बदलता होली का स्वरूप

बदलता होली का स्वरूप

बिहार में जली थी होलिका………..राख से खेली जाती है होली !! जिंदगी जब सारी खुशियों को स्‍वयं में समेटकर प्रस्‍तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्‍य को होली जैसा त्‍योहार देती है। होली हमारे देश का एक विशिष्‍ट सांस्‍कृतिक एवं आध्‍यात्‍मिक त्‍योहार है। अध्‍यात्‍म का अर्थ है मनुष्‍य का ईश्‍वर से संबंधित होना है या स्‍वयं का स्‍वयं के साथ संबंधित होना इसलिए होली मानव का परमात्‍मा से एवं स्‍वयं से स्‍वयं के साक्षात्‍कार का पर्व है।
असल में होली बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्‍न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। आनंद और उल्‍लास के इस सबसे मुखर त्‍योहार को हमने कहाँ-से-कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। कभी होली के जंग की हुंकार से जहाँ मन के रंजिश की गाँठें खुलती थीं, दूरियाँ सिमटती थीं वहाँ आज होली के हुड़दंग, अश्‍लील हरकतों और गंदे तथा हानिकारक पदार्थों के प्रयोग से भयाक्रांत डरे सहमे लोगों के मनों में होली का वास्‍तविक अर्थ गुम हो रहा है। होली के मोहक रंगों की फुहार से जहाँ प्‍यार, स्‍नेह और अपनत्‍व बिखरता था आज वहीं खतरनाक केमिकल, गुलाल और नकली रंगों से अनेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं और मनों की दूरियाँ भी।

यह तो स्‍पष्‍ट है कि रंगों से हमारे शरीर, मन, आवेगों आदि का बहुत बड़ा संबंध है। शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य और बीमारी, मन का संतुलन और असंतुलन, आवेगों में कमी और वृद्धि-ये सब इन प्रयत्‍नों पर निर्भर है कि हम किस प्रकार के रंगों का समायोजन करते हैं और किस प्रकार हम रंगों से अलगाव या संश्‍लेषण करते हैं। उदाहरणतः नीला रंग शरीर में कम होता है, तो क्रोध अधिक आता है, नीले रंग के ध्‍यान से इसकी पूर्ति हो जाने पर गुस्‍सा कम हो जाता है। श्‍वेत रंग की कमी होती है, तो अशांति बढ़ती है, लाल रंग की कमी होने पर आलस्‍य और जड़ता पनपती है। पीले रंग की कमी होने पर ज्ञानतंतु निष्‍क्रिय बन जाते हैं। ज्‍योतिकेंद्र पर श्‍वेत रंग, दर्शन-केंद्र पर लाल रंग और ज्ञान-केंद्र पर पीले रंग का ध्‍यान करने से क्रमशः शांति, सक्रियता और ज्ञानतंतु की सक्रियता उपलब्‍ध होती है।

बसन्‍तोत्‍सव के आगमन के साथ ही वृन्‍दावन के वातावरण में एक अद्‌भुत मस्‍ती का समावेश होने लगता है, बसन्‍त का भी उत्‍सव यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । इस उत्‍सव की आनन्‍द लहरी धीमी भी नहीं हो पाती कि प्रारम्‍भ हो जाता है, फाल्‍गुन का मस्‍त महीना । फाल्‍गुन मास और होली की परम्‍पराएँ श्रीकृष्‍ण की लीलाओं से सम्‍बद्ध हैं और भक्त हृदय में विशेष महत्‍व रखती हैं। श्रीकृष्‍ण की भक्‍ति में सराबोर होकर होली का रंगभरा और रंगीनीभरा त्‍यौहार मनाना एक विलक्षण अनुभव है। मंदिरों की नगरी वृन्‍दावन में फाल्‍गुन शुक्‍ल एकादशी का विशेष महत्‍व है । इस दिन यहाँ होली के रंग खेलना परम्‍परागत रूप में प्रारम्‍भ हो जाता है । मंदिरों में होली की मस्‍ती और भक्‍ति दोनों ही अपनी अनुपम छटा बिखेरती है। दरअसल मनुष्‍य का जीवन अनेक कष्‍टों और विपदाओं से भरा हुआ है। वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता है। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्‍याकुल बना रहता है। ऐसे ही क्षणों में होली जैसे पर्व उसके जीवन में आशा का संचार करते हैं।

चीन,जर्मनी, रोम आदि देशों में भी इस तरह के मिलते-जुलते पर्व मनाए जाते हैं। गोवा में मनाया जाने वाला ‘कार्निवाल’ भी इसी तरह का पर्व है, जो रंगों और जीवन के बहुरूपीयपन के माध्‍यम से मनुष्‍य के जीवन के कम से कम एक दिन को आनंद से भर देता है।
होली रंग, अबीर और गुलाल का पर्व है। परंतु समय बदलने के साथ ही होली के मूल उद्देश्‍य और परंपरा को विस्‍मृत कर शालीनता का उल्‍लंघन करने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। प्रेम और सद्‌भाव के इस पर्व को कुछ लोग कीचड़, जहरीले रासायनिक रंग आदि के माध्‍यम से मनाते हुए नहीं हिचकते। यही कारण है कि आज के समाज में कई ऐसे लोग हैं जो होली के दिन स्‍वयं को एक कमरे में बंद कर लेना उचित समझते हैं। सही अर्थों में होली का मतलब शालीनता का उल्‍लंघन करना नहीं है। परंतु पश्‍चिमी संस्‍कृति की दासता को आदर्श मानने वाली नई पीढ़ी प्रचलित परंपराओं को विकृत करने में नहीं हिचकती। होली के अवसर पर छेड़खानी, मारपीट, मादक पदार्थों का सेवन, उच्‍छृंखलता आदि के जरिए शालीनता की हदों को पार कर दिया जाता है। आवश्‍यकता है कि होली के वास्‍तविक उद्देश्‍य को आत्‍मसात किया जाए और उसी के आधार पर इसे मनाया जाए। होली का पर्व भेदभाव को भूलने का संदेश देता है, साथ ही यह मानवीय संबंधों में समरसता का विकास करता है। होली का पर्व शालीनता के साथ मनाते हुए इसके कल्‍याणकारी संदेश को व्‍यक्‍तिगत जीवन में चरितार्थ किया जाए, तभी पर्व का मनाया जाना सार्थक कहलाएगा।

होली के एक दिन पहले होलिका दहन होता है। होलिका दहन बुराईयों पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है, लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि हिरण्यकश्यप की बहन होलिका का दहन बिहार की धरती पर हुआ था। जनश्रुति के मुताबिक तभी से प्रतिवर्ष होलिका दहन की परंपरा की शुरुआत हुई।मान्यता है कि बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में ही वह जगह है, जहां होलिका भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर दहकती आग के बीच बैठी थी। ऐसी घटनाओं के बाद ही भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था, जिन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्यप का किला था। यहीं भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए एक खंभे से भगवान नरसिंह ने अवतार लिया था। भगवान नरसिंह के अवतार से जुड़ा खंभा (माणिक्य स्तंभ) आज भी यहां मौजूद है। कहा जाता है कि इसे कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया। यह स्तंभ झुक तो गया, पर टूटा नहीं।

पूर्णिया जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर सिकलीगढ़ के बुजुर्गों का कहना है कि प्राचीन काल में 400 एकड़ के दायरे में कई टीले थे, जो अब एक सौ एकड़ में सिमटकर रह गए हैं। इन टीलों की खुदाई में कई पुरातन वस्तुएं निकली थीं। इस जगह प्रमाणिकता के कई साक्ष्य उपलब्ध हैं जैसे- हिरन नामक नदी बहती है। कुछ वर्षो पहले तक नरसिंह स्तंभ में एक सुराख हुआ करता था, जिसमें पत्थर डालने से वह हिरन नदी में पहुंच जाता था। इसी भूखंड पर भीमेश्वर महादेव का विशाल मंदिर है।

इस स्थल की एक खास विशेषता है कि यहां राख और मिट्टी से होली खेली जाती है। मान्यताओं के मुताबिक जब होलिका भस्म हो गई थी और प्रह्लाद चिता से सकुशल वापस आ गए थे, तब प्रहलाद के समर्थकों ने एक-दूसरे को राख और मिट्टी लगाकर खुशी मनाई थी। तभी से ऐसी होली शुरू हुई। यही कारण है कि इस इलाके में आज भी राख और मिट्टी से होली खेलने की परंपरा है।
सबों को रंगोत्सव के पावन पर्व होली की शुभकामनाये …

डॉ नीरज कृष्ण
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार

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