नारी : कल , आज और कल
नारी ….ईश्वर के समान व्यापक और अपने आप में सम्पूर्ण एक ऐसा शब्द है , जिसमें समाहित है जीवन चक्र के गतिशील रहने के समस्त कारण । सम्पूर्ण सृष्टि में जीवन , गति और अस्तित्व इन्हीं दो शब्दों से है । ईश्वर जो हमारे अंदर और बाहर की शक्ति है , जिसे हम देख नहीं सकते बस महसूस कर सकते हैं और नारी …. जिसे हम देख सकते हैं और जिसके विभिन्न रूपों में निहित है संसार के अस्तित्व को कायम रखने की शक्ति । लेकिन क्या इस शक्ति को हम सही मायने में समझ रहे हैं ?
नारी की वर्तमान स्थिति और दशा को समझने के लिए एक ओर जहाँ इतिहास के गर्भ में जाने की जरूरत है वहीं दूसरी ओर भविष्य सुरक्षित करने के लिए संस्कारों एवं शिक्षा की एक ठोस नींव वर्तमान में रखने की जरूरत है ।
पूर्व वैदिक काल से आज तक ज्वार – भाटे की तरह नारी के जीवन और अस्तित्व में अनेक उतार – चढ़ाव आते रहे हैं । आज भारतीय नारी संभावनाओं एवं जागरण के द्वार पर खड़ी होकर अधीर भाव से बंद दरवाजों को खोलने में प्रयत्नशील है ।
भारतीय संस्कृति में नारी का उल्लेख जगत्-जननी आदि शक्ति-स्वरूपा के रूप में किया गया है। श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों में नारी को विशेष स्थान मिला है। मनु स्मृति में कहा गया है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रेतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तफला: क्रिया।।
जहाँ नारी का समादर होता है वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं और जहाँ ऐसा नहीं है वहाँ समस्त यज्ञादि क्रियाएं व्यर्थ होती हैं।
नारी की महत्ता का वर्णन करते हुये ”महर्षि गर्ग” कहते हैं-
यद् गृहे रमते नारी लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी।
देवता: कोटिशो वत्स! न त्यजन्ति गृहं हितत्।।
जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे वत्स! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।
भारत में सदैव नारी को उच्च स्थान दिया गया है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही महान नारियों की एक उज्ज्वल परम्परा रही है। सीता, सावित्री, अरून्धती, अनुसुइया, द्रोपदी जैसी तेजस्विनी; मैत्रेयी, गार्गी अपाला, लोपामुद्रा जैसी प्रकाण्ड विदुषी, और कुन्ती,विदुला जैसी क्षात्र धर्म की ओर प्रेरित करने वाली तथा एक से बढ़कर एक वीरांगनाओं के अद्वितीय शौर्य से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान काल खण्ड में भी महारानी अहल्याबाई, माता जीजाबाई, चेन्नमा, राजमाता रूद्रमाम्बा, दुर्गावती और महारानी लक्ष्मीबाई जैसी महान नारियों ने अपने पराक्रम की अविस्मरणीय छाप छोड़ी । इतना ही नहीं, पद्मिनी का जौहर, मीरा की भक्ति और पन्ना के त्याग से भारत की संस्कृति में नारी को ‘धु्रवतारे’ जैसा स्थान प्राप्त हो गया। भारत में जन्म लेने वाली पीढ़ियाँ कभी भी नारी के इस महान आदर्श को नहीं भूल सकती।
ईसा के 2000 से 1000 पूर्व तक की अवधि में जिसे पूर्व वैदिक काल कहा जाता है , नारियों का समाज में एक पवित्र स्थान था । श्रद्धा की देवी समझी जाने वाली नारियाँ धर्म , ज्ञान और राजनीति के क्षेत्रों में सही अर्थों में पुरुषों की अर्धांगिनी थीं । आर्यों ने नारी की शैक्षणिक उपलब्धि , रचनात्मक शक्ति एवं सामाजिक योगदान को सहर्ष स्वीकार किया था । भागते हुए समय के साथ – साथ नवीन मूल्यों की पारस्परिक टक्कर के फलस्वरूप रामायण , महाभारत काल में नारी के स्वतंत्र अस्तित्व पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लग गया । संस्कृति के संरक्षण और प्राचीन आदर्शों के नाम पर रामायण काल में तो कुछ हद तक नारी पूज्या के सिंहासन पर स्वीकृत रही पर महाभारत काल तो उसके अस्तित्व के घोर पराभव का काल था ।
बुद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रारंभिक चरणों में नारी के लिए वह स्थान नहीं था पर परिस्थितियों की विवशता के बोझ के चलते महात्माओं ने नारी को भी अपने संगेह में स्थान दिया । भारतीय प्राचीन इतिहास में नारी का अस्तित्व उस रत्न अथवा आभूषण का अस्तित्व था जिसकी सौंदर्य कीर्ति पर लुब्ध होकर राजा – महाराजा विलास – लोलुप पशुओं की तरह आपस में लड़ते रहे ।
उत्तरोत्तर में एक ओर जहाँ नारियों को सती होने पर मजबूर किया गया वहीं दूसरी ओर कुछ क्षत्राणियों ने हाथों में तलवार उठा कर अपनी शक्ति का लोहा मनवाया ।
फिर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नारी मुक्ति का प्रथम आंदोलन भारतीय सामाजिक प्रांगण में उभरा । सती प्रथा , बाल विवाह , बहु विवाह , पर्दा प्रथा जैसे अंधविश्वास से भरे हुए , रूढ़िवादी , दकियानूसी सामाजिक आचार – विचारों के प्रति विद्रोह की भावना चारों ओर फैलने लगी । अनेक सांस्कृतिक आंदोलन धीरे – धीरे भारतीय समाज में नया आलोक भरने लगे । नारी जागरण का यहाँ सुप्रभात था । नारियों ने स्वतंत्रता आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया , धार्मिक , सामाजिक मान्यताओं के निर्माण और उनकी विषमताओं के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित की ।
आज़ादी आई । नया संविधान बना । संविधान की 15वीं धारा के अनुसार नर – नारी के अधिकारों की समानता स्वीकृत हुई । 1975 साल को राष्ट्र संघ ने अंतराष्ट्रीय महिला वर्ष मनाने का निश्चय किया ।
उसके बाद से हमारा देश में ही नहीं पूरे विश्व में समय – समय पर महिला सशक्तिकरण पर कई आयोजन होते आए हैं , हो रहे हैं आवाज़ें उठ रही हैं , आत्मनिर्भरता की ओर कदम भी बढ़ रहे हैं मगर समाज के किसी भी वर्ग में एक नारी की स्थिति चाहे वह घर की चौखट के अंदर हो या चौखट के बाहर की दुनिया …वह किसी न किसी हिंसा से ग्रस्त है ।
लेकिन यह सारी बातें , शिक्षा और आदर्श आज खोखले लगते हैं । अखबार के पन्ने , टीवी न्यूज़ आज चीख कर नारियों की दुर्दशा बता रहे हैं । कुंठित मानसिकता , घृणित सोच आज समाज पर इस तरह हावी हो गए हैं कि बलात्कार , हत्या और मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ते ही जा रही है । जितनी ज़ोर से हम आधुनिकता के द्वार पर दस्तक दे रहे हैं उससे भी ज़्यादा जोर से हम पर पशुता दस्तक दे रही है । उम्र और रिश्ते भी कुकर्मियों के लिए मायने नहीं रखते । आज सख़्त से सख़्त सजा इन बलात्कारियों को देने की जरूरत है ताकि समाज का हर पुरुष इतना गिरने के पहले सौ बार सोचने पर मजबूर हो जाए । हमारे न्यायप्रणाली को भी त्वरित निर्णय लेने की ज़रूरत है ताकि किसी निर्भया को अपने बलात्कारियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने के लिए इतना लंबा इंतज़ार न करना पड़े । हमें उन जड़ों में जाने की जरूरत है जहाँ से यह विषैला पौधा पनप रहा है । आज अपने बेटों को बेटियों से ज़्यादा सुशिक्षित करने की ज़रूरत है । कुछ सामाजिक प्रतिबंधों की ज़रूरत है । मैं दैनिक भास्कर द्वारा पोर्नसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने की मुहिम का स्वागत एवं समर्थन करती हूँ , जिनका युवाओं और बच्चों को मानसिक रूप से विछिप्त करने में बहुत बड़ा योगदान है ।
आईए हम सभी ऐसी शुरुआत करें कि हम नारियों को चिंता और दया के दायरे में न रखा जाए । नारी सशक्तिकरण के बजाय पुरूष सुधारीकरण की बात की जाय और यह ज्वलंत विषय रहे ” पुरुष : कल , आज और कल ” ।
सारिका भूषण
कवयित्री एवं लेखिका
राँची, झारखंड