आतंक
घर के कोने में पड़ा मकड़े का जाला,देता है गवाही,
कि वर्षों से यह मकान खाली पड़ा है,
आस पास के दीवारों पर पड़े खुन के छींटे,
धूल की मोटी परतों के बावजूद,
उसे साफ़ – साफ़ दिख पा रहे हैं।
नन्हीं गुड़िया सी वह,
चैन की नींद सो रही थी,
अपने नर्म गर्म बिस्तर में,
अपनी मां की गोद में चिपकी।
तभी नाईट बल्ब की रोशनी में दिखे थे कुछ धूंधले साये,
कानों में गूंजी थी गोलियों की तरतराहट।
सुबह उस लाड़ली बिटिया को लोग अनाथ बुला रहे थे,
तंद्रा भंग हुई, गालों पर आंसुओं की गर्माहट ने,उसे वर्तमान का अहसास दिलाया,
और उस महिला सैनिक ने अपने यादों के अवशेष को,
एक जोरदार सलामी ठोकी।
ऋचा वर्मा
साहित्यकार
पटना, बिहार