डरपोक

डरपोक

साड़ी के पल्लू को संम्हालती हुई मालती ने पीछे देखा। रात के अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ा। पैदल चलती हुई वो थोड़ा रुकी फिर चलने लगी। सोचा कहीं सड़क के किनारे लाइट वाले खंभे पर रुकेगी। ऐसा डर उसे पहले नहीं लगता था ।अकेले आने जाने की आदत है उसे। पिछले चार सालों से, वह केरल के एक छोटे से गांव में रह रही है। ऐसे ,केरल के गांव को गांव कहना ठीक नहीं है । अपने यहां के गांव से तुलना करना भी ठीक नहीं है। गले में लगा जैसे कि कुछ अटक गया हो अपने शहर की याद आते ही। कैसे सब कुछ छोड़कर निकल पड़ी थी ,वो नई जिंदगी की तलाश में।

हुआ यूं था कि घर के सामने वाले पड़ोस में खूब आना जाना था मां का पापा का। वहां के चाचा जी और चाची जी के दो लड़के थे। हल्की मूंछें आ रही थी। छाती फुल कर रंगीन शर्ट पहन कर आगे के गली की टपरी के सामने बैठे रहते थे। यह परिवार अभी दो एक साल पहले ही यहां आया था। ज्यादा इनके बारे में किसी को पता नहीं था। शायद नई जिंदगी की तलाश में अलग शहर आ गए थे। मां उन्हें कभी गोभी,कभी शलगम के अचार पहुंचा आती। ऐसे मैंने उन्हें चुपके से आटा-शक्कर भी देते हुए देखा था। पिताजी को भी चाचा जी से बातचीत करना अच्छा लगता था। खेल और राजनीति पर तो सब बातें कर लेते हैं। चाचा जी सौम्य थे लेकिन काम क्या करते थे पता नहीं था तब। और यह दोनों सौरभ और प्रमोद दो बेटे थे उनके और हम दो बहने लीला और मालती इधर। लीला तो दसवीं में पढ़ती थी और मैं मालती बारहवीं में। चाची जी को कुछ देने के बहाने लीला अक्सर उनके घर जाया करती थी। धीरे-धीरे लीला का उनके यहां बैठता बढ़ गया। मालती ने मां को हल्के से कहा भी। फिर उसे लगा शायद लीला का वहां जाने से वो उसे समय नहीं देती है तो उसे अच्छा नहीं लगता।

वो दिन मालती को अच्छे से याद है। मालती लीला को बुलाने चाची के घर चली गई। लीला बड़े धड़ल्ले से टांग पर टांग चढ़ाए सौरभ और प्रमोद से गप्पें मार रही थी। ठहाका लगाते हुए प्रमोद उसकी पीठ सहला रहा था। मालती को कुछ अच्छा नहीं लगा। तेज आवाज में “अम्मा बुला रही है”। कहकर जल्दी से आ गई। रात को लीला से बात करने की कोशिश की लेकिन वो कुछ सुनने के मूड में नही थी। बात यूं ही आई गई हो गई। अब इतने सालों के बाद भी मालती उसे दंश और अपराध बोध से बच नहीं पाती। अम्मा को क्यों नही बताया? अगर बताते तो शायद ये सब नही झेलना पड़ता।

तीन चार महीने गुजर गए। लीला में एक बदलाव आ रहा था। थोड़ा सजने संवरने लगी थी। और स्कूल से आते ही उनके घर भाग जाती। अम्मा सब कुछ देखते हुए भी नही देख पा रही थी। मालती के बोलने का मतलब था कि बेकार शक डालना। फिर मालती का बारहवीं और लीला का दसवीं की परीक्षा आ रही थी।

पढ़ने में मालती को बहुत मन लगता था लेकिन लीला का चंचल मन को सम्हाले नही सम्हल रहा था। प्रमोद के साथ वह अब बगल के दुकान तक चली जाती थी- कुछ लाने के बहाने। या ऐसे ही साथ-साथ स्कूल से लौटती। अम्मा को मैंने कहा कि इतनी घनिष्ठता ठीक नहीं है।”अरे बच्चे हैं सब। इसमें गलत भी क्या है?”

उस दिन शादी थी पड़ोस में। हमारी परीक्षाएं खत्म हो गई थीं तो लीला और मालती दोनों तैयार होकर निकलीं। शाम के सात बज रहे थे।तो प्रमोद भी अपने घर से निकला अपने भाई सौरभ के साथ। हम सब साथ ही चलने लगे। शादी के भीड़ भाड़ वाले माहौल में कब लीला अलग हो गई पता नही चला। मालती के स्कूल की तीन चार सहेलियां मिल गई और गप्पों में लीला की अनुपस्थिति उसे ध्यान नही दिया। रात के साढ़े नौ बजने को आए तो उसका ध्यान उधर गया कि घर चलना चाहिए। उसने देखा प्रमोद भी नही था और सौरभ अकेला ही खाना खा रहा था। उसका माथा ठनका कि ये दोनों कहां गए? अब इसके पास लीला के लिए रूकने के सिवाय कोई चारा नहीं था। काफी रात होने को आई और भीड़ भी काफी कम होने लगी। मालती इधर-उधर देख रही थी। लीला और प्रमोद दरवाजे से आ रहे थे। न जाने उसे लगा कि कुछ अच्छा नही हो रहा है। झिड़की देने का समय नही था। लीला खुश लग रही थी कि और सामान्य भी जैसे कुछ हुआ ही नही। मालती ने भी अपने विचारों से उड़ते घोड़े को लगाम दिया और सब साथ साथ चलकर घर आ गए।

सबों के रिजल्ट आ गए। मालती को अब कॉलेज जाना था और लीला उसी स्कूल में रह गई। समय बीतने लगा। करीब दो महीने के बाद एक दिन लीला बहुत घबराई हुई कमरे में आई। आते ही दरवाजा लगा दिया। और जोर-जोर से रोने लगी। फिर उसने मुझे जो दिखाया कि लगा चक्कर खाकर गिर पड़ूंगी प्रमोद ने लीला की ढ़ेर सारी तस्वीरें खीच कर रखी थी- अपने साथ, अकेले और तस्वीरें आपत्तिजनक थी। किसी में दोनों के कपड़े नही थें, किसी में लीला वस्त्रविहीन आगे से खड़ी थी। ये सब क्या किया? अम्मा को बताना चाहिए ।नहीं अम्मा को अभी मत बताओ। प्रमोद ने कहा कि किसी को बताया तो उससे बुरा कोई नही होगा। इतने बड़े राज को हम दोनों बहनों ने नीलकंठ के विष की तरह धारण कर लिया। बाद में लीला ने बताया कि वह इन तस्वीरों को डार्क वेब में बेचकर पैसा बना रहा है। कभी भी ये हमारे मोहल्ले गली में आ सकता था और हुआ भी यही।वो टपरी वाला, परचून वाला और दो-तीन और लोगों के पास वो वीडियो आ गया। अम्मा पिताजी को बताने की हिम्मत नही हुई। और फिर एक दिन पिताजी के हाथ वो वीडियो लग गया। झुके कंधों से पिताजी घर आए और फफक कर रोने लगे। मारे शर्म और बेचारगी के क्या करें सोच नहीं पाए। पुलिस से डर भी था और बदनामी का भी। बदनामी के डर से बात दबा ली गई। चाचा चाची के घर आना जाना बंद ही हो गया। पिताजी ने उनसे झगड़ा भी नहीं किया। बस गुमसुम हो गए और एक दिन अचानक ऑफिस से ही नही आएं। कहां गये कुछ पता नही चला। थाने में गए- उन्होंने पूछा कोई कारण? तब भी अम्मा और मालती चुप रहीं । लीला को तो लेकर ही नही गए। अब प्रमोद तो शेर हो गया ।घर ही आ जाता। लीला को कमरे में घसीट कर ले जाता और दरवाजा बंद कर लेता इतनी खामोशी क्यों सही मालती के पास कोई जवाब नही इसका ।

अम्मा गुमसुम रही। तीन चार महीने और बीत गए। लीला, अम्मा और मालती अपनी अपनी आग में जलती रहीं। फिर एक दिन जैसे अम्मा की सहन शक्ति खत्म हो गई। प्रमोद घर आया था। बेशर्म लड़का !अम्मा दहाड़ती हुई बोली आगे से आया तो पैर तोड़ दूंगी। प्रमोद ने अम्मा को धक्का लगाने की कोशिश की लेकिन अम्मा में जाने कहां की हिम्मत आ गई। दुर्गा की तरह खड़ी हो गई। “है जोश कि तू मुझसे लड़े। हम नहीं डरते किसी से।” प्रमोद इस अप्रत्याशित हमले से घबरा गया और चुपके से भागने लगा। पास रखें झाड़ू को ही अम्मा ने अपना हथियार बना लिया और उसकी कुटाई कर दी। प्रमोद बिल्कुल हक्का-बक्का रह गया और सरपट भाग। उसके जाने के बाद हम तीनों गले लग के खूब रोए।

घर के बाहर हम सब सामान्य थे लेकिन एक डर था कि कहीं कुछ कर न बैठे। ऐसे डरपोक लोग कायर भी होते हैं। काश हम भी चुप न बैठते। फिर वही हुआ जो होना था। कायर तो पीछे से ही वार करते हैं। पूरे मोहल्ले में लीला की तस्वीरें वायरल हो गई। कितने डरपोक थे ना हम। जब तक हम डरते रहे हमारी जिंदगी के फैसले वो प्रमोद लेता रहा। यहां सच्चाई भी गूंगी हो गई। लीला को बर्दाश्त नही हुआ और एक दिन सुबह वो हम सबको छोड़ चली गई। हम सभी लोग, किश्तों में ही तो मर रहे थें। तब पुलिस आई खाली जिंदगी में कारण ढूंढने। मालती ने सोचा सब बता दें। अंधेरों में रोशनी ढूंढना ही पड़ेगा। फिर हिचकियों के बीच उसने सब बता दिया। डर लगता था कि कुछ नहीं होगा लेकिन जीवन जीने का हुनर सीखा दिया। घिसट घिसट कर कोर्ट केस चला। लीला के जाने का भी कारण प्रमोद बनाया गया। डरपोक में सत्य भी गूंगा हो जाता है लेकिन मालती को लगा लीला की भी आवाज उसे मिल गई है।

इसी सब में सात आठ साल बीत गए। उसने साइकोलॉजी किया और फिर काउंसलिंग का कोर्स। उसने जीने का हुनर सीख लिया था। केरल के एक छोटे शहर में एक स्कूल का विज्ञापन आया था। उन्हें लड़कियों के लिए काउंसलर चाहिए था। डर का सामना करने के लिए एक अच्छा मौका था और बहुत सारी लीला को बचाने का भी। मालती मां को लेकर इस छोटे शहरनुमा गांव में आ गई।

भय से ही दुख आते हैं- अब मालती समझ गई थी कि भय और डर से डरना नहीं चाहिए ।आए हुए भय पर प्रहार ना कर उसने बहुत बड़ी गलती की थी।

आज की काउंसलिंग में उसने लड़कियों से एक ही बात कही कि डरने से ही दुख आते हैं और उसी से बुराइयां होती है। लोग डराते रहेंगे और तुम हारती रहोगी। डर के आगे जीत है। मालती ने फिर पीछे मुड़कर देखा- कोई भी नहीं था। उसने अपनी गति तेज कर दी। अब उसका मन मुक्त था और कोई भी डर उसके सामने नहीं था। काश, उस समय वह उन सामाजिक परिस्थितियों से ना घबराती तो आज उसकी लीला जिंदा होती।

अब, वह हर स्थिति के लिए तैयार है तो डर उसे बहुत छोटा लगता है। तेज कदमों से चलती हुई मालती मुस्कुराई।

अमिता प्रसाद
बैंगलोर, भारत

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Sunita Vijay
Sunita Vijay
3 months ago

Amazing style of writing. Small crisp sentences that convey convincing message to the reader. The story is engaging, maintains the grip to keep one hooked till the end yet provides a life lesson.

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Excellent post! Your thorough analysis and clear explanations make this a must-read for anyone interested in the topic. I appreciate the practical tips and examples you included. Thank you for taking the time to share your knowledge with us.