नारी अबला नहीं है

नारी अबला नहीं है

1908 ई. में अमेरिका की कामकाजी महिलाएं अपने शोषण के विरुद्ध और अपने अधिकारों की मांग को लेकर सडकों पर उतर आईं। उनका मुख्य मुद्दा महिला और पुरुष के तनख्वाह की समानता का था । 1909 ई. में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने उनकी मांगों के साथ राष्ट्रीय महिला दिवस की भी घोषणा की। 1911 ई. में इसे ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का रूप दे दिया गया और तब से ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाई जा रही है। परन्तु कुछ वर्षों से “दिवस” मनाना फैशन बन गया है। क्या साल में एक दिन याद कर लेना लम्बी लम्बी घोषणा करना ही सम्मान होता है ? किसी को विशेष दिन पर याद करना या उसे उस दिन सम्मान देना बुरी बात नहीं है। बुरा तो तब लगता है जब विशेष दिनों पर ही मात्र आडंबर के साथ सम्मान देने का ढोंग किया जाता हो। सम्मान बोलकर देने की वस्तु नहीं है सम्मान तो मन से होता है क्रिया कलाप में होता है। क्या एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिलाओं का सम्मान हो जाता है ?

हर महिला दिवस पर महिलाओं के लिए आरक्षण की बात होती है कुछेक सम्मान का आयोजन। साल के बाक़ी दिन हर क्षेत्र में अब भी न वह सम्मान न वह बराबरी मिल पाता है जिसकी वह हकदार है या जो दिवस मनाते वक्त कही जाती है। कहने को तो आज सभी कहते हैं “नारी पुरुषों से किसी भी चीज़ में कम नहीं हैं”. परन्तु नारी पुरुष से कम बेसी की चर्चा जब तक होती रहेगी तब तक नारी की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।

नारी व्यापकता का द्योतक है । बचपन में समानार्थक शब्द जब भी पढ़ती थी बस “नारी” पर आकर अटक जाती थी। मेरे मन में एक प्रश्न बराबर उठता -“इतने शब्द हैं नारी के फिर अबला क्यों कहते हैं”? अबला से मुझे निरीह प्राणी का एहसास होता। सोचती, जो त्याग और ममता की प्रतिमूर्ति मानी जाती है वह अबला कैसे हो सकती है ? एक तरफ हमारे पुरानों में नारी शक्ति का जिक्र है दूसरी तरफ हमारे व्याकरण में उसी नारी के लिए अबला शब्द का प्रयोग क्यों ? पर मुझे उत्तर मिल नहीं मिल पाता । मैं अबला शब्द का प्रयोग कभी नहीं करती थी न अब करती हूं। अपनी सहपाठियों को भी उसके बदले कोई और शब्द लिखने का सुझाव देती ।

जब बच्चों को पढ़ाने लगी उस समय भी बच्चों को नारी के समानार्थक शब्द में “अबला” शब्द लिखने पढ़ने नहीं देती और बड़े ही प्यार और चालाकी से नारी के दूसरे दूसरे शब्द लिखवा देती । मालूम नहीं क्यों अबला शब्द मुझे गाली सा लगता था और अब भी लगता है।

आज नारी की परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है यह सत्य है। आज किसी भी क्षेत्र में नारी पुरुषों से पीछे नहीं हैं । बल्कि पुरुषों से आगे हैं यह कह सकती हूँ । इन सबके बावजूद उसके स्वाभाविक रूप में कोई बदलाव नहीं आया है । पर आज की नारी कुंठा ग्रसित हैं, जो उन्हें ऊपर उठाने में बाधक हो सकता है । हमारे साथ कल क्या हुआ उस विषय में सोचने के बदले यदि हम अपने आज के बारे में सोचें तो हमारा आत्म विश्वास और अधिक बढेगा । बीता हुआ कल तो हमें कमजोर बनाता है , हमारे मन में आक्रोश ,कुंठा , बदले की भावना को जन्म देता है । फिर क्यों हम अपने अच्छे बुरे की तुलना कल से करें और बात बात में नीचा दिखाने की कोशिश करें। जरूरी नहीं कि उंगली उठाने से ही गल्ती का एहसास हो । हमरा ह्रदय हमारे हर अच्छे बुरे की गवाही देता है, धैर्य भी नारी का एक रूप है।

आज एक ओर तो हम बराबरी की बातें करते हैं दूसरी तरफ आरक्षण की भी माँग करते हैं , यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आता है । यहाँ भी अबला का एहसास होता है । क्या हम आरक्षण के बल पर सही मायने में आत्म निर्भर हो पाएंगे ? क्या “कोटा” का ताना बंद हो जायेगा ?

महिला दिवस, नारी दिवस का क्या औचित्य ? क्या मात्र एक दिन ही महिलाओं के लिए काफी है ? एक दिन ढोल पीट-पीटकर महिला दिवस मना लेने से जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है या महिलाओं के हिस्से की इज्जत और सम्मान बस वहीँ तक सिमित है ? नारी ममता त्याग की देवी मानी जाती है और है भी । यह नारी के स्वभाव में निहित है , यह कोई समयानुसार बदला हो ऐसा नहीं है। ईश्वर ने नारी की संरचना इस स्वभाव के साथ ही की है। हाँ अपवाद तो होते ही हैं। आज जब नारी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है तब भी अबला शब्द व्याकरण से नहीं निकल पाया है और तब तक नहीं निकल पायेगा जबतक हम नीचा दिखाने की कोशिश करते रहेंगे ,आरक्षण की मांग करते रहेंगे । हमें जरूरत है अपने आप को सक्षम बनाने की, आत्मनिर्भर बनने की, आत्मविश्वास बढ़ाने की और तब “नारी” शब्द का पर्यायवाची “अबला” हमारे व्याकरण से निकल पायेगा ।


कुसुम ठाकुर
वरिष्ठ साहित्यकार और समाजसेविका
संपादक और प्रकाशक’आर्यावर्त’
जमशेदपुर, झारखंड

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