दो मोर्चों पर स्त्री

दो मोर्चों पर स्त्री

पुरूष मानसिकता वाले इस समाज में
आसान नहीं स्त्री का खड़ा हो पाना
स्वतंत्रता से ,बेबाक ,हँसना-मुस्कुराना ।
पढ़-लिख कर काबिलियत के बल -बूते
बाहर पाया मुकाम, बनायी अपनी पहचान
भाया तेरा कमाना, काम के लिए बाहर जाना
पर नहीं रास आया , तेरा निर्णायक कुछ कह जाना
दो-दो मोर्चों पर डटना, नहीं है आसान
बचा कर रखो अपनी ऊर्जा, स्व की पहचान
बाहर जाओ पर घर में जी हुजूरी बजाओ
नहीं तो बात और तानों से खुद को छलनी पाओ
शायद और भी बहुत कुछ अभी बाकी है
सुनना और सहना
धैर्य रख कर्म करो, कल अवश्य आएगा नव विहान
बेटियों को बनाओ मजबूत
बेटों में डालो बराबरी देने का ज्ञान
तभी शायद भविष्य में हो पाएगा
बराबर सोच वाले समाज का निर्माण
अरे ! कहाँ चली महिला दिवस मनाने
रूक भी जाओ
खुद को शरीर से मजबूत, निडर और सशक्त बनाओ
नहीं तो आज भर लगेगा, ये नाच -गान ,
उत्सव मनाना सुहाना
कल से फिर वही राग अलापा जाएगा
बेकार, बेसुरा और पुराना ।

पुष्पांजलि मिश्रा
शिक्षिका
जमशेदपुर, झारखंड

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