रीता रानी की कविताएं
1.अनुपात – समानुपात
किसी भी शोक को सभी ने अपने-अपने पाव में नापा ,
प्रविष्ट हुए सब अपनी- अपनी खोह में ,
दुख की कालिमा को देखने के लिए ।
थोड़ी देर के लिए शोक समानुपातिक हो गया ,
इस तरह व्यक्तिगत होकर भी वह सार्वजनीन हो गया ।
समाज ने भी वेदना को देखा , समझा , मापा भी।
पर दुःखभोगी एकाकी रहें अपनी -अपनी उदासकोठरियों में ,
दुःख फिर से व्यक्तिनिष्ठ हो गया ।
सबने उसांस भरे ,अवश्य नैनन नीर भिगोए ,
परंतु कालचक्र गेहते पुनः खटराग में डूबे ।
कदाचित कहीं – कहीं जाकर यह विलाप जम गया ,
वहां से खुरचने पर भी निकल नहीं पाया।
जमकर चिपका दर्द फिर व्यक्तिनिष्ठ हो गया ।
वेदना फिर भूल गयी सार्वजनीन होने की भाषा ,
बँटने की परिभाषा का विस्मरण कर दिया उसने ,
समानुपात का अध्याय अरुचि से पलट दिया उसने,
उसे तो प्रति एक के साथ अलग-अलग अनुपात में होना है ,
एक ही पीड़़ा बँट गई अलग-अलग स्वरूपों व हिस्सों में ,
कितने ठिकानों से तो लुप्त होती -होती ,होती गई विलुप्त ।
दुःख का अपना कोई रंग था भी क्या भला?
जिसके अंतस से मिला, उसके रंग का ही हुआ ।
दुख को पढ़ना था समानुपात परंतु वह तो ,
उरअंतर के दाबानुसार विभाजित होता रहा अनुपातों में ।
उधेड़बुन की चकरी में मथता रहा चित्त ,
अनेक स्मृतियाँ झिलमिलाई, स्मरित होती रहीं बातें ,
सोचती रही दुःख पर ही आरोप क्यों ?
समानुपातिकता व सुख भी कहाँ सुमेलित ?
अपने भोगे यथार्थ के साथ , संलिप्त भावानुसार, अपने-अपने अनुपात में बांट लेते हैं सुख को भी ,
शायद समानुपात का गणित जीवन में नहीं होता।
2.अनभिलषित
गर दुख- विषाद के पग भी सहचर -पथगामी हों,
तो भी नवजीवन में नवनिर्माण कहां रुकता है?
रूखे पवन झकोरों से निःसृत पतझड़ के संदेशें हों,
तो भी संचिका प्रकृति का नवसृजन कहाँ थमता है?
विष को पीकर प्रकृति अमृत निःसृत करती है,
जीवन के प्रथम परिणय से विनाशातंर तक,
अपनी ही छाती पर सब मौन सहा करती है।
निज तन-मन के अमृत से विश्व संतति का सिंचन करती है।
इस निर्मल सिंचन से शक्ति पा , मानव भ्रमित
डोला करता है,
निर्णायक समझ, जगप्रणेता बूझ खुद को , शक्तियों से खेला करता है ,
विनाश क्षरण के दृश्यों से ,शुभ संदेश अवहेलित करता है ।
हाय कुमति! निज सर्वनाश की राह निर्मित कर आह्लादित है,चमत्कृत हुआ करता है।
गांधारी सी बाँधी है आँखों पर पट्टी, धृतराष्ट सा कुस्वपनों पर मनमुदित हुआ चलता है।
शक्ति की बिछी इस कुटिल बाजी पर निर्बल- लाचार ही हारा करते हैं,
पाश्विक अहंकारों की कीमत निरीह- निरपराध ही चुकाया करते हैं ।
तटस्थ वर्तमान ,रुदन इनका निश्चय ही इतिहास के चिथड़ों में समेटेगा,
पर भविष्य के ज्वारभाटा में तो अवश्य हृदय फफोलों का पानी निथरेगा।
सृजन और सहअस्तित्व के प्रश्न पर, यह वर्तमान कैसे न कसा जाएगा?
इस जीवनपोषिका प्रकृति के प्रति , तब यह क्षीण संवेदन क्या कहलायेगा?
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड
रीटा रानी जी कीलेखनी बहुत अच्छी है।
पाठको के लिए बहुत अच्छा अनुभव होगा इन्हे पढ़ना,,, बहुत साधुवाद 🌹🌹🌹🌹