राम के नाम पर दंगे
राम कौन हैं !
‘रमते कणे कणे इति राम:’… जो प्राणी मात्र के हृदय में रमण करते हैं वह ‘राम’ है तथा जिनमें आमजन रमण करते हैं, ध्यान लगातें वह हैं ‘राम’ ।
शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है, हमारे यहां भी एक कहावत है ‘आंख का अंधा नाम नयन सुख’ जो शेक्सपियर के इस कथन पर मुहर लगाता दिखता है, परंतु यह एक अपवाद है। हमारे सनातन या हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में से ‘नामकरण’ संस्कार का बहुत महत्व है और कहा जाता है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति पर जरूर पड़ता है। और जब ‘राम’ के नाम की बात की जाए ,तो हर हिंदू और मैं तो कहूंगी हर भारतवासी के हृदय में अनगिनत विचार एक साथ खलबली मचाने लगेंगे। ‘राम’ शब्द एक बीज मंत्र की तरह है राम के व्यक्तित्व से भी बड़ा ‘राम’ का नाम है। रत्नाकर डाकू के पाप कर्म के कारण उसके होठों पर राम शब्द आ ही नहीं पा रहा था तब नारद जी ने उसे ‘मरा- मरा’ जपने को कहा। ‘मरा -मरा’ ‘राम-राम’ हो गया और रत्नाकर ने कालांतर में राम के चरित्र को केंद्र में रखकर ‘रामायण’ रचा, और आज हम सब कितने आदर से महर्षि वाल्मीकि का नाम लेते हैं ! उन्हीं राम का नाम जपते- जपते तुलसीदास ने भी ‘रामचरितमानस’ जैसे सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य की रचना कर डाली: ‘कवि ना होउं नहिं चतुर कहावउँ, मति अनुरूप राम गुन गावउँ।’
राम हमारे हृदय से लेकर हमारे जिह्वा तक विराजते हैं । और क्यों ना ले हम राम का नाम या प्रकारांतर में किसी भी ईश्वर का नाम! ईश्वर की शरण मानवीय चेतना की वह चरम बिंदु है जहां पहुंचकर इंसान अपने दुखों से निवृत्ति और परम शांति की कामना करता है। अंग्रेजी भाषा में ‘जॉर्ज हर्बर्ट’ (George Herbert) की एक प्रसिद्ध कविता है ‘दी पुली’ (The Pulley), जिसका भावार्थ है कि ईश्वर ने मनुष्य को धन ,दौलत ,सौंदर्य ,ज्ञान ,सम्मान आनंद सब कुछ दे दिया लेकिन चैन या आराम या संतुष्टि(Rest) जो भी कह लें उसको अपने पास रख लिया ताकि इसी बहाने इंसान भगवान को याद करे। तो हम भी लेते हैं राम का नाम, अभिवादन के बहाने ‘राम-राम’ कहकर, और यही ‘राम-राम’ उच्चारण करते हैं जब हम किसी आंखों को नहीं रूचने वाली वस्तु या घटना को देखते हैं। गांधीजी के अंतिम शब्द थे ‘हे राम’, और अगर किसी ने जीवन में एक बार भी राम का नाम न लिया हो तो उसकी अंतिम यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ कहकर उसके कानों में यह बीज मंत्र डाल ही दिया जाता है। हमारा देश विविधताओं का देश है। बोली, भाषा, धर्म ,मौसम के साथ हिंदुओं के अनेक देवी देवता भी हैं जिनकी पूजा की जाती है, जिनके नाम का जाप किया जाता है। परंतु संभवतः रामचरितमानस की लोकप्रियता और राम के चरित्र ने राम के नाम को जन-जन के हृदय में प्रविष्ट करवाया है । जब जब धर्म की हानि होती है तो कृष्ण पैदा होते हैं परंतु अगर राम पैदा हो गए तो धर्म की हानि होगी ही नहीं।
‘राम’ और ‘राम कथा’ वास्तविक है या वाल्मीकि और तुलसी की कोरी कल्पना ,इस पर बहस जारी है, पर हमारी मान्यताओं के अनुसार राम विष्णु के सातवें अवतार थे जो मानव रूप धरकर इस पृथ्वी पर आए और रावण जैसी अहंकारी और तामसिक शक्तियों से तत्कालीन समाज को मुक्त करवाये। अगर यह मान भी लिया जाए की ‘रामायण’ एक कपोल कल्पित ग्रंथ है, तब भी एक बात तो हमें माननी पड़ेगी कि यह ऐसा निरापद ग्रंथ है, ऐसी आचार संहिता है जो मानव को मानवता के साथ जीना सिखाती है। इसमें तत्कालीन समाज का बहुत ही जीवंत चित्रण है और यह बताता है कि यदि ‘राम’ जैसा व्यक्ति राजा हो तो ‘रामराज’ की स्थापना की जा सकती है और अगर ‘रावण’ की तरह विवेकहीन और अहंकारी राजा हो तो राजा और उसके कुटुंब का अंत होगा ही सोने की लंका भी जला दी जाएगी। ‘राम’ या ‘रामचंद्र’ को तुलसी ने एक रोल मॉडल, एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है जो भी इनके जीवन मूल्यों को मानेगा वह समाज के लिए वांछनीय होगा। राम धैर्य, दयालुता , नेतृत्व क्षमता जैसे गुणों से युक्त एक आज्ञाकारी पुत्र, आदर्श भाई, अच्छे मित्र ,एकल पत्नी प्रथा के वाहक आदर्श पति,ऊंच -नीच के अंतर को न मानने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम थे, वैसे ‘राम’ के नाम को जपना व्यवहारिक, आध्यात्मिक, नैतिक, धार्मिक हर दृष्टि से लाभकारी है।
तो यही लाभकारी ‘राम’ का नाम, यही सभी प्रकार के तापों और कष्टों को हरने वाला ‘राम’ का नाम ,राम की महिमा ,उनके प्रति भक्ति और श्रद्धा की भावना व्यक्त करने वाला धार्मिक मंत्र ‘जय श्री राम’ एक नारा ,युद्धघोष या ललकार का द्योतक कैसे बन गया, कैसे ‘राम के नाम पर दंगे’ समाचारों के हेडलाइन बनने लगें..? यह हम सब के लिए बहुत ही दुःख और शर्म का विषय है।
भारत बुद्ध- महावीर की धरती है प्राचीन काल में यहां सभी धर्म के लोग शांतिपूर्वक एक साथ रहते थे। इस देश में एक तरफ जहां बुद्ध ने धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा प्रस्तुत की ,वहीं अशोक जैसे राजाओं ने शांति और धार्मिक सहिष्णुता की नीति का पालन किया। उस कालखंड में धर्म लोगों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा तो जरूर था किंतु किसी पर भी प्रकार के सांप्रदायिकता को यहां स्थान नहीं मिला था। वर्तमान में भारत के जन-जन में पड़े सांप्रदायिकता के बीज के विषय में अगर हम जानना चाहें तो हमें थोड़ा पीछे मध्यकालीन भारत की ओर जाना पड़ेगा जब इस्लाम आगमन के साथ ही महमूद गजनवी जैसे लोगों ने भारत के मंदिरों को लूटा और नष्ट किया। मुस्लिम शासनकाल में बहुत से हिन्दुओं का धर्मांतरण किया गया, और भी दूसरे तरीकों से उनका शोषण किया गया, उसके बाद अंग्रेज आए उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के बीच ‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धांतों पर भारत पर राज किया। अंग्रेजों द्वारा सुलगाई गई यह चिनगारी भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय अंगारे का रूप ले ली और पहली बार हिंदू और मुस्लिम के नाम पर दंगे हुए और इन दंगों में लाखों लोग मारे गए और बेघर हो गए सो अलग। खैर उसके बाद सब कुछ धीरे-धीरे रास्ते पर आने लगा लेकिन हाल के दो-चार वर्षो में या फिर कहा जाए की राम जन्मभूमि के विवाद के समय से ही हिंदू मुस्लिम के बीच के संबंधों में दरार पड़ने लगी। भारत के प्रथम मुगल सम्राट बाबर के आदेश पर 1527 में इस मस्जिद का निर्माण किया गया था पुजारियों से हिंदू ढांचे या निर्माण को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा। मस्जिद को लेकर हिंदूओं और मुसलमानों के बीच 1853 में शुरू हुई झड़प 90 के दशक से बहुत जोड़ पकड़ने लगी । 6 दिसंबर 1992 को विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कारसेवकों ने ,जिनकी संख्या लाख से भी ऊपर थी, बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया । नतीजा 7 दिसंबर 1992 को हमारे देश का समाज स्पष्ट रूप दो भागों में बंट चुका था। दिल्ली, मेरठ ,आगरा, वाराणसी, कानपुर ,अलीगढ़,खुर्जा ,बिजनौर ,सहारनपुर हैदराबाद ,सूरत ,बेंगलुरु ,कानपुर, असम, राजस्थान ,कोलकाता भोपाल , मुंबई कहने का तात्पर्य है कि देश का कोना-कोना सांप्रदायिकता की आग में झुलसने लगा। सबसे ज्यादा नुकसान मुंबई में हुआ। दिसंबर 1992 से जनवरी 1993 के बीच मुंबई महाराष्ट्र में दंगों की एक श्रृंखला घटित हुई जिसमें 900 लोग मारे गए थे और इसका कारण था बाबरी मस्जिद विध्वंस के प्रतिक्रिया में मुसलमानों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन के बाद शत्रुता में वृद्धि। तनावपूर्ण स्थिति के मद्देनजर लखनऊ और उसके आसपास के इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया था। पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी हिंदुओं को हिंसा का निशाना बनाया गया।हिंदू धर्मावलंबियों को अपने रामलला को उनके जन्म भूमि पर विराजमान करने की ललक ने एक लंबे संघर्ष की भूमिका बनाई और आज राम मंदिर तैयार है और यह खुशी की बात है। लेकिन धर्म जब राजनीति का सहारा बन जाता है तो यह सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है यही बात हुआ ‘जय श्री राम’ के नारे के साथ भी। राम जन्मभूमि विवाद ने समय के साथ एक आंदोलन का रूप ले लिया और उदय हुआ हिन्दू राष्ट्रवाद का। अब रामभक्ति केवल धार्मिकता और पवित्रता की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि ‘राम’ हिन्दू संगठनों के शक्ति के प्रतीक के रूप में बदल गये।
सोशल मीडिया के इस युग में , जब लोगों के बीच मूल्य आधारित शिक्षा का अभाव है, गरीब और बेरोजगार युवाओं की उपलब्धता प्रचुर है, तब ऐसे में चंद कुटिल राजनीतिज्ञ भला सांप्रदायिकता फैला कर वोट की राजनीति क्यों नहीं करेंगे !
समाज के ताने-बाने में बुने हिंदू मुस्लिम अपनी रोजी-रोटी कमाने में इतने मशगूल होते हैं कि छठ के चूल्हा बनाने के समय, दिवाली के कपड़े सिलवाने के समय हिंदू नहीं सोचता कि यह काम कोई मुसलमान कर रहा है और मुसलमान नहीं सोचता कि यह काम वह हिंदुओं के लिए कर रहा है। यह सोच तो चंद राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों की होती हैं, भोले -भाले लोगों के दिल दिमाग में ऐसी बातें बैठा देते हैं ये लोग ! यही लोग धर्म के नाम पर समुदायों के बीच सांप्रदायिक घृणा और हिंसा को बढ़ावा देतें हैं और उसी आधार पर विभाजन ,मतभेद और एक तनाव पैदा करते हैं जिससे लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ती है।
ये तथाकथित राम भक्त जहां तहां किसी को घेरकर कहते हैं कि,
“इस देश में रहना होगा तो जय श्री राम कहना होगा”
उनसे कोई पूछे कि अगर हम ‘जय श्रीकृष्ण’ कहे तो क्या यहां नहीं रह सकते।
दोनों धर्म के लोग एक दूसरे के धार्मिक जुलूसों पर हमला करते हैं या किसी मंदिर मस्जिद का नुकसान पहुंचाते हैं, तो क्या उससे उनके भगवान खुश हो जाएंगे?
अगर ‘जय श्री राम’ के नारे की ही बात करें, तो राम की खुशी तो निश्चित ही भारत की उन्नति और भाईचारे में निहित है ना कि बेफिजूल के उनके नाम के नारे लगाने में।
‘राम’ के नाम के नारे हम इसलिए लगाते हैं कि उनका चरित्र हमें प्रभावित करता है,तो इसके लिए हमें राम की तरह बनना होगा, न कि उनके नाम का उच्चारण करते हुए सामने वाली की हत्या कर देना या किसी भी तरह से उसका नुकसान पहुंचाना।
यही बात सामने वाले धर्मावलंबी पर भी लागू होनी चाहिए। रामनवमी के मौके पर हिन्दुओं द्वारा राम दरबार, बजरंग बली और झंडों की झांकी निकाली जाने की प्रथा है, और इस मौके पर सबसे ज्यादा दंगे होने की खबरें आतीं हैं और जिसमें दोनों पक्षों के लोग शामिल भी होतें और प्रभावित भी होतें हैं।
सांप्रदायिकता वह संकीर्ण मनोवृत्ति है जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर लोगों को व्यक्तिगत धर्म के संरक्षण के लिए हिंसा तक के लिए उकसाती है। कोई कहता है ‘इस्लाम खतरे में है’ तो कोई आक्रमक ढंग से ‘जय श्री राम’ का उद्घोष करता है। और हो जाता है दंगा जिसमें नुकसान होता है न हिन्दू का न मुसलमान का बल्कि हिन्दुस्तान का।
हमारा प्रजातंत्र इतना परिपक्व हो चुका है कि हम सब सांप्रदायिकता के नाम पर वोट की राजनीति करने वालों के मंसूबों पर पानी फेर सकतें हैं । आइये हम सब अपने-अपने इष्ट को याद करें उनके नाम जपे और दूसरे धर्म के लोगों को भी उनकी अपनी आस्था के साथ जीने में पूर्ण सहयोग दें। श्री राम हमारे भारत को विश्व गुरु के रूप में प्रस्तुत होने का आशीर्वाद दें।
ऋचा वर्मा
पटना, भारत
Your writing style is captivating.