क्या खोया क्या पाया

क्या खोया क्या पाया

(इस लॉकडाउन में)

विश्वव्यापी कोरोना महामारी के कारण जिस दिन पूरी तरह से लॉकडाउन की घोषणा की गई, लगा जीवन थम गया। जीवन की बिल्कुल ही नई परिस्थिति और डर ने मिल कर एक अजीब सा माहौल बना दिया था जो खुशगवार तो नहीं था, सबकुछ उलट पुलट सा गया था। किन्तु हमारा मानव मन ऐसा है कि सिर्फ़ दो तीन दिनों में ही इस नई परिस्थिति में ना सिर्फ सामंजस्य बैठाना शुरू कर दिया बल्कि हँसी खुशी और संतुष्टि के पल भी ढूँढ लिए। कुछ दिन पहले तक जो सबकुछ निराशाजनक लग रहा था, उसमें भी हमने अपनी आशाओं से अवसर तलाश ही लिये। यही तो सशक्त सकारात्मक पहलू है मानव मन और मस्तिष्क का।

मैं भी सकते में थी जब लॉकडाउन की घोषणा हुई। संक्रमण का खतरा, स्कूल का अचानक से बन्द हो जाना, घर में बन्द रहना और उस पर से घर के सारे काम काज .. ऐसा लग रहा था मानो एक- एक दिन काटना भारी पड़ेगा। मन को समझाना ही पड़ा, दूसरा रास्ता भी क्या था ? अगले दिन से जुट गयी खाना बनाने से ले कर बर्तन धोने झाड़ू पोछा जैसे सभी घरेलू कामों में । झाड़ू करते हुए देखा कि सामने दिखने वाली जगहों के अलावा कई जगहों पर, जैसे, कार्पेट के नीचे, कोनों में, दरवाजों के पीछे जैसी जगहों पर ठीक से सफाई नहीं थी। बर्तन धोते समय भी ऐसा ही कुछ महसूस हुआ, लगा कि बाहरी भाग दौड़ और व्यस्तता के कारण कई खामियां सामने रहती हुई भी नहीं दिखती हैं। एक दो दिनों में ही जब घर शीशे जैसा और बर्तन चाँदी जैसे चमकने लगे तब एक आत्मसंतुष्टि का बोध हुआ और लगा कि हम भारतीय औरतें बाहर कुछ भी कर लें लेकिन मन का एक कोना अपने घर में ही अटका होता है। साथ ही उन गृहणियों के लिये मन श्रद्धा और आदर से भर उठा जो बड़े मनोयोग से रोज सारे घर के काम करती हैं। खाना बनाना कभी भी मेरा शौक़ नहीं रहा। घर के लोगों के, खास कर बेटे की पसन्द की चीजें बनाती जरूर हूँ लेकिन उसमें मेरी कोई खास अभिरुचि नहीं है। हालांकि कई बार कुछ खास डिशेस बनाने की बहुत इच्छा रहती है जिसे मैं व्यस्त दिनचर्या में पूरा नहीं कर पाती हूँ। लेकिन इस पूरे लॉकडाउन में मैंने लगभग हर दिन पूरे मनोयोग और प्यार से कुछ न कुछ खास बनाया और खुद भी चकित रह गयी कि मैं तो अच्छी कुक भी हूँ। आत्मविश्वास में थोड़ी बढोत्तरी हो गई।

एक चिन्ता लगातार सता रही थी कि स्कूल के बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा ? ऑनलाइन क्लास के बारे में ज्यादा कुछ जानती नहीं थी और समस्या ये भी थी कि पेरेंट्स इसमें कितना सहयोग कर पाएँगे। कुछ टीचर्स के सहयोग से पहले हाई स्कूल के बच्चों के स्मार्ट फोन नम्बर इकट्ठे किये गए और उनके क्लास के ग्रुप बने फिर धीरे धीरे सभी टीचर्स ने अपने अपने क्लास के ग्रुप, बकायदा टाइम टेबल के साथ बना लिये और कुछ एप्प की मदद से हमलोगों ने अच्छी तरह से नर्सरी से दसवीं तक ऑनलाइन क्लास करवाते रहे। इसमें सबसे ज्यादा सहयोग पेरेंट्स का रहा जिन्होंने इसे काफ़ी गम्भीरता से लिया। इसके कई फायदे हुए एक तो पेरेंट्स, टीचर्स और हमने बहुत कुछ सीख लिया दूसरी और सबसे बड़ी बात ये हुई कि पेरेंट्स ने बच्चों की पढ़ाई की ओर ध्यान देना और समय देना सीख लिया।

हालांकि स्कूल,क्लास और उस पढ़ाई का कोई भी विकल्प नही हो सकता फिर भी हमने बच्चों और पेरेंट्स को पढ़ाई से जोड़े रखा, इसे भी मैं एक उपलब्धि मानती हूँ। पढ़ाई के साथ साथ हमने ऑनलाइन मदर्स डे भी खूब उत्साह से मनाया। बच्चों और उनकी मम्मियों ने फोटो, कार्ड, वीडियो, गीत ,कविता लिख सभी कुछ भेजे। यह एक अनूठा अनुभव रहा। एक बार फिर ये विश्वास और मजबूत हो गया कि माँ बच्चों के लिये कुछ भी सीख सकती हैं ।

वैसे एक चिंता का विषय यह है कि बच्चों को इतनी इतनी देर मोबाइल से या लैपटॉप से जुड़े रहने की आदत ठीक नहीं है। इनका आँखों और आदतों पर जरूर ही कुप्रभाव पड़ेगा। मोबाइल और लैपटॉप की दुनिया वास्तविक नहीं , वर्चुअल (आभासी) दुनिया है जिससे बच्चों के समाजीकरण पर निश्चय ही दुष्प्रभाव पड़ेगा। इस महामारी ने हर किसी को निश्चय ही समाज से दूर किया है। सबकुछ सामान्य होने पर भी बच्चों को वापस अपनी सामान्य दुनिया मे लौटने में समय लगेगा।

अपनी बात कहूँ तो मैंने इस असमाजीकरण की स्थिति में अपने एकांत को काफी एन्जॉय किया। कई किताबें जो काफ़ी दिनों पहले खरीदी थी, उन्हें स्थिर से आस्वादन के साथ पढ़ा। अपने जीवन के उतार – चढ़ाव, सही – गलत निर्णयों पर चिन्तन किया, अपनी पसन्द के भजन और गीत सुने, अपने पसंदीदा सिनेमा देखे ।इस बात को बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि घड़ी के काँटों की रफ्तार पर ना दौड़ कर खुद की रफ्तार पर चलने का अपना ही मजा है।

इस लॉकडाउन में जो मुझे सबसे ज्यादा अच्छा लगा, वो था दूरदर्शन की वापसी। आजकल विभिन्न चैनलों पर आने वाले चमक दमक और भौतिकतावाद को बढ़ावा देने वाले सिरियल्स देखना मुझे पसन्द नहीं । दूरदर्शन पर रामायण देखना मेरे लिये 33 – 34 वर्ष पहले के कालखंड में वापस जाने जैसा था, जब हर रविवार को रामायण का प्रसारण हुआ करता था। तब,जब मैं कॉलेज में थी और तब मुझ पर घर और गार्डेन सजाने की सनक सवार थी। रविवार को पापा का ऑफिस न जा कर घर में रहना, माँ का जल्दी जल्दी किचेन में संडे स्पेशल तैयार करना और हम सबको प्यार और मनुहार से खिलाना, हमेशा साथ साथ रहने वाली मेरी दोनों छोटी चुलबुली बहनें जिनमें किसी भी बात के लिये लड़ाई हो सकती थी, चाहे वो किसी खास जगह बैठ कर टी वी देखने का ही मुद्दा क्यो ना हो। मेरा छोटा सा सुन्दर नटखट भाई जिसे बाहर भागने से रोकने के लिये रामायण की कहानी लगातार सुनाती रहनी पड़ती थी। पनबट्टा लिये बैठी पान खाती दादी जिनके मनोभाव रामायण के साथ साथ चलते थे.. मंथरा के आते ही उनका कहना.. आ गईली मंथरा, सब के दुख देवे .. कभी राम जी को प्रणाम करती, कभी हनुमान जी को देख कर खुश होतीं और कभी वनवास के दृश्य पर आहें भरती। मेरे बचपन से ही हमारे घर मे रहने वाला सियाराम जो छत पर जा कर ऐंटेना एडजस्ट करने को हमेशा तैयार रहता था। रामायण ऐसे भी मेरे हृदय के बहुत करीब है और इस बार के पुनः प्रसारण ने मानो टाइम मशीन पर बैठा कर मुझे मेरे जीवन के प्रिय समय में वापस ले गया। इसे भी मैं एक उपलब्धि ही मानती हूँ। जो समय बीत रहा होता है उसकी महत्ता कब समझ मे आए, ये पता नहीं होता। हमें यह भी पता नहीं होता कि हमारा अवचेतन मन क्या क्या रिकॉर्ड कर के रख रहा है और किसी खास माहौल के आते ही वो आँखों के सामने हू ब हू प्रकट करने में सक्षम है।

दूरदर्शन ने मेरी अति प्रिय लेखिका शिवानी की कृति, अमोल पालेकर निर्देशित ‘कृष्णकली’ , रविन्द्र नाथ टैगोर द्वारा रचित ‘गोरा’ और शरत चन्द्र लिखित ‘श्रीकांत’ का प्रसारण कर मन को भावविभोर कर दिया। इसे भी मैं लॉकडाउन की एक उपलब्धि में ही गिनती हूँ ।
जहाँ वैश्विक महामारी कोरोना के कारण व्याप्त डर, मृत्यु, आर्थिक पिछड़ापन, पढ़ाई की अनिश्चितता, बेरोजगारी, अपनों से दूरी जैसी अनेक नकारात्मकताओं ने हमसे बहुत कुछ छीना, हम सब ने, हमारे देश ने बल्कि सम्पूर्ण विश्व ने बहुत कुछ खोया, वहीं हम सब जहाँ भावनात्मक तौर पर अपनों से और जुड़ गए वहीं व्यक्तिगत तौर पर हमने खुद के लिये बहुत कुछ समेटा भी है। बाहर की यात्राएँ तो हमने बहुत कीं, इस लॉकडाउन ने हमें खुद के अंदर की, अपने अन्तर्मन की यात्रा का एक सुअवसर दे दिया।

डॉ निधि श्रीवास्तव
जमशेदपुर, झारखंड

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