आ लौट के आ…

आ लौट के आ…

उफ्फ बारह बज गये। एक लम्बी सांस ले उसने लैपटॉप शट ऑफ किया और दोनो हाथ ऊपर कर उंगलियां एक –दूसरे में फंसा चटका दीं। चटर- चटर की आवाज के साथ ही एक पुरानी याद कहीं भीतर कुनमुनाई और दादी का सफेद बालों से घिरा ममतालू चेहरा हवा में उभर आया।होती तो अभी उसे टोंकतीं। कुर्सी पीछे खिसका वह उठ खड़ी हुई और बालकनी की तरफ का मोटा परदा खिसका दिया। काँच के उस पार बारिश के महीन तार ऊंची इमारतों में जलती बत्तियों में हल्के- हल्के चमक रहे थे। सामने की सड़क पर इक्का-दुक्का गाड़ियों की लाइट चमक रही थी। यूं तो दिन के समय भी जमीनी कारोबारों की हलचल उसके तेरहवीं मंजिल के फ्लैट तक नहीं पहुंचती थी पर रात की इस निस्तब्धता में जैसे जमीन सपनों के देश में होती थी और आसमान थोड़ा और पास खिसक आता था।
उसने आहिस्ता से पैर चप्पल से बाहर किये और स्लाइडिंग डोर खिसका बाहर बालकनी में निकल आई।बालकनी की नम फर्श की ठंडक जैसे अगरबत्ती की धूम्र रेख सी तलवों से आहिस्ता- आहिस्ता उसकी रग-रग में पसरने लगी। आह, कितना सुकून मिल रहा है।बालों को क्लचर से आजाद कर उसने अपनी थकी आंखों को पलकों में बंद कर लिया और फिर जैसे हवा ने उसके मन की बात सुन ली, झोंका भर रात रानी की खुशबू आ लिपट गई उससे। धीमें से मुस्कुरा वह बाईं ओर वाली दीवार से सट कर खड़ी हो गई फिर आहिस्ता से बालकनी की रेंलिंग की ओर खिसक आई। हंला कि बारिश की बौछार में वह हल्का-हल्का भीग रही थी वहाँ खड़े होने पर लेकिन इस जगह से रात रानी की खुशबू जैसे उसे भीतर तक सराबोर कर जाती थी। अब वह प्रतीक्षा में थी और लो, विंड चाइम की हल्की हल्की टुन टुन के पीछे उभरने लगी बाँसुरी की धुन। पता नहीं उसे क्यों लगता था कि जब-जब वह देर रात इस तरह बालकनी में आ खड़ी होती है, बाँसुरी की धुन तभी उभरती है। क्या है कोई दीवार के उस तरफ जिसे उसके बालकनी में आने का इंतजार रहता है। धत् कैसी पागल है वह भी जब उसे उधर का कुछ नहीं दिखता तो उधर से किसी को कैसे पता चलेगा उसके होने का। यह भी तो हो सकता है जैसे उसे रात की चुप में लिपट, बारिश की बौछारों के बीच रात रानी को यूं बूंद बूंद पीना सुकून देता है ऐसे ही उस बांसुरी वाले को भी भीगी रातों में मद्धम- मद्धम धुनों में खोना अच्छा लगता हो। लगता ही होगा, ऐसी चंदन लेप सरीखी धुनों को बजाने वाला कलाकार तो होना ही हुआ न और कलाकार मन को भला कब रास आते हैं शोर-शराबे चीख-पुकार से भरे दिन।
जब से बारिश का मौसम आया है, उसके दिन को जैसे देर रात के इस पहर का इंतजार रहने लगा है। बेतरह उमड़ती भीड़ से ठसाठस भरे इस शहर के ट्रफिक से बचने के लिए उसने ही घर से काम करने का ऑपशन खुद ही ले लिया था और फिर ऑफिस में भी लोगों के बीच वह कुछ खास सहज नहीं अनुभव करती थी। नियति ने भी तो उसे हमेशा अकेलेपन की ओर धकेला है, तो उसे भी बस अपना साथ ही अच्छा लगने लगा है, दादी के न रहने के बाद से तो और भी। पर इधर कुछ दिनों से रातरानी की खुशबु, विंड चाइम की रुनझुन, बारिश की टापुर टिपिर के संग लिपटी बाँसुरी की धुन सब मिल कर उसके चारों ओर एक अजब नीला सपनीला सा संसार रच देते हैं। दिन के काम निपटाते हुए भी वह जैसे एक अजब जादुई संसार में रहती है।कभी- कभी उसे लगता है वह जमीन पर पैर धर नहीं चल रही बल्कि हवा में तिर रही है। अरसे बाद उसे अपने भीतर हल्का उजास सा महसूस होता है, वो भोली भोली नन्हीं खुशियों वाला उजास।
उस रात बाँसुरी की धुन बजते- बजते थोड़ी देर को रूकी तो वह सम्मोहन से बाहर निकली पर एक झीनी चादर जैसे तब भी लिपटी थी उसके चारों ओर। बारिश तो हो रही थी पर बालकनी पूरी तरह भीगी नहीं थी। वह दीवार से पीठ टिकाए खड़ी थी रोज की ही तरह पर धुन रुकी तो वह सरकते हुए फर्श पर बैठ गई। खुद- ब खुद बंद हो गईं उसकी आँखें और अनजाने ही वह गुनगुनाने लगी…. आ लौट के आ जा मेरे मीत…..बंद आँखों में साकार हो रहा था उस छोटे से पहाड़ी गाँव में दादी का घर। स्कूल की छुट्टियों में वह घर आती थी हॉस्टल से। बादलों के कारण शाम से ही घिर आता था अंधेरा और दोनों दादी पोती ऊपर की दुच्छती में रौशनदान के पास खटिया में एक दूसरे से चिपट, बाहर जार- जार रोते बादलों के आंसुओं में भीगती रहती थीं। दादी मनुहार करती थी उससे यही गाना गाने को। मम्मी- पापा गए तो वह इतनी छोटी थी कि बस एक धुंधली सी याद थी पर उनके अचानक छिन जाने का दुःख अपने पूरे अस्तित्व के साथ उसकी छाती पर जमा रहता था। दादी कहती थी उसकी माँ यह गाना गाती थी। उसे गाना गाती माँ नहीं याद थी पर पता नहीं कैसे गाना याद था। दादी शायद उससे यह गाना सुनाने को इसीलिए कहती थी कि इसी नाजुक डोर से जुड़ी वह अपने माँ –पापा को महसूसती रहे और कुछ तो पिघले उसके भीतर जमा दर्द। और सच ही दादी के ममत्व की उष्मा में लिपटी, गाना गाते- गाते कब उसकी आँखों से आँसू ढुरकने लगते थे, उसे पता ही नहीं चलता था पर उसके बाद नींद बेहद सुकून भरी आती थी, पता नहीं क्यों। दादी के जाने के बाद तो उसके भीतर यह गीत भी कहीं जम गया था।
पर आज पता नहीं क्या हुआ। कैसे फूट पड़े इस गाने के बोल। गाते –गाते वह खो गई थी।डोल रही थी उन बंद दरवाजों के भीतर जिसका ताला उसने खोला ही नहीं दादी के जाने को बाद। आवाज आंसुओं में भीग रही थी। भीतर घुमड़ते ढेर काले- काले बादल छटपटा रहे थे बाहर आने की राह ढूंढते। और फिर गाना खत्म हुआ। थोड़ी देर बाद थोड़ा प्रकृतिस्थ हुई तो बाँसुरी की धुन के प्रति चैतन्य हुई और यह क्या…बाँसुरी की धुन भी मीत से लौट के आ जाने का मनुहार कर रही थी। चौंक कर सजग हुई वह, तो क्या उसके गाने की आवाज वहाँ तक जा रही थी। कैसी तो सिहरन दौड़ गई उसके पूरे वजूद में। हल्की सी मुस्कुराहट तिर आई होंठों पर। दोनों हथेलियों से उसने गालों तक बह आये आँसू पोंछे और थोड़ी और तेज आवाज में एक बार फिर गा उठी… आ लौट के आ जा। अब बाँसुरी की धुन भी थोड़ा और गूंज रही थी।
बारिश की लड़ों के पार उसकी बालकनी के सामने आकाश में अचानक रोशनी में चमका सफेद बादल का एक टुकड़ा जैसे दादी का सन जैसे बालों से घिरा चेहरा उसे आशीषता हुआ, ‘बंदू, टूट जाने दे ये सीकचे, ये दीवारें, कब तक कैद रहेगी अपने भीतर मेरी लाड़ो।‘
गाना खत्म हो चुका था।बांसुरी भी चुप थी। थोड़ी देर यूं ही अवश बैठी रही वह फिर जोर की अंगडाई ले उठ खडी हुई। ‘कल बांसुरी के श्रोत का पता लगाने की कोशिश करती हूं। रिश्ते बुनने का सिरा कहीं से तो पकड़ना पड़ेगा। है न ,दादी।‘ अंदर जाती वंदना को अपना आप बेइंतहा हल्का लग रहा था।
बाहर हवा की तेज थाप पर बारिश लहरा- लहरा कर घूमर कर रही थी।

नमिता सचान सुंदर
लखनऊ, भारत

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आशा सिंह
आशा सिंह
1 month ago

मन भीग गया , बहुत ही खूबसूरत

Namita
Namita
1 month ago

बहुत बहुत आभार आपका