मौसी

मौसी

मैं ‘आल इंडिया ओरिएण्टल कांफ्रेंस’ में शिरकत करने कश्मीर गई हुई थी।उस दिव्य प्रदेश का अवलोकन कर मैं अचरज में थी कि इतना मनोरम दृश्य ! वास्तव में इसे धरती का स्वर्ग कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। यह तो ख्वाब से भी बढ़ कर है। मैं ऐसा अनुभव कर रही थी, जैसे स्वप्न देख रही हूँ।इसकी शोभा को शब्दों में समेटना असंभव है।हरीतिमा को अपने में समेटे हुए यह दिव्य प्रदेश आकर्षण का केंद्र है।कतारबद्ध फूलों की मोहकता, करीने से सजा गुलाब, लम्बी कतार में शाख – विशाख हो फैले नाना प्रकार के पुष्प, शान्त डल-झील में रंग-बिरंगी नौकाएं, उसमें सवार जल विहार करते एवं कश्मीर की मोहकता का रसास्वादन करते अपनी जीवन की कठिनता को विस्मृत कर उन्मुक्तता का आनन्द उठाता अनेक प्रदेश से आये सैलानी ऐसे लग रहे थे जैसे सम्पूर्ण भारत का प्रतिबिम्ब दिख रहा हो।

ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भारत के अधिकांश कवि या लेखक इसी प्रदेश की सौंदर्य को देख कर काव्य,महाकाव्य या ग्रंथों को अलंकृत किया होगा।

मैं वहाँ कांफ्रेंस से फुर्सत पाकर ‘कश्मीर यूनिवर्सिटी ‘ स्थित एक उपवन के अवलोकन में निमग्न थी और सोच रही थी कि हमारे शहीद भाइयों ने अपनी जान न्योछावर कर दी इसकी रक्षा में।उनके बलिदान के कारण ही हमें यह स्वर्गिक आनन्द मिल रहा था।उनकी त्याग को याद कर गुन-गुना रही थी “ऐ मेरे वतन के लोगों………” रमणीक स्थल तथा अपने वीर भाइयों की याद ने मेरी सुध ही बिसरा दी थी।तभी अचानक मेरे कानों में चिर-परिचित आवाज़ ने दस्तक दी और मेरी तन्द्रा भंग हो गई।पलट कर देखा तो पास ही मेरी सहपाठिनी अपने किसी मित्र से बात-चीत कर रही थी। मैंने पीछे से जाकर उसकी आँखें अपनी हथेलियों से ढ़क दिया और पहले की ही तरह पूछा ‘पहचान कौन?’ आश्चर्यजनक रूप से उसने तुरंत कहा या उस के मुंह से मेरा नाम निकल गया । मैं भी उसके आवाज को पहचान कर पलट कर उसे देखा था और मेरी सहेली ने भी मेरी आवाज को पहचान लिया था,सुखद क्षण था वह।

हम अपने पुराने दिनों को याद करने लगे और बहुत सारी बातें होने लगी और उसी क्रम में पल्लवी मौसी का जिक्र आया और उसका यह कहना कि पल्लवी मौसी नहीं रहीं।’लोग कहते हैं उनकी देवरानी ने उन्हें धक्का दे दिया था। उनका कमजोर शरीर इस आघात को सहन न कर सका और उनका प्राणान्त हो गया। उनकी सम्पूर्ण जीवनी मेरी आँखों के सामने घूम गया और मैं उनकी यादों में खो सी गई।वे बाल- विधवा थीं।मात्र १३ -१४ वर्ष की अल्प -आयु में परिणय-सूत्र में बांध दिया गया।विवाह के दूसरे दिन ही प्रातः काल मौसाजी को सिरदर्द हुआ और वे काल – कवलित हो गए।सम्पूर्ण गाँव में हाहाकार मच गया।मौसी दुःख के सागर में डूब गयीं। वाल्यावस्था में ही ऐसी भीषण त्रासदी ? पहले के बच्चे असमय ही बड़े हो जाते थे. आज के ज़माने में तो १३-१४ में बच्चे को तो इतनी समझ भी नहीं होती है।

मौसी की निश्छल हँसी,किशोर वय की कल्पनाएँ, मधुर सपने सभी कुछ रेत के महल की तरह ढ़ह गया।रह गया तो मात्र एकाकीपन एवं समाज के लोगों की कृपादृष्टि।समय बलवान होता है यह कहावत चरितार्थ होते हुए दो साल व्यतीत हो गये।मौसी के श्वसुर के मौसी को देखने तथा अपने साथ लिवाने के लिए यदा कदा आते रहे। वे सज्जनता के प्रतिमूर्ति थे।उनके बार -बार आने से तथा वत्स्ल्यातापूर्ण स्नेह के वशीभूत मौसी अपने पिताजी से ससुराल जाने की अनुमति ले ली।उनके पिताजी ने इस हिदायत के साथ भेजा कि अगर मेरी बेटी का मन नहीं लगेगा तो यह अंतिम बार जाना होगा।मौसी के सास-श्वसुर के अत्यन्त लाड़ के कारण मौसी वहीं रहने लगी। माता-पिता सदृश सास-श्वसुर को पाकर मौसी निहाल थीं।दोनों ने मौसी को पुनर्विवाह करने की भी सलाह दी थी,लेकिन मौसी ने स्वीकार नहीं किया। विवाह के रस्म के समय ध्रुवतार देखने के वक्त प्रथम दृष्टि से मौसाजी को देखा था,और उसी प्रथम दृष्टि में मौसाजी के संग अटूट बंधन में बंधना या सात फेरे के वचन का असर था कारण तो ज्ञात नहीं है लेकिन वो दूसरी शादी के लिए कभी भी राजी नहीं हुईं। बातों-बातों में एक बार उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारे मौसाजी साक्षात् कामदेव के अवतार थे।उनके रूप लावण्य तथा उनकी स्नेहसिक्त नयन को मैं आजीवन नहीं भूल सकती, लगता है उन आँखों का जादू था जिसके अवश में मैं एक जन्म क्या जन्म -जन्मान्तर तक ऐसे ही जीवन गुजार सकती हूँ।अस्तु।

मौसी अपने ससुराल में बहुत प्रसन्न थीं। उनके देव स्वरूप श्वसुर उनके लिए सुविधापूर्ण हवेली ही बनवा दिया था। उनका अधिक समय पूजा में ही व्यतीत हो जाया करता था। कुछ वर्ष बाद स्नेहमयी सास का भी देहान्त हो गया और कुछ भी दिनों के पश्चात् श्वसुर भी नहीं रहे। मौसी का विचलित होना स्वाभाविक ही था,लेकिन उन्होंने पुनः अपने आपको संभाल लिया।

१८ वर्ष की आयु में ही मौसी तपस्विनी हो गई थीं। सदैव धार्मिक कार्यों में ही लीन रहा करती थीं।मधुर स्वभाव तथा परोपकार की भावना के कारण गाँव वालों की चहेती थीं। अपने भाई जैसे देवर को भी संभाला था।कुछ दिनों बाद देवर का विवाह भी हो गया।देवर के विवाह होने के उपरान्त देवरानी का व्यव्हार स्नेहपूर्ण नहीं होने के कारण उन्होंने अपने आप को कछुए की तरह अपने खोल में समेट लिया। पुनः धार्मिक कार्यों में तल्लीन रहने लगीं। अधिक समय पूजा पाठ में व्यतीत करने लगीं।

यह कहावत कि, बच्चों की ममता के समक्ष सारी तपस्या धूमिल हो जाती है।यही मौसी के साथ भी हुआ।देवर के पुत्र होने के बाद उसके लालन -पालन में खो सी गयीं।बच्चों की किलकारियों में अपने जीवन के समस्त दर्द को भूल गईं। बच्चे के परवरिश में समय कैसे व्यतीत हो रहा था इसका भान भी उन्हें नहीं हुआ। देवरानी का स्वभाव भी बदल गया था। बच्चा भी अब बड़ा होने लगा ।देवरानी ने छल से झूठा स्नेह दिखाकर भोली-भाली मौसी से सारी जायदाद अपनी बेटे के नाम करवा ली।मौसी की सहेली ने रोकने का अथक प्रयास किया लेकिन प्यार में अंधी बनी मौसी उनकी बात न सुन सकी न समझ सकी।.कुछ दिनों बाद उनकी हवेलीनुमा घर भी बच्चे की पढाई की आड़ में मौसी से छीन लिया गया।मौसी तो बच्चे के लिए कुछ भी कर सकती थी। उन्होंने सहर्ष वह हवेली भी उनके नाम कर दिया।उदार हृदया मौसी को नौकरों वाला कमरा मिल गया।उस कोठरी को ही अपना नियति मान कर रहने लगीं।एक बार ध्यान टूटने से पूजा में भी मन नहीं लगता था।देवर के बेटे पर ही ध्यान लगा रहता था।देवरानी द्वारा अपमानित होने के बाद भी वो बच्चे से मिलने चली जाती थीं।उनकी सहेली मना करती थी,कहती थी ‘मिर्ची के वृक्ष में मिर्च ही तो फलेगी’ मोह मत कर, लेकिन मौसी का दिल तो मानता ही नहीं था।

उनकी सहेली का जीवन भी सुखमय नहीं था।परित्यक्ता थीं वे।पति के स्नेह से वंचित उनकी एक मात्र सहेली मौसी ही सहारा थीं।मौसी का अपनी इस गरीब सखी से अगाध स्नेह था। कभी-कभी आर्थिक सहायता भी मौसी कर दिया करती थीं,लेकिन अब तो मौसी स्वयं ही असहाय हो गई थीं।दोस्ती तो स्वार्थ से परे होता है।जब अपना साया भी छोड़ देता है तब भी सच्चा मित्र साथ निभता है।इसी उक्ति को सत्य प्रमाणित करते हुए दोनों दोस्त एक दूसरे का सहारा बनकर जीवन व्यतीत कर रही थीं।

समयानुसार देवर के बेटे की भी शादी हो गई।सौभाग्यवश उसकी पत्नी मौसी का बहुत सम्मान करती थी।उनका बहुत ध्यान रखा करती थी। मौसी का भी बहुत लगाव था बहू से।उसने मौसी को उस काल-कोठरी से निकाल कर अपने पास के कमरे में ही ससम्मान रखा।पहली बार उनका जन्म दिन भी मनाया।’तपते रेगिस्तान में ओस की बूंदों’का महत्व वहाँ के रहनेवालों को ही पता होता है।वैसे ही सदैव स्नेह से वंचित मौसी निश्छल स्नेह पाकर आनंदमग्न हो गई थीं। कहते हैं न सुख की घड़ी छोटी होती है।मौसी कोई अपवाद तो थी नहीं। उनके साथ भी यही हुआ। उनकी सहेली तीर्थ यात्रा पर निकल गई।मोह वश मौसी साथ नहीं जा पायीं।बहू भी अपनी माँ की अस्वस्थता के कारण मायके चली गई।उसके जाने के बाद देवरानी का आतंक आरम्भ हो गया। देवर तो अपनी कुटिल पत्नी के कारण मनो मौन व्रत ही धारण कर बैठा था। वृद्धावस्था एवं कठिन परिस्थिति के कारण मौसी का शारीर जर-जर हो गया था।ताने-उलाहने से क्लान्त हो गई थीं।आज उनके सब्र का बांध टूट गया था, कहावत भी है कि ‘वीणा के तार को इतना मत खींचो कि वह टूट ही जाये’।उन्होंने पलट कर अपनी देवरानी को जवाब दिया- कहा कि ‘ मैं मूर्ख नहीं हूँ,तुम्हारी धूर्तता समझती हूँ, घर में शान्ति तथा संस्कारगत स्वभाव के कारण चुप रहा करती थी।सम्पति भी मैंने दे दी, फिर भी तुम मुझे जीवन-पर्यन्त परेशान ही करती रही। न स्वयं चैन से रही न मुझे रहने दी कभी। ईश्वर से डर उससे बड़ा कोई नहीं है। जीवन भर उफ़ तक नहीं करने वाली सरला मौसी इतना कहने के साथ ही हांफने लगी तथा आंसू से भीग गईं। एक छत्र राज्य करने वाली देवरानी से सहन नहीं हुआ और उसने मौसी को चालाकी से धक्का दे दिया जिससे मौसी गिर गईं और उनका अन्त हो गया।इस नश्वर शरीर से सदा के लिए मुक्ति मिल गई उन्हें।इतनी त्यागमयी महिला का इस तरह अन्त! कलयुग इसे ही कहते हैं। जहाँ सरल, निश्छल और त्यागमयी नारी का कोई मोल नहीं होता।

जीवन बहुत अनमोल उपहार है।इसे इस तरह बर्बाद नहीं करना चाहिए था। सबके इच्छा अनुसार उन्हें पुनर्विवाह कर लेनी चाहिए थी। मात्र भावना से और त्याग से कुछ नहीं होता।

 

डॉ.रजनी दुर्गेश

देहरादून, भारत

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