कोरोना ने सिखाया : धर्म का सही मर्म

कोरोना ने सिखाया : धर्म का सही मर्म

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म एक अफीम है । आज कोरोना काल जैसी विभीषिका और महामारी के दौर में भी कुछ लोगों ने धर्म की ऐसी व्याख्या और ऐसा अनुपालन किया है कि पुन: एक बार यह सोचने की जरूरत आन पड़ी है कि धर्म आखिर है क्या ? सिर्फ धार्मिक मान्यताएँ, रिवाज और आडंबर या जीवन को जीने के लिए, इसे सरल और सुरक्षित बनाने के लिए अपनाया गया एक पवित्र रास्ता। विचारकों ने कहा है कि मनुष्य ने धर्म का निर्माण किया है, धर्म ने मनुष्य का नहीं, और शायद इसलिए मनुष्य ने अपनी सुविधाओं और अपनी सोच – विचार के अनुसार जब चाहा धर्म के मायने को बदल दिया । पर आज कोरोना वायरस की विभीषिका ने हम सबों को यह बताया है कि परमात्मा , जीसस या अल्लाह मंदिर और मस्जिदों में नहीं बल्कि हमारे अंदर निवास करता है और जरूरी है कि हम अपने अंदर ही जाकर अपने आत्मा में ही मंदिर का निर्माण करें और ईश्वर का साक्षात्कार करें । कहते हैं कि ” *कस्तूरी कुंडली बसै मृग ढूंढे वन माँहि* ! ”
धर्म भी वह कस्तूरी ही है जो हमारी सोच विचार और जीवन के व्यवहार को प्रभावित करता है । इसकी खोज के लिए धार्मिक स्थलों पर जमावड़ा लगाने का दिखावा करना बेमानी है । फिलहाल कोई कितनी भी मशक्कत कर ले , पर वो धर्म की तलवार से कोरोना के वार को हरा नहीं सकता । हर धर्म संप्रदाय के लोगों के लिए यह एक बड़ी सीख है कि आज धर्म नहीं बल्कि आत्मबल , संयम और विज्ञान के बलबूते ही उनकी जान बच सकती है ।

ये निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि आज विज्ञान की जीत हुई है और धर्म के दरवाजे पर ताला लगा है । हमारे धार्मिक मान्यताओं ने करवट ली है । अब हम यह सोचने को बाध्य हो गए हैं कि सभी शंकाओं का समाधान और सभी समस्याओं का हल धर्म के आँगन में ही संभव नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा और मनुष्यता को ही सबसे बड़ा धर्म मानना होगा । सोशल डिस्टेंसिंग और दूर – दूर रहने की हिदायत, साथ ही पिछले दो महीने से चल रहे लाॅकडाउन ने महीनों से मंदिर -मस्जिद – गुरुद्वारे और चर्च को विरान बना रखा है तो क्या हम ये मान लें कि धर्म की गति धीमी हो गई है ? क्या यह मान लिया जाए कि धर्म की जो जमीन है वह कमजोर पड़ गई है ? ऐसा कदापि नहीं है। पर हाँ , धर्म ने अपनी परिभाषा बदली है और धर्म के प्रति लोगों की सोच भी बदली है। इस वायरस ने कहीं न कहीं हम सबों की आँखें खोल दी हैं और हम सबों ने चीजों को नए ढंग से देखना ,सोचना और विचारना शुरू कर दिया है ।

कहने को यह वायरस भी अदृश्य है और हमारी सोच हमारी मान्यता है कि हमारा ईश्वर भी अदृश्य है। यूं तो हर धर्म और संप्रदाय ने अपने-अपने ईश्वर को पाने के लिए कई सारे रीति – रिवाज ,तौर-तरीके और राहें बना डाली है । पर जहाँ तक कोरोना वायरस की बात है तो यह भी एक अदृश्य वायरस है और जिसके ओर – छोर और पहचान का ठिकाना अभी तक किसी को नहीं मिल पाया है । फिर भी सभी लगे हुए हैं और यह बात तय हो गई है कि कोई भी पूरी घमंड और पूरे आत्मविश्वास के साथ यह नहीं कह सकता कि उसके धर्म में कोरोनावायरस को हराने की ताकत है या कोरोना वायरस का इलाज उसके धार्मिक रीति रिवाज में संभव है। इसलिए यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाती है कि धार्मिक मान्यताएँ अपनी जगह है, पूजनीय है, अनुकरणीय है , पर कभी-कभी हमें धर्म के समकक्ष विज्ञान को भी लेकर देखना होगा । बहुत सारी बातों का इलाज और बहुत सारी ऐसी समस्याएँ हैं जिनका समाधान आज भी तर्क और विज्ञान की कसौटी पर ही संभव है ना कि धार्मिक मान्यताओं और सोच – विचारों के मंच पर।

इस वैश्विक महामारी ने कई सारी मुश्किलों को हमारे सामने खड़ा कर दिया है। अपने अस्तित्व को बचाने की चिंता, अपने गाँव घर तक पहुंचने की चिंता, अपने – आप को सुरक्षित रखने की चिंता और इन सारी चिंताओं के बीच धर्म और धार्मिक कर्मकांड की कोई अहमियत रही नहीं । जो सबसे प्रमुख बात आज हमारे सामने है वह यह है कि आज हमारे लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हम खुद हैं , क्योंकि यदि हम सुरक्षित हैं तो हमारी सुरक्षा से ही हमारा परिवार भी सुरक्षित है और हमारे आसपास के लोग भी। ठीक इसी तरह यदि व्यक्ति खुद की सुरक्षा ना करेगा तो उससे मिलने वाले बहुत सारे व्यक्ति का जीवन खतरे में पड़ सकता है। ऐसे में ईश्वर और उसके प्रति आस्था सिर्फ आत्मा और सोच में ही उपस्थित दिखाई देती है । इस आध्यात्मिकता के बलबूते हम इस दौर की मुश्किलों को आत्मबल और दृढ़ता के साथ हल करें , फिलहाल धर्म का स्वरूप बस इतना ही है ।

वैश्विक महामारी संभव है कभी न कभी समाप्त हो ही जाएगा पर इसने हम सबों को यह पाठ बहुत अच्छे से पढ़ा दिया है कि आज सबसे बड़ा धर्म इंसानियत है और खुद की सुरक्षा ही आध्यात्म है । खुद को सुरक्षित रखते हुए आसपास एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण करना ही सबसे बड़ा दायित्व है इस विभीषिका की अवधि में। पिछले कुछ महीनों से जितने भी त्योहार हुए सभी सादगी के साथ मनाए गए, जो कुछ भी परम्पराएँ और मान्यताएँ थी और जिसे आज तक आम जनता बहुत ही जरूरी मानती थी वह सभी इस कोरोना काल में गैर जरूरी साबित हुए । एक कहावत भी है कि ” *मन चंगा तो कठौती गंगा*। ” कुछ इसी तरह की बात कोरोनावायरस ने भी हमें बताया । यदि धर्म कहीं है , धार्मिक स्थल की पवित्रता और शुचिता कहीं है तो हमारे अंदर ही मौजूद है । उसे बाहर ढूँढने की आवश्यकता नहीं है । रामनवमी ईद जैसे कई सारे त्यौहार इस दौरान गुजरे और सभी त्योहारों को हमने बड़ी ही सादगी के साथ सिर्फ सूचक रूप में मनाया । धर्म का सही स्वरूप भी सादगी, शांति और शुचिता में ही है न कि अपव्ययिता , तामझाम और शोरशराबे में । कोरोना वायरस जो कि खुद अदृश्य है उसने हमें अदृश्य ईश्वर से भी साक्षात्कार कराने की कोशिश की है ताकि हम धर्म का सही मर्म समझ पाएँ ।

डॉ कल्याणी कबीर
साहित्यकार
जमशेदपुर,झारखंड

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