगर खेल के मैदान में दौड़ी होती तो जरुर जीत गयी होती ।पेट दर्द का बहाना बनाकर बैठना नहीं चाहिए था ।

ट्रेन में सामान बेचने वाले ,रोज एक ही जगह पर बैठने वाले भिखारी ,सब्जीवाले ,फल वाले रोज सपने में आने लगे हैं ,जाने किस हाल में होंगे ?

क्लास के शरारती बच्चे इन दिनों बहुत याद आते हैं ।

सारा प्रेम ,स्नेह ,अपनापन गुब्बारे में भरी हवा के समान है किसी के “कम्फर्ट ज़ोन “में जाकर भावनाओं को छूने की कोशिश करते ही सुई चुभने जैसे हालात हो जाते हैं ।

भावुक ज़रुर होना चाहिए पर भावनाओं के काई लगे पत्थर पर अपने आपको फिसलने से रोक लेना चाहिए ,औंधे मुँह गिरने पर मन लहुलुहान हो जाता है ।

अपने आपको खुद सँभालना पड़ता है ,आप जहाँ थोड़े कमजोर पड़ते हैं हथेलियों में ऊँगलियों की पकड़ ढीली पड़ने लगती है ।

हर वक्त की उपलब्धता आपकी अहमियत को कम कर देती है ।

बावजूद इसके आपका होना मेरे लिये महत्वपूर्ण है ।घर में रहें ,सुरक्षित रहें । वो नहीं ठहरा …ये भी नहीं रूकेगा …ये दिन भी बीत जायेंगे…

संध्या यादव
साहित्यकार
मुबंई, महाराष्ट्र

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