रिटायरमेंट

रिटायरमेंट

आज फिर उषा प्रियम्बदा की कहानी “वापसी” के किरदार गजाधर बाबू की याद मेरे ज़ेहन में बिजली की तरह कौंध गई। क्योंकि मेरे सामने दूसरे गजाधर बाबू दिखाई दे रहे थे। ४२ वर्ष का विद्यालय जीवन अनुभव कर २००२ में विद्यालय से रिटायर हो रहे थे आशू के पिताजी श्री दीनदयाल सिंह। बहुत खुश थे कि सरकारी नौकरी के बंधन से आज़ाद होकर स्वतंत्र जीवन बितायेंगे। कुछ समाज का कार्य करेंगे। पर परिस्थितियाँ उनके अनुकूल नहीं हो पाईं। उम्र के उस पड़ाव पर भी उनके जीवन में सुख का नितांत अभाव था। बल्कि ये कहा जाये कि रिटायरमेंट के बाद उनका जीवन और जटिल हो गया हो तो सही होगा।

अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखा था उन्होंने। बचपन में आर्थिक-सामाजिक स्थितियों से सामना करना पड़ा। अध्ययन के लिए ननिहाल रहना पड़ा। जब बड़े हुए तो कॉलेज में अध्ययन करने के लिए शहर की ओर निकल गये। पढ़ाई करना उस समय किसी चुनौती से कम नहीं था। निम्न-मध्यवर्गीय लोगों पर उच्च वर्गों के लोगों का दबदबा रहता था। ऐसी स्थिति में कई बार ताना भी झेलना पड़ता था कि गरीब और कमज़ोर वर्ग का बच्चा पढ़ कर क्या करेगा। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई की। वे एलएलबी भी करने लगे पर सेहत साथ नहीं दिया। उन्हें सन्निपात नामक बीमारी हुई जिसके चलते उन्होंने वकालत की पढ़ाई छोड़ दी। उस समय शादी कम उम्र में ही हो जाती थी। अतः पारिवारिक ज़िम्मेदारी को भी निभाना था। अतः उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग करने का निर्णय लिया और किया भी। बहुत प्रयास करने के बाद उन्हें उच्च विद्यालय में सहायक शिक्षक की नौकरी मिली। उस समय के अनुसार ये सम्मानित नौकरी मानी जाती थी। परिवार के सभी लोग काफ़ी खुश हुए। विद्यालय घर से ३-४ किलोमीटर की दूरी पर था। दीनदयाल बाबू प्रतिदिन साइकिल से विद्यालय जाते एवं आते। विद्यालय का स्थान बहुत सुंदर था। प्रखंड स्तर पर वहाँ सभी सुविधायें थी, कुल मिलाकर छोटा-सा टाउन था जहां हॉस्पिटल से लेकर बाज़ार एवं थाना सभी थे। शुरुआत में उनका वेतन सिर्फ़ १०० रुपये थे। १९६० में इसका मूल्य बहुत था।

नौकरी में आने के बाद वे चार बच्चों के पिता बन चुके थे। दो बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे का नाम आशू एवं छोटे बेटे का नाम आशीष था, बेटियाँ गायत्री और सावित्री थीं। भरा पूरा संयुक्त परिवार था उनका। माता-पिता, पत्नी, भाई-भावज, बहन, बच्चे और दो नौकर। घर का माहौल बड़ा ही विनोदपूर्ण था। एक आदर्श परिवार का उदाहरण था उनका घर।

दीनदयाल बाबू प्रतिदिन विद्यालय जाते और शाम को लौटते समय ज़रूरत के सामान साथ लाते। अपनी माँ से बेहद प्यार था उन्हें। कभी उनकी बातों की अवहेलना नहीं किए। अपने छोटे भाई को भी बहुत प्यार करते थे। शिवदयाल नाम था उनका। उनके भी तीन बेटे और तीन बेटियाँ थी। दीनदयाल बाबू सबका ख़्याल रखते। एक समृद्ध गृहस्थ और सरकारी शिक्षक के रूप में गाँव-घर में ही नहीं समाज में भी उनका अच्छा मान-सम्मान था। किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में शैक्षिक वातावरण था। वो शाम को ख़ुद सभी बच्चों को पढ़ाया करते थे। पढ़ने के साथ-साथ नैतिक और अनुशासनिक बातों को भी सिखाया करते थे।

धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गए थे। बड़ा बेटा आशु बहुत अच्छे अंक से बोर्ड पास किया और महानगर के साइंस कॉलेज में पढ़ने लगा। दो साल बाद छोटा बेटा भी इंटर में पहुँच गया था। दीनदयाल बाबू का सपना बहुत बड़ा था। वो चाहते थे कि बड़ा बेटा इंजीनियर बने तथा छोटा बेटा डॉक्टर बने।पर छोटे बेटे ने डॉक्टर बनने से इंकार कर दिया। बड़े बेटे ने इंजीनियरिंग की एंट्रेंस में अच्छा रैंक लाया और बिहार से बाहर पढ़ना चाहता था पर दीनदयाल बाबू की इच्छा थी कि वो बिहार में ही पढ़े पर बेटे की ज़िद से विवश होकर उन्होंने बाहर जाने की इजाज़त दे दी। बेटा मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध कॉलेज में पढ़ने लगा। छोटा बेटा भी इंटर के बाद इंजीनियरिंग की तैयारी करने लगा। पर दुर्भाग्यवश सफलता हाथ ना लगी। अंत में पॉलीटेक्निक में डिप्लोमा कर लिया।इसी बीच एक ऐसा हादसा हुआ जिसने दीनदयाल बाबू को भीतर से तोड़ दिया।एक दिन आशू कॉलेज जाने के रास्ते पर एक कार से टकरा बैठा जिससे उसके सिर में गहरी चोट आयी जिसके कारणवश वो मरणासन की अवस्था में पहुँच गया।और बहुत इलाज के बाद भी सामान्य ना हो सका। वह शारीरिक रूप से अपाहिज हो गया। इस घटना ने दीनदयाल बाबू के सारे अरमानों पर पानी फेर दिया। वो बेटे के ग़म में टूट चुके थे। उन्हें इस सदमे से निकलने में कई वर्ष लग गये, पर अंत में उन्होंने अपने आप को सँभाल लिया।

अब उनका ध्यान बेटियों की तरफ़ गया कि वे भी सयानी हो गई हैं। बोर्ड की परीक्षा पास कर चुकी हैं। अतः उन्होंने उनका एडमिशन शहर के नामी कॉलेज में करवा दिया। अब दोनों बेटियाँ, बड़ा बेटा, छोटा बेटा और पत्नी एक साथ शहर में रहने लगे। दीनदयाल बाबू गाँव में ही रह गये और बिल्कुल अकेले पड़ गये क्योंकि उनका विद्यालय गाँव से ही नज़दीक था।
कभी कभार वो बच्चों से मिलने के लिये शहर आते और ज़रूरत की चीज़ें उपलब्ध कराकर वापस गाँव लौट जाते। लौटते समय वो बहुत ही मायूस हो जाते क्योंकि पत्नी का साथ भी तो ना था, अलग रहते रहते संवेदना भी कम हो चुकी थी। बड़े बेटे की स्थिति वैसे की वैसी ही थी। थोड़ा बहुत सुधार हो रहा था।अतः वह उसके लिए चिंतित रहते कि उनके बाद इसका देखभाल कौन करेगा। यही सोच कर छोटे बेटे की शादी कर दी। पर छोटे बेटे और बहू के साथ उनका विचार नहीं मिल पाता, बात-बात में मतभेद हो जाता। दोनों आलसी और अकर्मठ भी थे इसीलिए उनके दिमाग़ में चिंता बनी रहती। उनकी पत्नी को भी अपने बच्चे की ही चिंता सताती रहती।

इसी बीच उनकी दोनों बेटियाँ पी.जी. कर चुकी थीं। बारी-बारी से उन्होंने दोनों बेटियों की शादी कर दी। अब निश्चिंत होने के बाद उन्हें लगा कि शहर में एक मकान होना चाहिए, ताकि रिटायरमेंट के बाद सुकून से रह सकें। २००२ में वह प्रभारी प्रधानाध्यापक के पद से रिटायर हो गए और उन्होंने शहर में एक घर भी बना लिया। अब उन्हें लगा की पूरे परिवार के साथ आनंदपूर्वक रह पाऊँगा। बेटा-बहू, पत्नी सब मिलके सेवा करेंगे। जीवन आनन्दमय होगा।पर यह सौभाग्य उनके जीवन में नहीं था। बड़े बेटे का बोझ, छोटे बेटे की बेरोज़गारी और बहू की ग़ैरज़िम्मेदारी उन्हें हमेशा चिंतित रखती। इसी बीच उनके दो पोते हुए। वो बहुत खुश हुए कि उनका अधूरा सपना पूरा होगा। जो बेटे नहीं कर पाये वो पोते कर पायेंगे। वे उनके लालन-पालन और भविष्य संवारने में लग गये। दिन रात उनके बारे में सोचते, पढ़ाई भी साथ बैठ कर कराते, पर दीनदयाल बाबू की भावनाओं को समझने वाला वहाँ कोई नहीं था। वे जीवन भर दूसरे की समस्या को सुलझाते, मदद करते पर उनका ही दर्द कोई नहीं समझ पाता। वे नितांत अकेले हो गये थे।

आज जिसे हम जनरेशन-गैप कहते हैं वे उसी के शिकार हो गये थे। बहू-बेटे हर समय उनके रहन-सहन, बोली-विचार को लेकर टोका-टोकी करते, बहस करते जिससे दीनदयाल बाबू आहत हो जाते। सब कुछ झेलते हुए उन्होंने अपने पोतों को डॉक्टर-इंजीनियर बनते हुए देख लिया। अब उनको कुछ संतुष्टि मिली थी। उनकी पत्नी बेटे की चिंता से विक्षिप्त हो चुकी थी। ऐसे में कभी-कभी बेटियों का सान्निध्य उनके जीवन में सुख का रस भर देती। कुछ समय के लिए उनका देख-भाल भी हो जाता और मनोरंजन भी। पर कब तक! बेटियाँ परायी होतीं हैं उनपर दो कुलों का बोझ होता है। दिल में दर्द लिए ससुराल वापस लौट जातीं। उस वृद्धावस्था में अकेले छोड़ना उन्हें अखर जाता।

अंत में सारी स्थितियों को देखते हुए दीनदयाल बाबू ने पुनः गाँव जाने का निर्णय लिया। पारिवारिक असहजता और अंतःक्लेश से टूट चुके थे। वे अपने बड़े बेटे को लेकर गाँव चले जाते हैं। रिटायरमेंट के बाद अपने परिवार को इस तरह विघटित देख कर वे काफ़ी दुखी होते हैं। एक संवेदनशील प्राणी होने के नाते दीनदयाल बाबू को देखकर मुझे भी कष्ट होता है पर मैं कुछ कर नहीं पायी। ऐसे में उषा प्रियम्बदा जी की कहानी “वापसी” मेरे मन को बार-बार उद्वेलित करती है कि क्या हर पीढ़ी इससे ग्रसित होंगी, क्या पीढ़ियों का अंतराल इसी तरह मन को व्यथित करता रहेगा। क्या रिटायरमेंट के बाद हमारी भी ऐसी ही दशा होगी? मानवीय भावनाओं का सामंजस्य नहीं हो पाएगा? ना जाने इसका उत्तर कब मिलेगा?

डॉ विनीता कुमारी
पटना, भारत

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Nirbhay Kumar
Nirbhay Kumar
3 months ago

very inspirational and meaning full , all the best for future.

Saumya
Saumya
3 months ago

Your every word is full of emotions.

Beautifully described story of life.

Shivani
Shivani
3 months ago

What an emotional story of a person who does everything for his family and at last no one is their for him.

age in place program
3 months ago

Excellent post! Your detailed analysis and engaging writing style make this a must-read for anyone interested in the topic. I appreciate the practical tips and examples you included. Thank you for taking the time to share your knowledge with us.