माँ तू अनमोल है
न जाने कितनी ही बार
लड़खडाते कदमो को संभाली होगी माँ
न जाने कितनी ही बार
गिरने से बचाई होगी माँ
न जाने कितनी ही बार
गोद में लेकर थपकी दी होगी माँ
न जाने कितनी ही बार
कितने जतन की होगी मेरी हंसी खुशी के लिए माँ
न जाने कितनी ही बार
मेरे निराशा के काली रातों को
आशा की सूबह में बदली होगी माँ
न जाने कितनी ही बार
मेरे हताश को जोश में बदली होगी माँ
न जाने कितनी ही बार मेरे मौन से ही ,
मेरे दिल का हर एहसास समझा होगा
तारों को कोई गिन पाया
माँ के किए हुए को संतान गिन पाए
ज़ीवन में कितने रिश्ते है
पर किसी रिश्ते में इतना ज़ीवन नहीं ,
सुख नहीं ,
खुशी नहीं ,
शांति नहीं
तू अपने स्नेह मेहनत से मुझे सिंचती रही
तू ही मेरी धरा माँ
तू मेरे सम्मान की संरक्षक बनी रही
तू ही मेरी नभ माँ
तू बूंद बूंद कर प्रेम से ज़ीवन को भरती रही
तू ही मेरी सागर माँ
निर्मल कोमल पवित्र सा ह्रदय तेरा
तू ही मेरी गंगा माँ
तू उपदेशक मार्गदर्शक गीता सी
तू ही मेरी कृष्ण माँ
तू संस्कार मर्यादा का धोतक सी
तू ही मेरी राम माँ
जो भी मेरे पास है सब तेरा ही तो दिया हुआ
तू ही मेरी दाता माँ
तू ही मेरे ज़ीवन का
सत्य भी
शिवम भी
सुन्दर भी
मेरी माँ
ख्याहिश मेरी भी है
तेरे कंधे का बोझ कुछ कम कर सकूँ
तेरे ज़ीवन के तप्त मरू में बरगद सा छाँव बन सकूँ
तेरे मान सम्मान में चार चांद लगा सकूँ
तेरे ज़ीवन के लिए
न विप्लव बन सकी
न हुंकार सकी
न ललकार सकी
समाज की रीति – रिवाजों को
न तोड़ सकी उस बंदिशों को
मैं अर्पणा न बन सकी
कुछ न अर्पण कर सकी
न शोभा ही बन सकी
न तेरी शोभा बढा सकी
किंतु ये कोशिशें ख्वाहिशें ही क्यों
आखिर कब मानव ईश्वर को कुछ भी लौटा पाता है
क्या यह संभव है कि
ईश्वर के उपकारो का कर्ज़ चुका पाए कोई
हम जितने भी आधुनिक हो
वैज्ञानिक हो
यह असंभव ही रहा सदा
यह असंभव ही रहेगा सदा
पूजा अर्चना भी तो केवल
आत्मसंतुष्टि का ही मार्ग है
अर्पणा संत सिंह