सोशल डिस्टेंसिंग और सोशल नेटवर्किंग
वैश्विक बीमारी कॉरोना ने आज विश्व की तमाम जनसंख्या को घर की चारदिवारी में क़ैद करवा दिया है । ” सोशल डिस्टेंसिंग ” आम बोलचाल का शब्द हो गया है , जिसका अर्थ भी सबको समझ में आ रहा है ।
समाज में पिछले कुछ वर्षों के प्रचलन पर ध्यान दिया जाये तो हम पायेंगे कि सोशल डिस्टेंसिंग तो यहाँ पहले से ही पैठ बनाये हुए है ठीक वैसे ही जैसे सोशल नेटवर्किंग ।
सोशल मीडिया जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुका है,जहाँ इंटरनेट का प्रयोग करते हुए चंद ही मिनटों में व्यक्ति शेष विश्व से जुड़ जाता है ।
फेसबुक के नाम से आज कौन परिचित नहीं ! 16वर्ष पूर्व ,4 फरवरी 2004 को इस अमेरिकी सोशल नेटवर्किंग साइट की स्थापना हुई थी। 26 सितंबर 2006 को इसने भारत में प्रवेश किया । नियमानुसार 13 वर्ष से बड़ा कोई भी नागरिक अपने वैध ई मेल से इस साइट पर ख़ुद को रजिस्टर करवा सकता है । आज स्थिति ये है कि 28 करोड़ भारतवासी अर्थात् हर चौथा भारतीय फेसबुक पर उपस्थित है।भारत फेसबुक का सबसे बड़ा बाज़ार है।
इसी प्रकार व्हाट्सएप के विश्व में 150 करोड़ सक्रिय उपयोगकर्ता हैं , जिनमें से 20 करोड़ भारतीय हैं ।मैसेंजर , इंस्टाग्राम, ट्विटर और टिक टॉक इत्यादि भी लोगों को व्यस्त किये हुए हैं ।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी तो है ही ; उसकी समर्थन व अनुमोदन प्राप्त करने की प्रवृत्ति भी बहुत बलशाली होती है । ऐसे में सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफार्म उभरकर आया है जहाँ लोग अपनी कला को, अपने उत्पाद को ,अपने विचारों व उपलब्धियों को और स्वयं को भी शब्दों, तस्वीरों और वीडियो के माध्यम से प्रदर्शित कर सकते हैं । निर्भीक अपनी बात कह सकते हैं और दूसरों के विचार ही जान सकते हैं । फेसबुक पर अनेक समूह बने हुए हैं,जहाँ कलात्मक, साहित्यिक और मनोरंजनात्मक गतिविधियां लगातार चलती रहती हैं । सोशल मीडिया ने एक ऐसी आभासी दुनिया का निर्माण किया है जहाँ सबके लिये स्थान है और जहाँ पहुंचना एक बटन दबाने जितना आसान है । ज़रा से दायरे में पूरा विश्व संकुचित है ।ये आभासी दुनिया इतनी लुभावनी है कि लोग अपनी वास्तविक दुनिया को अनदेखा करके यहाँ समय व्यतीत करते हैं । लोग वास्तविक दुनिया में एक दूसरे से कट रहे हैं ।अपनेआप में सीमित- आभासी दुनिया में विस्तार पा रहे हैं ।
ऐसे दृश्य प्रायः देखने को मिलते हैं कि कुछ मित्र साथ में बैठे हैं, लेकिन संवाद शून्य है ।संवाद सक्रिय है फोन के अंदर । वो एक दूसरे को नहीं, बल्कि अपने फोन को देख रहे हैं ।एक समय हुआ करता था जब यात्री बस या रेलगाड़ी में बैठते ही बातचीत शुरु कर देते थे । गंतव्य तक पहुंचते पहुंचते आपस में एक रिश्ता स्थापित कर चुके होते थे ।आज ऐसे दृश्य विरले ही नज़र आते हैं । हर यात्री अपने फोन या लैपटॉप पर कहीं और मिलजुल रहा होता है ।
घरों – परिवारों में भी ये स्थिति आम है ।फ़ुर्सत पाने पर इंसान घर से बाहर अड़ोस पड़ोस के या दोस्तों व रिश्तेदारों के हालचाल जानने नहीं निकलता बल्कि सोशल नेटवर्किंग साइट पर दुनिया के हाल जानने में अधिक रुचि रखता है और ख़ुद के हाल भी वहीं प्रकाशित करता है ।ऐसे में ” सोशल डिस्टेंसिंग “का उत्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं । वास्तविक दुनिया में मेलजोल अब औपचारिकता मात्र रह गया है। दिखावे ने मानवीय संवेदनाओं का स्थान ले लिया है । संवादहीनता संवेदनहीनता को और बढ़ा रही है ।
समय की सीमा तो सदैव रहती है । सीमित समय यदि आभासी दुनिया में ही व्यतीत हो जायेगा तो वास्तविक जगत के लिये समय कहाँ से आयेगा ? इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी रिश्ते के पौध को पनपने के लिये समय का उर्वर माँगता है , नहीं मिलने की अवस्था में उसका मुरझाना तय है और दूरियों का बढ़ना भी ।
तकनीक की उष्णता मानवीय रिश्तों की नमी को सुखा रही है । समय रहते नहीं चेते तो ये ” सोशल डिस्टेंसिंग ” समाज का स्थाई आयाम बन सकता है । समाधान बस संतुलन है आभासी और वास्तविक दुनिया के बीच , जो संभव है मात्र आत्मनियंत्रण, आत्म अनुशासन और समझदारी से ।
रचना सरन
साहित्यकार
कोलकाता, पश्चिम बंगाल