जी ले कुछ पल अपने लिए

जी ले कुछ पल अपने लिए

थम चुका वक़्त की बर्फीली हवाओं का दौर
पिघल चुकी संघर्षों की बदली
भागमभाग की चट्टानें
शोर था विकट, घनघोर निकट,
एक सूक्ष्मतम तंतु ने भेद डाले,
असमंजसों के जाल
अर्श से पाताल?
मनुष्य! कुछ थमो तुम,
करो आत्ममंथन
मथा ज्यूं समुद्र को,
पाया अमृत समुद्रमंथन
असुर है! यह असुर है!
हां निश्चित ही असुर है!
प्रतिकूल समय का कहर है,
चहुंओर कलयुग का असर है!

बीत जाएगा मनुष्य!
जैसे बीतते क्षण चले, सदियों से
यह वक़्त भी बीत जाना है!
सदा की तरह समय की चाल का
निश्चित अपना फसाना है!

जी ले कुछ पल अपने लिए
सांसों को गति देते अपनों के लिए
नहीं तो मिट्टी की मानिंद
फिसल जाएंगे वक़्त के कण
रह जाएगी समय के हाथों चोटिल,
रक्तिम हथेलियां, रिक्त
एक बार फिर!
इस मौन में छिपा है प्रलय का शोर
प्रलय, अंतर्मन को खंगालने का
अपने भय पर विजयश्री पाने का
धैर्य के सेतु बनाने का,
उन पर आरोहण की घड़ी आने का!

बदला परिदृश्य होना ही है बेहतर
निश्चित है काल, तो है निश्चित अनंतकाल
ऐ मनुष्य! तू चला है, तू चला चल
किंकर्तव्यविमूढ़, हां मगर चल
तू था, तू है, तू होगा अविचल
होगा प्रबल,
मनोबल
आत्मचिंतन के रथ
बस थोड़ा संभल!

डॉ. मेघना शर्मा
साहित्यकार और शिक्षाविद
बीकानेर, राजस्थान

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