सबके राम, सबमें राम
तुलसी के रामराज्य की कल्पना आज के युग में भी सामाजिक चेतना का आदर्श है। उन्होंने समाज को राक्षसों से बचाने के लिए वानरी वृत्ति तक के लोगों के भीतर की सोई शक्ति को जगाया। भारतीय जो अपना गौरवमय अतीत नही भूल पाए थे और नए शासकों (मुगलों) के ढर्रे, तौर-तरीकों में पूरी तरह से रचबस भी नही पाए थे, एक अन्तर्द्वन्द और निराशा में जी रहे थे, उन्हें एक आदर्श राम-राज्य का सपना दिया तुलसीदास ने। तुलसी कवि पहले थे या समाज सुधारक कहना मुश्किल है परन्तु एक बात निश्चित है कि वे तुलसी ही थे जिन्होंने राजा राम को भगवान राम बनाया।
राम का न्याय , राम का त्याग, राम की प्रतिबद्धता, राम का शौर्य और समर्थता सब प्रभावित करते है हमें। और यही वजह है कि राम आज भी भारतीय जन-मानस के आदर्श हैं, परन्तु इससे भी ज्यादा आकर्षित करती है राम की परिवार और परिवेश के प्रति जागरुकता। प्रजा के हितों की संरक्षण भावना। आज जब अधिकांशत: समाज ” दिस इज माई लाइफ” के मूलमंत्र पर चलता है और” आइ लिव्ड इट माइ वे ” की जीवन शैली पर ही गौरान्वित महसूस करता है तो रामकथा निश्चय ही भारत और भारत से दूर बैठे भारत वंशियों के लिए एक अटूट प्रेरणा स्रोत्र है। राम न सिर्फ हमें प्यार और त्याग करना सिखलाते हैं वरन् सामाजिक जिम्मेदारियों का अनूठा बोध देते हैं। आज जब बूढ़े माँ बाप को मैले पुरानों कपड़ों की तरह निढाल छोड़कर युवा पीढ़ी आगे बढ़ जाती है तो वचनों की रक्षा के लिए वन वन भटकते राम जैसे पुत्र की कल्पना तक किसी भी पिता के लिए दुरूह स्वप्न है। श्रवण कुमार तो सुपर मैन की तरह पूरे काल्पनिक हैं हीं। आज जब सीमाएँ टूटती जा रही हैं, जन्मभूमि भी अन्य भूमिओं की तरह मात्र एक मिट्टी का ढेला है जिसे चन्द सिक्कों के लिए कभी भी त्यागा या बेचा जा सकता है, तो क्या जरूरत नहीं कि एकबार फिर से ये गौरव गाथा दोहराई जाएँ जो कभी ” जननी जन्मभूमि स्वर्गातपि गरीयसी” का उद्बोध कराती थीं। आज जब धोखा और झूठ ही अधिकांश रिश्तों का तानाबाना है और परिवार ताश के पत्ते से ढह रहे हैं, पल पल तलाक होते हैं, तो क्या इस फिसलन और टूटन को रोकने के लिए एकबार फिर ईमानदारी और प्रतिबद्धता, सामंजस्य और त्याग की सोच जरूरी नहीं ? पर इसके लिए खुद हमारा अपनी कथनी में पूर्ण विश्वास होना बेहद जरूरी है, वरना बात दूसरों की समझ में नहीं आएगी। दृढ़ और विश्वनीय सोच के साथ ही कोई आदर्श दूसरों के आगे रखा जा सकता है और किसी भी परिवार या समाज में यदि अंग्रजों की सोच सही हो तो छोटे भी स्वयँ ही सुधर ही जाते हैं।
वाणी अंतस का प्रतिबिंबित करती है जैसे कि नैतिकता विचारों की। अगर विचार शुद्ध हैं तो आचरण भी खुद ही शुद्ध हो जाता है। कथनी और करनी का फर्क बस एक अस्वस्थ और डरी मानसिकता का ही परिचय देता है। अक्षर जो अ-क्षर हैं, भगवान सा ही सशक्त और शाश्वत हैं, इसलिए खूब सोच समझकर ही इसका इस्तेमाल करना चाहिए, यही तुलसी ने समझाया। ” प्राण जाए पर वचन न जाई” कहा, वह भी तब जब मुगल राजाओं के विलासी दरबारों में सब अपनी डफली अपनी राग गा रहे थे। तुलसी के रघुवंशी राजा मितभाषी थे। उनके लिए “टॉक वाज नौट चीप।” अविवेकी वचन बन्दी बनाकर साख मिटा देते हैं, दूसरों की आँख में ही नहीं, खुद अपनी में भी, जानते थे वे। शब्द जीवन-धारा तक बदल सकते हैं जानते थे वे। दशरथ कैकयी प्रसंग गवाह हैं इसके। न सिर्फ इस कहानी का भाव और कलापक्ष सम्मोहित करता है, अपितु आज भी जीने की एक सहज और आदर्श प्रणाली देता है यह महाकाव्य। असल में तो वेदों में जिन चरित्र संहिताओं का वर्णन किया गया है वे सभी सकारात्मक और विश्वसनीय गुण राम में हैं। फिर भी राम हमारे अपने राम हैं। चाहे जिस मन:स्थिति में पढ़ो या जानो, राम अपने ही लगते हैं। अलौकिक होकर भी तुलसी के राम का यही मानवीय पक्ष है, जो छूता और बाँधता है और कहानी को और भी रोचक और विश्वसनीय बनाता है। वे भी हमारी तरह ही रिश्तों में बंधे है और रिश्तों की मर्यादा के भीतर ही रहकर जीना है उन्हें भी। पिता, पुत्र और पति हैं वे भी, और उन्हें भी जीवन ने कई बार कर्तव्य के दुरूह चौराहे पर लाकर खड़ा किया है। बस हमारी तरह कमजोर नहीं हैं वे। वैसे भी किसी अन्य राजा या व्यक्ति से उनकी तुलना उचित नहीं, क्योंकि कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मर्यादा का उलंघन नही किया मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने—लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए वे। काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह, इन्द्रियों के पाँचों विकारों पर पूरा नियंत्रण है उनका और इसी गुण के रहते वे अपनी हर लड़ाई जीत पाए। राम समदर्शी तो हैं ही, कमजोर और प्रताड़ितों का साथ देने में भी पीछे नही हटे कभी। ऐसा तभी हो सकता है जब राजा को खुदपर भरोसा हो और वह कायर या स्वार्थी न हो और राम न स्वार्थी थे और ना ही डरपोक। कर्तव्य पथ पर चलते राम को कोई बाधा पीछे नही घसीट सकती थी, चाहे वह राक्षसी प्रवृत्तियाँ हों या मायावी। सम्मोहन, प्रलोभन, प्रताड़ना या फिर व्यक्तिगत जीवन में अतिक्रमण, कुछ भी स्थिरप्रज्ञ राम को विचलित नहीं कर सका। आदर्श पुत्र और भाई थे वे, अच्छे सखा और राजा थे, हर रिश्ते के लिए पूरी तरह से समर्पित थे राम। और यही नियंत्रण व एकनिष्ठता राजा राम को भगवान राम बनाती है जिन्हे दुख की घड़ी में न सिर्फ सहायता के लिए याद किया जा सकता है वरन् सखा की तरह विश्वास भी किया जा सकता है उन पर, दुख-दर्द बाँटे जा सकते हैं उनके साथ।
कितना ही हम भागना चाहें, आधुनिकता के नाम पर नकारें, बात घूम-फिर कर उसी आपसी आदान-प्रदान (वह भी मनसा, वाचा और कर्मणा), दूसरे शब्दों में सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्तों पर ही आ जाती है परन्तु बिना ‘स्व’ या आत्मा की अवहेलना किए हुए। तुलसी संतुष्ट जीवन में प्यार और इज्जत की कीमत जानते थे। ” देखन से हुलसै नही, नैनन बरसे ना नेह/ तुलसी तिंह न जाइए चाहे कंचन बरसे मेह।” निश्चय ही प्रेम यदि जीवन का रक्त-संचार है तो आत्म सम्मान मेरुदंड। परन्तु प्रेम व लालच में, आत्म-सम्मान और दर्प में अंतर जानकर ही इस राहपर चला जा सकता है और क्लेश ग्लानि व ईर्षा जैसे विकारों से बचा जा सकता है। सच के पथ से विचलित होना और समस्याओं से हारना तुलसी के मानस में किसी को नहीं आता, चाहे वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम हों या भरत, लक्ष्मण। सेवक भक्त हनुमान या फिर परछाँई सी पति की अनुगामिनी सीता। यही हठी प्रेमाग्रह और निश्वार्थ जिजीविषा ही भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है और इसी के रहते भारतीय संस्कृति आज भी हिमालय सी अडिग है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और खुद में अकेले टापू की तरह नही जी सकता। आजभी कितनी ही व्यावहारिकता की बात हम करें, खुदको सम्पूर्ण और स्वावलम्बी समझें, हम सभी जानते हैं कि रिश्तों से ही परिवार बनते हैं और परिवार से ही समाज व देश। जब तक जुड़ना न सीखेंगे, जीव और पर्यावरण के साथ सहज होना न सीखेंगे, हर आदर्श और संयम की बात खोखली है। राम शायद राम न होते अगर दशरथ जैसे पिता, कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा जैसी माँ व लक्ष्मण और भरत जैसे भाई तथा सीता जैसी पत्नी न होतीं उनकी। वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे गुरु न होते उनके।
तुलसी के राम सदैव ही पूज्यनीय है और सफलता की कुंजी है, भवसागर से तारने की शक्ति रखते हैं। इसी नाम का उलटा सीधा जाप करके बाल्मीकी जैसे डाकू पापमुक्त हो परमत्व को पा गए और रामायण जैसे महाग्रन्थ की रचना कर डाली। इनके बल से ही हनुमान लंका लाँघ गए और मात्र इसी नाम के सहारे नल नील ने समुद्र बाँध दिया– अगर कथा के तमाम ये और अन्य अलौकिक तत्व नकार भी दिए जाएं, तो भी बहुत कुछ है इस कथा में जो आज भी बाँधता है और तत्कालीन संदर्भों में भी पूरी तरह से उपयोगी और व्यवहारिक है। क्योंकि राम-कथा विघटन की नहीं संगठन की कथा है,—शोषण नहीं, संरक्षण की कथा है। यह उन तृणमूल गुणों की कथा है जिनकी जरूरत हर युग और हर समाज को होती है। आपसी संबंधों में स्नेह की ताकत बताती है यह हमें। रिश्तों में एकनिष्ठता का महत्व दर्शाती है यह । सशक्त के हाथों निर्बल के उद्धार का मंत्र देती है और वह भी दर्पहीन सेवाभाव के साथ। न्याय यहाँ न सिर्फ दोष रहित है वरन् हमेशा जनहित में है। कमजोरों को दुतकारता नहीं, वरन् उनका सुनियोजित संघटन करता है और उनके दलित जीवन को आत्म-सम्मान व सार्थक उद्देश्य दिया जाता है। साम, दाम, दंड, भेद, सुधार की ये चारों पद्धतियों लेकर चलती राम कथा करीब करीब जीवन की हर संभव-असंभव परिस्थितियों से जूझना और उनमें संयत रहना सिखलाती है। यदि कहीं सामने वाले का दर्प इतना बढ़ जाए कि निगलने को तैयार हो जाए तो जैसे सुरसा के मुंह से हनुमान निकल आए थे वैसे ही बचना भी सिखलाती है यह। यह बतलाती है हमें कि कैसे सोने का मृग आज भी वन वन ही भटकाएगा और आज भी शील की लक्ष्मण रेखा लाँघने पर अपहरण ही नही बलात्कार, खून सभी कुछ होगा। वासना में डूबी नारी आज भी सूपर्णखाँ सी ही नाक कटवाकर लौटेगी और परिवार के ही नही समाज के भी पतन और विनाश का कारण बनेगी। परन्तु रामकथा समाज का घिनौना मुखौटा भी सत्य शिव और सुन्दर के सिद्धान्त के साथ दिखलाती है इसीलिए आज भी सबकी प्रिय है और सबको समझ में भी आती है। स्वार्थ नहीं त्याग है रामराज्य में– राजा सामूहिक कल्याण में विश्वास करता है और प्रजा निष्ठा और विश्वास के साथ राजा का आदर और अनुसरण करती है। नायक न सिर्फ न्याय प्रिय और क्षमता में अद्वितीय है वरन् उसका तो जन्म ही आसुरी तत्वों के विनाश के लिए हुआ है। समाज के हर वर्ग की बात वह न सिर्फ सुनता और समझता है वरन् क्षमता को परख सफल व संतोषपूर्ण संगठन भी करता है उनका और यथोचित सम्मान भी देता है उन्हें। राम अपनी प्रजा से कहते हैं कि ” जौ अनीति कछु भाषौं भाई, तौ मोह्यि बरजहु भय बिसराई।” वे शायद पहले ऐसे राजा हैं जो प्रजा को ऐसा संदेश देते हैं और साथ में आँख बन्द करके उनकी हर बात मानने की भी मना करते हैं।”सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई” कहकर अपने विवेक का उपयोग करने को कहते हैं। रामराज्य में कहीं असंतोष नहीं, इसलिए अराजकता भी नहीं।क्या आज के समाज को भी एक ऐसे ही नायक की आवश्यकता नहीं? आसुरी प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए किशोरावस्था से ही तैयार किया गया है इन्हें। ठीक भी तो है,चरित्र निर्माण तो बचपन से ही होना चाहिए क्योंकि कच्ची मिट्टी को ही मनचाहा आकार दिया जा सकता है।रामायण सत्य की असत्य पर विजय की कथा है।उपनिषद में सत् की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जो किसी का अनिष्ट न करे वही सत्य या मुख्य है सिर्फ आंखों देखा, या कानों सुना हाल ही सच नहीं होता, क्योंकि इसे तो राग रंज धुँधला कर सकते हैं–सत्य तक पहुँचने के लिए विवेक और सोच की मथनी चाहिए और राम चरित मानस या रामायण जो कि पात्रों के मानस का ही चित्रण है, एक ऐसी ही मथी हुई रचना है–सही अर्थों में भारतीय संस्कृति और सोच का नवनीत, मानवीय रिश्तों का परम उत्कर्ष और जीवन का शाश्वत सच है यह कथा। प्रजा के लिए सबकुछ दाँव पर लगा देने वाले एक ऐसे जन-नायक की कथा है यह जिसे मोह तक न बाँध सका।जन कल्याण की भावना ही उनकी सोच में सर्वोपरि थी। राम का तो प्रेम तक लोक मर्यादा की सीमा के अन्दर था। वे पहले जन नायक थे, फिर पुत्र, भाई, पति या पिता। जरूरत पड़ने पर निस्वार्थ भाव से प्रिय से प्रिय वस्तु तक त्याग दी थी उन्होंने –राजपाट ही नहीं, जान से प्यारी जानकी, प्राण से प्यारे भाई लक्ष्मण, सभी कुछ।
रामायण के सभी पात्र वैदिक भारतीय मर्यादाओं से अनुप्राणित हैं और लोक मंगलकारी मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं।आज भी दैनिक आचार-संहिता से लेकर राजनीति और वेद पुराण सभी की समझ रामायण से ली जा सकती है। कई आधुनिक समस्याओं का समाधान कर सकती है यह काव्य-कथा। राजा राम अपने भाइयों और प्रजा को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ” परहित सरिस धरम नहि भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।” हरेक के अन्दर छुपे ईश्वरीय तत्व (गुणों को) पहचान कर प्रणाम करना सिखलाती है यह हमें। जब ” सिया राममय सब जगजानी, करहु प्रणाम जोरि जुग पानी।” तो फिर कौन अधम या पराया, या नफरत करने योग्य?-सभी बस अपने हैं और पूज्यनीय हैं। तुलसी ने दिखाया कैसे आज भी स्नेह और सच्चा सेवाभाव निर्बल और नासमझ कपि को बजरंग बली बना सकता है और विनय की चमड़ी में न हो तो अहंकार बड़े से बड़े ज्ञानी को भी दस मुँह से बुलवाता है और पतन की ओर ले जाता है।
क्या जरूरत थी कि राम लक्ष्मण जैसे वैभवी और पराक्रमी राजकुमार, सुकुमारी सीता के साथ वन वन भटकते और राक्षसों का चुन चुनकर वध करते? ऋषि मुनियों ( चिन्तक और सुधारकों) के तप में विध्न डालने वाले अराजक तत्वों को नष्ट करते? वे चाहते तो खुशी-खुशी सीता के साथ राजसी वैभव में रह सकते थे, निश्चय ही राज्याभिषेक के बाद और दुबारा अग्नि-परीक्षा के बाद भी, सीता का परित्याग आज भी बहुतों की समझ में नहीं आता, परन्तु राम का जीवन हो या चरित्र कहीं भी संदेह या कलुष की गुँजाइश नहीं थी। राजा पर ही प्रजा उँगली उठाए, यह राम को स्वीकार नहीं। आज हम कहते हैं कि तुम सबको खुश नही कर सकते इसलिए बस स्वयँ को खुश रखो। जो खुद को सही लगे वही करो। परन्तु राम की सोच इससे अलग थी, वह सबको खुश रखकर ही खुश रह सकते थे। दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी मानते थे। और यही वजह थी कि हमेशा अपने ही सुखों का कर्तव्य की वेदी में हवन किया। सिंकदर या पोरस भी नहीं थे वे कि आक्रमण या विजय की नीति लेकर ही चलते। आज के बुश और अन्य अवसरवादी नेताओं की तरह भी नही थे वे कि सुधार के नाम पर दूसरों की कमजोरी का फायदा उठाते। कमजोर और दलितों का तो साथ दिया था उन्होंने— अहिल्या जैसी अबला नारी हो या सुग्रीव जैसा प्रताड़ित राजा, या फिर जटायु जैसा घायल वीर। कमजोर और प्रताड़ितों का साथ देने में राम कभी पीछे नही हटे।
राम न सिर्फ हर अन्याय के खिलाफ लड़े बल्कि समाज और व्यक्तिओं को उनकी त्रासदी से मुक्ति भी दिलवाई।रामकथा चमत्कारों की कथा नहीं, यथार्थ की कथा है ऐसे यथार्थ की कथा जिसे आज के समाज में भी जिया जा सकता है, उन आदर्श और मूल्यों पर चला जा सकता है, यदि हम राम जैसा विवेक और धैर्य जगा पाएँ और यह असंभव नहीं क्योंकि अगर सबमें राम हैं तो वे सभी सात्विक तत्व भी हैं और अगर सबके राम हैं तो वे सच की राह पर हमारी सहायता भी करेंगे ही। राम ने चमत्कारों के सहारे जन मानस नहीं जीता वरन् अपने कर्मों और चरित्र की वजह से ही भारतीय चेतना में यह दुर्लभ जगह बनाई है। दुरुह से दुरुह स्थिति में भी आत्मबल और निष्ठा का नाम हैं राम। हर परिस्थिति में एक अप्रतिम आदर्श सामने रखा है मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने, वह भी लेशमात्र भी मर्यादा का उलंघन किए बगैर। बिना संशय या विवाद के तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।
चमत्कारों में विश्वास न करते हुए भी चमत्कार चाहना, मानव स्वभाव की कमजोरी रही है। सदियों से आस्था और धर्म के नाम पर जन साधारण अपने दुखों की संजीवनी ढूँढता रहा है और सदियों से आस्था और धर्म का ही दुरुपयोग हुआ है, समाज की अनेक कुरूपता और अत्याचार का कारण बने हैं ये ही। आज भी धर्म ने ही देश और समाज क्या, विश्व तक को कई कई टुकड़ों में बाँटा है। परन्तु राम की कहानी विघटन नहीं, संघटन की गाथा है। शोषण नहीं पोषण को राजा का कर्त्तव्य कहती है। स्वार्थ नही त्याग की कहानी है यह। राम हों या लक्ष्मण, भरत हों या सीता, परिवार का हर सदस्य एक दूसरे के लिए कुछ भी कर सकता है। त्याग करने के लिए तत्पर ही नहीं, निष्ठाबद्ध है। और जब रिश्तों के प्रति इतनी प्रतिबद्धता हो तो परिवार ही नहीं, पूरे समाज और देश तक की रूपरेखा सुधरने में देर नहीं लगती। यदि रामायण के विचारक (ऋषि, मुनि) सुर-असुरों की पहचान रखने वाले हैं, तो शासक भी नीर-क्षीर विवेकी हैं। समर्थ ही नहीं, प्रजा के प्रति स्वार्थ रहित भाव से समर्पित हैं। उनमें क्षमता है कि असुरों का नाश कर सकें, सत्य की असत्य पर विजय दिलवा सकें । साथ-साथ जोड़ने और जुड़ने की भी अद्भुत क्षमता है उनमें। राम के चरित्र में जहाँ परिवेश के साथ पूर्ण सामंजस्य है, जीवन की व्यवहारिकता और उपयोगिता का विवेक भी है। कठिन से कठिन निर्णय और त्याग में भी राम कभी नही हिचकिचाए। कठोर से कठोर तेवर में भी राम की सोच संयत और ठंडी थी और हमारा आज का स्वार्थी और उग्र तेवर वाला समाज आज भी रामकथा से बहुत कुछ सीख सकता है। वे भावातिरेक में कभी नही बहे। शोषित को शोषण से मुक्ति दिलाना सराहनीय है पर तभी तक जब तक जरूरत हो। जबर्दस्ती दूसरे के घर में घुसकर बैठना न्याय नहीं अतिक्रमण ही कहलाएगा और असंतोष को ही जन्म देगा जैसा कि आज अफगानिस्तान, ईराक, कम्बोडिया, पैलेस्ताइन आदि कई देशों में हो रहा है।
भारतीय परम्परा में योग शब्द का अभिप्राय है आत्मा का परमात्मा में लीन हो जाना, और इसी धारणा को आज के संदर्भ में लें तो व्यक्तिगत लाभों का समाजिक लाभों से जुड़ना–व्यक्ति विशेष का समाज के हित में निज सुखों को छोड़कर जनकल्याण के कार्यों से जुड़ना ही आज के युग की सबसे बड़ी साधना या योग है और इसका राम-चरित् जैसा सक्षम व आदर्शवादी उदाहरण शायद ही हमें इतिहास में कहीं और देखने को मिले।
बच्चे की पहली पाठशाला माँ का आंचल या परिवार होता है। यहीं से वह प्यार करना और जुड़ना सीखता है। जब हमारे जैसे अभिभावक या गुरु बच्चों से कहते हैं कि ” तुम हमारी बात क्यों नही सुनते” या फिर ” लगता है तुम्हें सही शिक्षा नही मिल रही”, तो जाने अनजाने उंगली खुदपर ही उठाते हैं, क्या जो सवाल हम अगली पीढ़ी से पूछ रहे हैं उसका जबाव सुनने और समझने का वाकई में वक्त है हमारे पास, या बच्चे भी अन्य आवश्यक और प्रचलित समानों की तरह हमने बस अपनी जिन्दगी में जुटा लिए हैं। इन वाक्यों में छुपे विरोधाभास का दर्द और उसका हल भी हमें खुद ही ढूँढना होगा—वह भी अपने नए परिवेश और बदलती परिस्थितियों और जरूरतों को ध्यान में रखकर। हरेक की लड़ाई अपनी और अलग होती है–सबकी अयोध्या और लंका अपनी अपनी हैं और राम और रावण भी खुद हमारे अपने अन्दर ही विराजमान हैं।
देखने को तो हम कभी भी राम में रावण और रावण में राम आराम से देख सकते हैं और अक्सर ही यह गलती करते भी हैं क्योंकि आँखें वही देखती हैं जो हम देखना चाहते हैं और सही देखने व सोचने के लिए भी आदत डालनी पड़ती है , संयम चाहिए, वरना “जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी” ही है। सुमति हो या सत्संग जैसा कि तुलसी ने कहा है कि “रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।” आदर्श या विचार भी तो जल या वायु की तरह ही होते हैं, सशक्त और जीवनदायी पर ग्रहण न करो, बहजाने दो, तो व्यर्थ। और इन्हें भी तो लेना ही नही पचाना भी आना चाहिए तभी तो समाज की धमनी और शिराओं में रक्त-से पोषक बन दौड़ पाएँगे। फिर यह ग्राह्रता भी तो निजी पात्रता और योग्यता पर ही निर्भर करती है। इसी पात्रता या योग्यता के विकास में गुरु और ग्रन्थ सहायता करते हैं। जल तो अंजुलि में भी जल है और समुन्दर में भी, ओस में भी और आँसू में भी। वर्षा की बूँद में भी और बहती नदी मे भी, पर स्थानानुसार उपयोगिता भिन्न हो जाती है जैसे कि हवा उपवन में भी है और अग्नि में भी पर एक जगह शीतल और मन्द है, तो दूसरी जगह उष्मित और उग्र। स्थान और परिवेश के अनुसार रूप , शक्ति, प्रभाव सब भिन्न हो जाते हैं। मट मैले आकाश के नीचे समन्दर मट मैला दिखता है और नीले आकाश के नीचे नीला, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि गुण बदल गए। अच्छी से अच्छी चीज भी बस उतना ही दे पाएगी जितनी लेने वाले की योग्यता है। परिस्थितियाँ, पालन-पोषण, शिक्षा, इनके अनुरूप ही सोच भिन्न हो जाती है और इसे ही हम पारिवारिक या सांस्कृतिक संस्कार कहते हैं और यहीं पर रामायण की आचार-संहिता और आदर्श हमारी मदद कर सकते हैं।
पलपल ही हम व्यभिचार, अराजकता और लूटमार की खबरें और कहानियाँ पढ़ते हैं, फिल्में देखते हैं । आज और भी जरूरत है कि गीता रामायण जैसी किताबें भी पढ़ी जाएँ और आधुनिक संदर्भ में उनपर चर्चा और विवेचनाएँ हों। मंचों पर अभिनय हों, जिससे हम और हमारी अगली पीढ़ी अपने मूल्य, दर्शन और संस्कृति से जुड़ी रह सके, भारतीय दृष्टिकोण को समझे और याद रख सके। बस भौतिकता के बहाव में बहकर विलासिता को ही ध्येय और आदर्श न बनाए। वैदिक संस्कृति जैसा सहिष्षु और सुलझा दर्शन आज भी और कहीं नही है, जहाँ एक तरफ तो यह हमें अपनी आत्मा में झाँकने, या खुद को जानने के लिए प्रेरित करता है, अहँ बृहाष्मि जैसे गौरव और आत्म उत्थान के मानक देता है , वहीं दूसरी तरफ वसुधैव कुटुम्बकम् जैसा उदार और व्यापक दृष्टिकोण भी दिया इसने। खुद को जानो तभी दूसरों को जानने लायक बन पाओगे, ही नहीं कहा दूसरों को भी अपना-सा ही समझो, यह भी कहा। तुलसी दास भी शायद इसी समदर्शिता की बात कर रहे थे जब उन्होंने कहा कि “सिया राम मय सब जग जानी, करहु प्रनाम जोरि जुग पानी।”
वेद और उपनिषद से लेकर मानस और गीता तक भारतीय संस्कृति संहिता एक गौरवमय धरोहर है जिससे आज भी समस्त मानव समाज बहुत कुछ सीख सकता है और जीवन में उतार ले तो आज के समाज की आधी समस्याएँ और लड़ाइयाँ हमेशा के लिए खुद ही खत्म हो जाएँगी। कहाँ है रामकथा जैसी भाव-प्रवण और कर्तव्य-बोध कराती अन्य कथा—-जहाँ पुत्र पिता के वचनों का मान रखने के लिए राजपाट त्याग दे और विछोह में पिता अपने प्राण? विजयी सम्राट जीता हुआ देश लौटा दे? (राम का विभीषण को लंका का राजा बनाकर वापस लौट आना) और राजा का प्रजा को खुश रखने के लिए अपने ही सुखों की आहुति दे देना— मात्र एक धोबी के कहने पर प्राणों से प्यारी रानी को त्याग देना या फिर वचन की मर्यादा रखने के लिए परछाँई से साथ रहने वाले भाई लक्ष्मण को ही त्याग देना ? लक्ष्मण जो उनके दाहिना हाथ थे। मेरुदंड थे। बिना दंड के राजा या समाज का कार्य नही चलता पर अगर इसकी वजह से ही असंतोष हो जाए तो इसे भी छोड़ना ही बेहतर है। रामायण का हर पात्र एक आदर्श, एक सोच रखता है पाठक के आगे। आज भी एक सफल और संयत जीवन के लिए शक्ति, भक्ति और सेवा की उतनी ही जरूरत है जितनी कि रामायण के काल में थी। यही गुण हैं जो कठिन से कठिन परिस्थिति में भी स्थिर और विवेकपूर्ण रखते हैं किसी व्यक्ति या समाज को। शक्ति जहाँ कुदृष्टि और अराजक तत्वों का विनाश करती है, भक्ति स्थिरता और प्रेरणा देती है और प्रेम आत्म-तुष्टि और सरसता यानी कि खुद में और दूसरों में विश्वास जगाता है, ध्यान रखना और सेवा करना सिखाता है। सेवा जो जीवन व समाज को एक सुचारु पद्धति और प्रणाली देती है, आराम और सुव्यवस्था देती है। और इतनी सुगढ़ योजना परिवार की हो, या राजपाट की बिना सुमति के संभव नहीं और सुमति भी प्रभु की कृपा से ही मिलती है। तुलसीदास ने ही कहा है कि बिनु राम कृपा कछु संभव नाही। रामायम में तुलसीदास ने जगह-जगह ही सत्संग और सुमति को भरपूर सराहा है। ” जहाँ सुमति तिंह संपत नाना” कहा है। सत्संग की तुलना तीरथ राज प्रयाग से ही कर डाली है। “मुद मंगलमय संत समाजू, जिमि जग जंगम तीरथराजू।” ठीक भी तो है गंगा यदि तन को निर्मल करती है तो ज्ञान-गंगा मन को।
राक्षसी समाज तो आज भी ज्यों का त्यों ही है और समस्याएँ भी वही हैं बल्कि वक्त के साथ और विद्रूप ही हुई हैं। आज भी यौन वृत्तियों से अतृप्त शूपर्णखाँ चारो तरफ घूम रही हैं और जन मानस को भृष्ट कर रही हैं। आज भी रावण हैं जो घरों में छद्म रूप से घुस आते हैं और ठगते और बर्गलाते रहते हैं। भाँति भाँति के दानवों के अमानवीय आतंकों से पूरा समाज आज भी ग्रस्त है। सीमा अतिक्रमण और मर्यादा उलंघन वैसे ही समाज में बहुव्यापक है। इन्हें हटाना और नष्ट करना ही रामराज्य का उद्देश्य और आधार था और आज भी पूरे विश्व में हर तरह की सुख-समृद्धि के लिए एकबार फिर से यही उद्देश्य होना चाहिए। स्वार्थ, आतंकवाद, और पूँजीवाद जैसी राक्षसी प्रवृत्तियों को नष्ट करने के लिए एकबार फिर रामायण के कर्तव्यबद्ध आदर्शों को उसी निष्ठा के साथ वापस लाना होगा। शौर्य, मर्यादा और समझ का यथोचित सम्मान करना होगा। निर्बल असहायों को छोड़ या हटाकर नही वरन् उनकी कमजोर मानसिकता का सशक्त संघठन करके, उन्हें संग लेकर। अराजकता तोड़फोड़ और असमर्थता हटाने के लिए वानर वृत्ति में आज भी चेतना और आत्म-गौरव की उतनी ही जरूरत है जितनी कि राम की सेना में थी। जब बानर और रीछ जैसी जातियाँ राम की महिमा और नाम के प्रभाव से असंभव को भी संभव कर डालती हैं, समुद्र को बाँध लेती हैं, सोने की लंका विध्वंस कर देती हैं तो फिर आज इस इक्कीसवीं सदी में कैसे हम किसी दलित या पिछड़े समाज को दुतकार सकते हैं? उनकी संगठित शक्ति की अवहेलना कर सकते हैं? राम की सहायता के लिए बजरंग बली तो हैं ही पर नल नील, सुग्रीव, अंगद,और जामवंत जैसे चरित्र भी हमें बारबार यही याद दिलाते हैं कि आत्म विश्वास और दृढ़ इरादों की शक्ति को नकारा नहीं जा सकता। इनके सहारे ही समुद्र पर पुल बाँधा जा सकता है और पूरे के पूरे पहाड़ तक को कन्धे पर उठाकर लाया जा सकता है।
प्यार, त्याग, शौर्य और सहिष्णुता के चारों स्तम्भों पर खड़ी रामायण आज भी एक किताब न होकर भारतीयों के लिए आचार-संहिता है। उपनिषद का सार है। जीवन के इन मूलमंत्रों का खुद अनुसरण करना और भावी पीढ़ी तक पहुँचाना हर अभिभावक व जागरूक भारतीय की जिम्मेदारी है। विध्वंसकारी परिवेश में ऋषि या विद्वानों को शान्त और मनोनीत पर्यावरण दिया जा सके, आज भी यही समाज के हित में है। तभी समाज की अच्छी सोच और आचरण के आदर्श उदाहरण सामने आ पाएँगे और उनके तप को भंग करने वाली राक्षसी प्रवृत्तियों का कैसे शमन किया जाए, यह जिम्मेदारी शासक या समाज के संरक्षकों की ही होनी चाहिए क्योंकि न्याय के लिए भी एक संतुलित समझ की जरूरत है और न्याय भी तभी तक न्याय है जब तक क्षमा के महत्व को समझकर दिया जाए। सुधार की गुँजाइश तो हर जगह ही होती है। बार बार समझाने पर भी न समझे, तभी अपराधी दंड का भागी है और दंड में भी सामूहिक हित में ही होना चाहिए, निजी वैमनस्य से नहीं। मनुष्य, समाज या परिवार को वही लौटाता है जो समाज या परिवार उसे देता है, इस तरह से अगर दीन हीनों पर ध्यान न दिया जाए, तो सामाजिक अपराधों की साझेदारी भी सबकी ही होनी चाहिए और बुराइयों को दूर करने की भी। यदि हमारी तश्तरी में जरूरत से ज्यादा है और पडो़सी दाने दाने को भटक रहा है तो संघर्ष और बगावत तो होंगे ही। अराजकता बढ़ेगी ही, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि निर्बलों को आलसी और निकम्मा कर दें इसीलिए तो वानर और रीछ प्रवृत्तियों के लोगों को भी संगठित करके उनकी सेना बना डाली थी रामजी ने, जो बड़े से बड़े राक्षसों से लड़े ही नहीं, उन्हें जीतकर भी लौटे। आदर्श राम-राज्य की परि-कल्पना दलित अछूत हरेक को साथ लेकर ही कर पाए थे तुलसी दास भी। मारे गए हर राक्षस को मोक्ष देने में भी उनके राम नही चूके थे क्योंकि वैमनस्य बुराई से था, व्यक्ति विशेष से नही। जाति और वर्ण के भेद को भूल प्रेम वश राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं और उच्चकुलीन वशिष्ठ अछूत निषाद को गले लगाते हैं।
पूरी रामायण ही अनेक सामाजिक और पारिवारिक अनुसरणीय उदाहरणों से भरी पड़ी है जो वेदकालीन भारत के सशक्त और सुगढ़ जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करते हैं। एक बार फिर उन्ही सिद्धान्तों पर चलकर हम विश्व को सार्थक, सफल और सुखमय तो बना ही सकते हैं, साथ में सच्चा भारतवंशी कहलाने का गौरव भी हासिल कर सकते हैं।
शैल अग्रवाल
जनवरी 1947 वाराणसी, भारत में जन्म व शिक्षा आज भी जारी। वैसे पहले कभी बनारस से ही अंग्रेजी,संस्कृत व चित्रकला में स्नातक प्रथम श्रेणी आनर्स के साथ । अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. । सितार और भारतनाट्यम में प्रशिक्षण। रुचि कलात्मक व रुझान दार्शनिक। 1968 से सपरिवार ब्रिटेन में। 50 से अधिक देशों का भ्रमण। कर्मक्षेत्रः साहित्य व समाज। बचपन के छिटपुट लेखन के बाद गंभीर लेखन जीवन के उत्तरार्ध में 1997 के बाद।
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