योगेश

योगेश

उसकी अक्सर याद आती रहती है। बल्कि शायद हमेशा ही वह मेरे जेहन में रहता है। मेरा चपरासी था। यूँ कहिये कि मेरा अभी-अभी चपरासी हुआ था। हुआ यूँ कि मैंने अपने स्थायी चपरासी को कई बार अचानक मेरे ऑफिस के सोफे पर लेटे देख लिया था और एक बार तो मेरे ही सोफे पर बैठकर अपना दोपहर का भोजन करते हुए पकड़ा गया था।
दोपहर में भोजन के लिए लगभग सभी अधिकारी घर जाते थे। कई अवसरों पर दोपहर के भोजन के बाद मैं निश्चित समय से पहले ही ऑफिस पहुँच गया और अपने नियमित चपरासी को उपरोक्त हरकतें करते हुए पाया। बहुत क्रोध में मैंने एक दिन उसे अपने कार्यालय से हटा दिया और कार्यालय अधीक्षक को ताकीद की कि आइन्दा इस चपरासी को मेरी सेवा में न लगाया जाय।
मेरे रौद्र स्वभाव से परिचित थे, कार्यालय अधीक्षक महोदय। लिहाजा एक नये चपरासी को मेरे साथ लगा दिया गया। ये नया चपरासी, नौकरी के आखिरी पड़ाव पर था। बुजुर्ग-सा, पुरानी पीढ़ी की नुमाइंदगी करता हुआ। बेहद अदब से पेश आता था। बहुत आदर-भाव और श्रद्धा से सेवा करता था। एक महीने से भी कम समय से मेरे साथ था, मगर मेरी आदतों को, जरूरतों को जान गया था और बिना कहे ही मेरे मन की बात समझ लेता था। शायद तमाम अधिकारियों के साथ उसका काम करने का तजुर्बा या फिर ये उसकी अपनी विशेषता थी।
वह बड़े प्रेम भाव से मेरी सेवा करता। सेवा करना उसका कर्म था लेकिन वह धर्म की तरह सेवा करता था। कभी-कभी हैरत होती कि वह अपने कार्य में इतना लगनशील और प्रसन्न क्यों है? सेवा प्रदान कर रहे उद्योग के लोगों को उससे सबक लेना चाहिए और सेवा का सही अर्थ समझना चाहिए। इस बुढ़ापे की उम्र में भी वह सजग और यत्नशील रहता कि कहीं कोई त्रुटि न हो जाए। वह अपने काम को और ‘प्रोटोकॉल’ दोनों को भली-भाँति समझता था। बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था मगर शऊर था उसमें। तमीज थी उसमें। पद की गरिमा को समझता था इसलिए एक औपचारिक दूरी बखूबी बनाकर रखता था। परन्तु उसका प्रेमी स्वभाव था कि उसे औपचारिक नहीं रहने देता था।
उसमें कुछ अपनापन था। एक दिन मैं अपने कमरे में उद्विग्न बैठा था किसी बात पर। मैंने घंटी बजायी थी, वह कमरे में दाखिल हुआ और मुझे पानी देकर बाहर जाते हुए शायद उसने मुझे गौर से देखा था और मेरा चिंतित क्लांत चेहरा देखकर मुझसे पूछ बैठा.. “क्या हुआ साहब, आज आप बड़े परेशान लग रहे हैं ?”
मुझे उसका यह प्रश्न बुरा तो नहीं लगा लेकिन एक अधिकारी होने का दंभ या फिर ‘अपनी बात एक चपरासी से क्यों कहूँ, कैसे कहूँ या फिर मुझसे कैसे पूछ सकता है? वह सिर्फ एक चपरासी है और मुझसे इतनी आत्मीयता से बात करने का क्या औचित्य या फिर उसका क्या हक बनता है, ऐसे तमाम विचार मेरे मन में कौंध गये जो मेरी आँखों में एक सवाल की तरह चमके। प्रश्न पूछकर वह सहम गया था, मेरी आँखों में प्रश्न और हैरत देखकर। लेकिन उसके चेहरे पर मासूमियत और प्रश्न के पीछे छिपी आत्मीयता स्पष्ट झलक रही थी। मैं उत्तर देने से स्वयं को नहीं रोक सका। मैंने कहा ‘हाँ, बस यूँ ही कुछ.. थैंक यू’। उसके भाव को सम्बल मिला और उसने पूछ लिया, “क्या आप कृष्णा को मानते हैं। मैंने उत्तर नहीं दिया। मैंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” आज तक वह मेरे लिए सिर्फ एक चपरासी था। आज अचानक उसका नामकरण हो रहा था और वह चपरासी से एक व्यक्ति बन रहा था। बोला, “मैं गुजराती हूँ।” स्निग्ध भाव से कहा, “मेरा नाम योगेश है।” मैं भी तब तक संयत हो चुका था। मैंने भी विनोद की मुद्रा में कहा- “योगेश ! अच्छा तो तुम स्वयं कृष्ण हो !” मेरा मन कहीं से हल्का महसूस कर रहा था। उसने कहा, “मैं हर पूर्णमासी को पैदल डाकोरनाथ मंदिर अवश्य जाता हूँ और डाकोरनाथ यानी कृष्ण के दर्शन करता हूँ।” उसने बताया कि श्री कृष्ण द्वारका जाते समय डाकोर में रूके थे, इसलिए यहाँ की मूर्ति डाकोरनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। हू-ब-हू द्वारकाधीश जैसी। मेरी दिलचस्पी को देखते हुए उसने बात जारी रखी.. उसने कहा, “कृष्णा से कभी नाता मत छोड़ना साहब। मैं मुस्कुरा दिया।
चंद दिन ही बीते थे। वह कमरे में दाखिल हुआ और कहा, “साहब मैं डाकोरनाथ गया था, आपके लिए डाकोरनाथ की तस्वीर लाया हूँ। आपने बुरा तो नहीं माना, आप रखेंगे ना। इसे हमेशा अपने साथ रखिएगा।”
अब तक की नौकरी में मैंने कभी देवी-देवता की तस्वीर ऑफिस के कमरे में रहीं रखी थी। मुझे लगता था कि धर्म की आस्था बहुत ही व्यक्तिगत चीज है और घर में ही उन मूर्तियों और तस्वीरों का उचित स्थान है। परन्तु उसके आग्रह में कुछ ऐसी बात थी कि मैंने डाकोरनाथजी की तस्वीर वहीं अपने कमरे में रख ली। उसने उस तस्वीर पर कनेर के पीले फूल चढ़ाये। मुझे अच्छा ही लगा था।
अगले दिन मैं ऑफिस आया तो योगेश उपस्थित नहीं था। मैंने घंटी बजायी तो कोई और ही चपरासी उपस्थित हुआ। मैंने पूछा कि योगेश कहाँ है, तो उसने या शायद कार्यालय अधीक्षक ने बताया कि कल रात उसका ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया था और उसे इमरजेंसी में अस्पताल में भर्ती कराया गया है। मैंने सोचा कि ठीक हो जाएगा। इस उम्र में शारीरिक व्याधियाँ लगी रहती हैं। शाम को उससे अस्पताल में मिलता हुआ घर जाऊँगा। शाम को मैं अस्पताल नहीं जा पाया।
अगले दिन दोपहर में अस्पताल पहुँचा और योगेश के बारे में पूछा तो डॉक्टर ने कहा, “आपको नहीं मालूम ?” ये सुनते ही एक अनहोनी और अनचाहे सच का सामना करने की आशंका से मेरा मन सहम उठा। जोर का झटका लगा जब डॉक्टर ने कहा कि योगेश कल ही इस दुनिया से प्रस्थान कर स्वर्गवासी हो गया। उसका निश्छल हँसमुख सौम्य चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम गया। लगा रो पडूंगा। उससे आखिरी बार न मिल पाने का दुःख मुझे खाये जा रहा था। अपने ऑफिस के कमरे में भारी मन और पश्चाताप के साथ वापस आया कि अचानक डाकोरनाथ की तस्वीर पर नज़र पड़ी। कनेर का फूल सूखा हुआ था। दिमाग पर हथौड़े पड़ रहे थे और उसके कहे आखिरी शब्द दिमाग में गूँज रहे थे, “डाकोरनाथ को हमेशा अपने साथ रखियेगा ।”
“योगेश मैं तुमसे कैसे अलग हो सकता हूँ। तुम तो स्वयं योगेश हो, डाकोरनाथ हो, कृष्णा हो। क्या यही संदेश दे रहे थे तुम !” डाकोरनाथ की तस्वीर हमेशा मेरे साथ रहती है।

सन्तोष कुमार झा
नवी मुंबई, भारत

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satish Eknath Dhuri
satish Eknath Dhuri
1 month ago

यह कहानी एक गहरी मानवीय संवेदना और आध्यात्मिकता से भरी हुई है। कहानी हमें याद दिलाती है कि मानवीय मूल्य जैसे कि दया, करुणा, सेवा भाव और ईमानदारी कितने महत्वपूर्ण हैं। योगेश, जो एक साधारण चपरासी है, इन मूल्यों का अनुकरण करके एक आदर्श व्यक्ति बन जाता है। कहानी में लेखक अपने अहंकार और ऊंचे पद की भावना को दिखाता है। लेकिन योगेश की विनम्रता और सेवा भाव उसे अपनी गलतियों को समझने और बदलने के लिए प्रेरित करता है। कहानी की भाषा सरल और सहज है। लेखक ने अपनी भावनाओं को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है। कहानी का कथानक रोचक है और पात्र वास्तविक होने का आभास होता हैं।

डॉ अमरीश सिन्हा
डॉ अमरीश सिन्हा
2 months ago

बहुत अच्छी, भावुक कर देने वाली कथा है यह। संबल प्रदान करती कथा है यह। रचनाकार की सशक्त लेखनी स्तुत्य है।…बधाई🌹