अरुण धर्मावत की कविताएं
1.शंखनाद
धूमिल धूमिल पथ रह गए
लक्ष्य अलक्षित रह गए
अंधियारों में जले दीप जो
उजियारों को लील गए
शोषित वंचित अपमानों के
प्रश्न बिलखते रह गए
जो चले योद्धा अग्रपथों पर
आज वही पथ भूल गए
व्यथाओं का नित प्रदर्शन
शब्द निरर्थक रह गए
लिख कर भी क्या पाया हमने
खुले ज़ख्म सब रह गए
परिवर्तन के ढोल बजे पर
अंतस खाली रह गए
अगणित आये यहां मदारी
खेल दिखाते रह गए
संवेदन की उठी उंगलियाँ
बस दोषारोपण रह गए
संदर्भों की प्रत्यंचा पर
तीर उलट कर रह गए
तो हे मानव …..
अवतार का इंतजार ना कर
बनके मशाल खुद, चल पड़
मानवता आज रो पड़ी है
नैतिकता खंडित हो चुकी है
तो अब ……
शेष है समर किंचित
न रुक, अब न विश्राम कर
फिर संजोले पथ अग्रसर
संताप का श्रृंगार कर
आशाओं का बन खिवैया
मंझधारों से प्रीत कर
अंतस की दुर्बलता
वज़्र के समान कर
टूट कर अटूट बन
आंधियों के पार चल
विरह मिलन के चक्रवात से
वेदना परास्त कर
निर्बाध न होगा पथ तेरा
संग नहीं साया तेरा
अडिग – अटल पुरुषार्थ से
नव पथ का निर्माण कर
शेष है समर किंचित
न रुक, अब न विश्राम कर !!
2.अर्पण
तुम जो आओ तो महर हो जाए
इन अंधेरों में सहर हो जाए
चाँद आ जाना मेरे आँगन में
ना सितारों को ख़बर हो जाए….
ज़िन्दगी अब तुम्हें पुकारूँ
सुबह ओ शाम तुम्हें निहारूँ
मोहन की राधिका बनकर
ज़िन्दगी अब तुम्हें पुकारूँ ….
तेरे आने की ख़बर जो हुई
रोशन ये मन की गलियां हुई
आजा के अब गुहारूँ
पलकों से पथ बुहारूँ
ज़िन्दगी अब तुम्हें पुकारूँ…..
नीलांबर है आँचल तेरा
चंदा सा चमकता चेहरा
तारों सी झिलमिलाती है तू
अब कैसे तुम्हें निहारूँ
ज़िन्दगी अब तुम्हें पुकारूँ ….
छाँव कभी बन जाती है तू
अगन सी कभी लगाती है तू
अंसुवन में भीगे मोती जैसी
अब कैसे तुम्हें पुकारूँ
ज़िन्दगी अब तुम्हें पुकारूँ ….
अर्पण की साधिका बनकर
प्रीतम की कामना बनकर
चरणों में साँस के फूलों से
ज़िन्दगी अब तुम्हें सिधारूँ
ज़िन्दगी अब तुम्हें पुकारूँ ….
अरुण धर्मावत
जयपुर, भारत
बहुत उम्दा रचनाएं