उम्मीद की टिमटिमाती लौ
हुक्का चिलम बनवा लो , गले का हार बनवा लो , हाथ की घडी़ बनवा लो…… चिल्लाते हुए दढ़ियल बाबा हर उस जगह ज़रा दर और ठहर जातें , जहाँ बच्चे खड़े होते थें ।
” घर के बड़े चिढ़ कर कहतें … … ये लो जी , आज फिर आ गया दढ़ियल । बच्चे उनको बाबा कहतें तथा किशोर से लेकर बुजुर्ग तक सभी दढ़ियल कहते थे ”
बाबा की आवाज़ कानों में पड़ते ही खुशी से उछलते-कूदते बच्चे अपने -अपने दरवाज़े पर आकर खड़े हो जाते थे । घर के बड़े दढ़ियल से मिठाई बनाने के लिए कहें या ना कहें , बच्चों के पसंद की चीजें वो बना ही देते थें ।
उस टोले की जमुना चाची भी किसी बच्चे से कम न थीं । वह अपने लिए घड़ी बनवातीं तथा वहाँ खड़े बच्चों को भी कुछ न कुछ बनवाकर कर पहना देतीं ।
” बाबू पहनकर खाओगे तो और स्वाद आएगा इस मिठाई में , देखो तो हम कैसे खा रहे हैं – चाची बच्चों को खाकर दिखातीं ”
बच्चे तो बच्चे ही होते हैं , उन्हें जाति , धर्म से भला क्या ही मतलब है । उनकी पसंद की छोटी – छोटी चीजें , खिलौने , मिठाईयाँ , खेल सब एक जैसे तो हैं । दढ़ियल बाबा की मिठाई हो या बन्नू की बंदर – बंदरिया नाच दोनों जातियों के बच्चे इकट्ठे मजे लेते थे ।
सड़क की दाहिनी तरफ ऊँची जाति वालों के घर थे तथा बाईं ओर हरिजन बस्ती थी । बीचोंबीच एक पक्की सड़क थी । उस सड़क पर गाड़ी मोटर बहुत ज्यादा नहीं चलते थे इसलिए एक फलाँग में बच्चे इस टोले से उस टोले में चले जाते थे ।
“इंसान को इंसान से प्रेम था।कोई दिखावा या छलावा कंचित नहीं था।सुबह की मखमली धूप जब सड़क पर गिरती थी तब दोनों टोले के लोग एक साथ आकर गर्माईश लेते थे और कुशल-क्षेम दिल से पूछते थे ”
देर सबेर किसी को कोई जरूरत पड़ती तो दोनों टोले के लोग एक दूसरे की मदद करतें ” गाँव में जाति की खाई ज्यादा गहरी थी कस्बाई क्षेत्रों की अपेक्षा ”
जमुना चाची हरिजन जाति की थीं । गहरा श्याम रंग , मृग जैसी आँखें,सुग्गे के ठोढ़ जैसी नाक ,खिलखिलाती दंतपंक्तियाँ ऐसी जैसे दामिनी कड़की हो बादलों के मध्य ।
“कुल मिलाकर उनकी नैन नक्श की चर्चा दोनों टोले की औरतें किया करती थीं ”
जमुना चाची दो भाई बहिन थीं , चाची बड़ी और भाई उनसे करीब ग्यारह साल छोटा था । ससुराल में अकेली थीं वह । घर और सास की जिम्मेदारी के चलते मायके जाना कम होता था।जबकि उनकी जाति की लड़कियाँ एक बार गईं तो चार-छ: महीने बिता कर आती थीं नैहर में ।
“इन सबके बीच एक कमी जिसकी चिंता और चर्चा उनसे और उनके परिवार से ज्यादा बाकी लोग बड़े मन से करते थे वो थी उनका संतानहीन होना। जिसके पास बैठ जातीं थोड़ी देर के लिए, वो कोई न कोई डॉक्टर , बैद्य या झाड़-फू़ँक वाले बाबा के पास उन्हें जाने के लिए जरूर कहता था ”
वैसे तो चाची हमेशा हँसती रहती थीं लेकिन उस दिन जाने क्या हुआ था उनकी खूबसूरत आँखें किसी गहरी झील की तरह लबालब गई । मुझे बस इतना समझ आया था कि वह रो रही थीं और मैंने मिठाई वाले अपने चिपचिपे हाथों से उनके गाल पर से झरझर गिरते मोती पोछ दिए थे । तब उन्होंने हँसते हुए मुझे अपनी छाती से लगा लिया था ।
चाची आज मुझे रोज जैसी नहीं लग रही थीं । चाचा अपनी दुकान से आए हुए थे । शायद दोपहर का खाना खाने । तख्त की एक छोर पर चाची बैठी थीं दूसरी छोर पर चाचा । चाची के चेहरे पर एक विरक्ति का सूखा सा भाव पसरा हुआ था जो आज से पहले कभी नहीं दिखा था । कोई ऐसी पीड़ा थी जो वो मन के एक कोने में संग्रहित करती जा रही थीं । स्वंय को अकेला पाकर वह अपने मन के उस पिटारे को खोलतीं और जब भावनाएँ उफान पर होती तो उलट -पलट कर देखतीं तथा फौरन वहीं के वहीं बंद करके ही बाहर निकलतीं ।
वहाँ होकर भी , अब तक उनकी आँखों से ओझल थी मैं ।अचानक जैसे चौंककर वह जाग गईं वह । उस भारी से माहौल को हल्का बनाने की साधन बनी थी उस क्षण मैं
” अरे ! मेरी मुनिया कब आई ? ”
” तबसे यहीं हूँ ”
” कब से मेरी बिट्टी ? ”
” जब चाचा आपको डाँटे थे ”
” ना,,,ना,,,मुनिया हम चाची को डाँट नहीं रहे थे , बस समझा रहे थें । क्यों भई तुम ही बताओ ”
चाची चुप रहीं । खिड़की के बाहर निर्निमेष दृष्टि से देखती रहीं । कभी-कभी हवा की महीन रेखाएँ झूलती हुई भीतर प्रवेश करती और उनके काले सुंदर बालों से उलझ कर एक लट उनके मुँह पर गिरा जाती थी । चाचा लगातार उनकी ओर देखते जा रहे थे । उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर उठकर चले गये ।
उस दिन चाची बहुत खुश थीं।उनके जान से प्यारे भाई जिसको वह बेटे की तरह मानती थीं की शादी तय हो गई थी । महीने के लिए वह मायके जा रही थीं । सब कह रहे थे कि जब से ब्याह कर आईं आज दूसरी बार इतने दिनों के लिए मायके जा रही है।
चाचा भी हफ्ते पहले ससुराल चले गये थे शादी की तैयारी के लिए । माईं ( चाचा की माँ ) को बहुत गुस्सा आया था चाचा पर उस दिन।
” खुद ही बुदबुदाती रहती थीं , हफ्ते भर के लिए अपना आँटा चक्की का दुकान भला कौन बंद करके जाता है ससुराल वालों की तामीरदारी के लिए ”
चाची की भौजाई के आए आठ दिन बीते तो चाची को बुलवा लिया गया । उनके भाई का दूर किसी बड़े शहर में फर्नीचर बनाने का व्यवसाय बहुत अच्छा चल पड़ा था तो वह सपरिवार गाँव से शहर जाकर बस गए थे ।
पहला भतीजा हुआ था ,चाची का बुलावा था लेकिन माईं की तबियत ज्यादा खराब होने की वजह से वह मायके नहीं जा पाईं थी । कुछ महीने बाद चाची के भाई अपनी पत्नी व बच्चे के साथ बहन से मिलने उनके घर आएँ । भौजाई और भतीजे को देखकर चाची की खुशी का ठिकाना न रहा । चाचा को भी बच्चों से बहुत प्यार था सो वह दिन भर उसको गोदी लिए घूमते रहते थे । चाची के बहुत कहने पर भाई ने भौजाई को बच्चे के साथ दस दिन वहाँ रूकने दिया ।
यह दस दिन चाची के जीवन में वसंत जैसा था । वह इतनी उल्लसित कभी इससे पहले नहीं दिखी थीं । जैसे रंग- बिरंगे फूलों से इन दिनों में पेड़-पौधे सजे – संवरे नज़र आते हैं वैसे ही चाची भी दिखती थीं । धूप में बैठ जब बच्चे की मालिश करतीं उस समय जाने कितने राग गातीं । वह उतनी ही खुश थीं जितना एक छोटा बच्चा अपनी पसंद का खिलौना पा जाने से होता है ।
खैर ! मेहमान तो आते ही हैं जाने के लिए । भतीजे के लिए चाची ऐसी रोईं कि बाद उसके वह कई दिनों तक बुखार में रहीं । जब ठीक हुईं तो माईं ने कहा उस बच्चे को गोद ले लो , घर भरा रहेगा । भौजाई अभी इसके लिए तैयार नहीं हुई , उनका कहना था कि जब दूसरा बच्चा आ जाएगा तब उसे सौंप देंगी ।
माईं चाची को रोज यह समझातीं कि तुम तो ठहरी भोली गईया । अपने पति को कसकर पल्लू से बाँध कर रखना चाहिए ज्यादा ढील देने पर वह आवारा बैलों की तरह कहीं भी भाग चलते हैं । रिश्ता कोई भी हो किसी दूसरे औरत से ज्यादा मत सटने दिया करो । चाची समझ जातीं कि अप्रत्यक्ष रूप से उनकी भौजाई के बारे में बात कही जा रही है । इसी बात को लेकर जाने कितनी बार चाची और माईं मे लड़ाई हुई । चाची माईं को गँवार बोल कर अपना कलेजा ठंडा करती थीं और अपने पढ़े लिखे होने की पुष्टि करते हुए आधुनिक विचार रखने की उनको सलाहयित देती थीं ।
चाची और माईं का झगड़ा बस घंटे दो घंटे चलता था उसके बाद दोनों ऐसे व्यवहार करतीं जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो । समय के साथ चाची की आँखों में खालीपन और उदासी गहराने लगी थी । दो जोड़ी आँखों के नीचे उथले खड्डे भी खामोशी से झांकने लगे थे ।
एक दिन अचानक रात अच्छी भली खा पीकर बिस्तर पर गई थीं माईं जाने कब यहाँ से उठकर ईश्वर की गोदी में जाकर सो गईं , किसी को कोई खबर नहीं ।
बाद उसके चाची थोड़ी बूढ़ी दिखने के साथ ही कम उत्साहित भी मालूम होती थीं ।
तीसरे पहर रोज चाचा की दुकान पर चली जाती थीं । वहाँ से रात को एक साथ ही लौटते थे । दोनों का साथ एक दूसरे के लिए पर्याप्त था ।
फिर से गाड़ी पटरी पर लौटने लगी थी कि एक हृदयविदारक भयावह घटना घटी और चाची फिर से बिखर गईं । खबर आई कि चाची के भाई इस दुनिया में नहीं रहे । चाची , चाचा के साथ वहाँ पहुँची और तीन छोटे – छोटे भतीजे – भतीजी को देखकर वहीं बेहोश होकर गिर गईं । इधर भाई का अंतिम संस्कार उधर अस्पताल में चाची भर्ती हो गईं । चाचा के ऊपर दोनों जिम्मेदारियां एक साथ आ गई थीं ।
अस्पताल से चाची उनको घर भेज देती थीं कि भौजाई को सरे इंतजाम में किसी तरह की परेशानी न हो । चाची जब घर आईं तो भौजाई ने हाथ जोड़कर सारा काम काज उनको सँभालने के लिए कहा जिससे बच्चों को उनका सहारा हो जाएगा और उनको भी बच्चों का ।
तीन महीने तक अपना घर बार छोड़कर चाची – चाचा वहीं रूके । उनका काम सँभल गया तब दोनों वापस आएंँ । जब तक वो अपने घर आएँ , चाचा के लगभग ग्राहक टूट चुके थे । दुकान पहले की तरह नहीं चल रही थी । भौजाई बार-बार आग्रह करती उधर ही आकर रहने की लेकिन चाची के मन में जाने क्या खटका था कि अब वह वहाँ चाचा को लेकर नहीं जाना चाहती थीं ।
चाचा की दुकान बंद हो गई तो चाची ने कहा खर्चा ही कितना है हमारा । छोटा-मोटा कुछ काम कर लेंगे तो भी गुजारा चल जाएगा ।
” जमुना दिमाग से काम लो ” चाचा ने कहा
” बच्चे अभी बहुत छोटे हैं तो वो काम सँभालन नहीं सकतें। दिन – रात एक करके तुम्हारे भाई ने जो अपना काम धंधा जमाया है ।
सोचो ! अगर तुम्हारी भौजाई , किसी और को यह सब सौंप दे तो ? क्या बेहतर नहीं होगा कि हम ही सँभाल लें ”
”अपने प्यार और भरोसे की दुहाई देते हुए चाचा आखिर चाची को मना ही लिए वहाँ जाकर साथ रहने के लिए ”
पहले से जमा जमाया रोजगार और भी बढ़िया हो गया साथ ही साथ चाची का बच्चों के साथ दिल भी खूब लगने लगा था । साल भर में एक दो बार चाचा- चाची साथ आकर घर की देखभाल करते और हफ्ते दस दिन में चले जाते ।
लेकिन इस बार चाची अकेली आई थीं , चेहरे पर अनगिनत झुर्रियाँ , बेचैनी व संताप लिए । जितनी झुर्रियां थीं उम्र उससे बहुत कम थी ।
कहने लगीं अब मैं यहीं रहूँगी अपनों के बीच में । वहाँ सभी बहुत पराए लगते हैं , अकेले एक कमरे में पड़ी रहती हूँ । बच्चे बड़े हो गए हैं , न कोई बोलने वाला न कोई बतियाने वाला ”
चाची की भौजाई को चाचा से भी दो बच्चे हैं । कुल जमा पाँच बच्चों की परवरिश तथा व्यवसाय में चाचा बहुत व्यस्त रहने लगे हैं । अब वह यहाँ कभी नहीं आते ।
जाने वाले भला कब वापस लौट कर आते हैं , लेकिन चाची अपने दिल का क्या करें वह अभी भी इसी उम्मीद में हैं कि उनका पति उनसे बहुत प्यार करता है। एक न एक दिन जरूर आएगा । उनका दिन किसी तरह कट जाता है , रात जब काटने को दौड़ती है तब एक तारा जिसमें उनको माईं दिखती हैं उन्हीं से भोर तक जाने क्या बतियाती रहती हैं।
अंजू त्रिपाठी
दिल्ली, भारत
For en flott historie! Jeg er så glad for at du delte den. Dataene du ga var både praktiske og enkle å forstå. Din evne til å forenkle ellers vanskelige ideer er sterkt verdsatt. Enhver som er interessert i å lære mer om dette emnet vil dra stor nytte av å lese dette.
Very nice story
Very nice mam ❤️
हृदय स्पर्शी अति उत्तम ❣️