मात देने को
विश्व के सम्मुख बड़ी विपदा खड़ी है
मात देने को मगर हिम्मत अड़ी है।
खौफ से मासूमियत भी कैद घर में
खेल का मैदान तकता रास्ता है
ओढ़ चुप्पी कह रही सुनसान सड़कें
भूल मत तेरा हमारा वास्ता है
अब तरीके युद्ध लड़ने के अलग हैं
ये लड़ाई बैठ कर घर मे लड़ी है
मात देने को…….
बढ़ रहा है खौफ़ का पंजा निरन्तर
वायरस का हर तरफ तांडव मचा है
मौत की ज़द में सभी की जिंदगी है
ढूँढ वह कोना सुरक्षित जो बचा है
उठ रही जिस भी दिशा में अब नज़र
उस तरफ ही दौड़ती सी हड़बड़ी है
मात देने को……..
आसमां भी मुक्त सारे अब समंदर
जंगलों के शहर के अंदर दखल है
मुक्त नभ के जीव पृथ्वी जी रही है
अब हवाओं में न कोई भी खलल है
चैन से जीती प्रकृति कह रही है
चंद दिन की ये खुशी बेहद बड़ी है।
मात देने को………..
तारकेश्वरी ‘सुधि’
साहित्यकार
जयपुर, राजस्थान