सेवानिवृत्त
“कनिका एक गिलास पानी लाना। आज बहुत थक गया हूँ ।” सोफ़े पर बैग रखते हुए युग ने अपनी पत्नी से कहा ।
“आप बैठिए । अभी लाई ।” कनिका ने युग से कहा ।
कनिका ने ट्रे में रखे पानी के गिलास और सोनपापड़ी को आगे बढ़ाते हुए युग से कहा, “ यह लीजिए पानी और आपकी मनपसंद सोनपापड़ी ।”
युग मुस्कुराते हुए बोला, “अच्छा जी, मेरी सोनपापड़ी …।”
“और नहीं तो क्या?आप ही की है सोनपापड़ी।देखिए खाते ही सारी थकान कैसे मिट जाएगी।”
“कनिका वैसे तुम ठीक ही कह रही हो । इसकी मिठास में वो जादू और स्वाद है जिसे खाते ही सारी थकान छूमंतर हो जाती है । बचपन में जब मैं और ध्वनि स्कूल से थक कर आया करते थे तो हमारे घर पहुँचने से पहले माँ गरमा-गरम खाने के साथ कुछ मीठा और पानी का गिलास टेबल पर तैयार रखती थी । हम दोनों बहन-भाई सबसे पहले टेबल की ओर ही भागते थे।आज भी वही आदत है।जैसे-जैसे हम बड़े होते गए माँ ने हमारी पसंद की मिठाई रखना शुरू कर दिया था।मुझे सोनपापड़ी बहुत पसंद थी । तब से आज तक भी …।कनिका ! माँ कहाँ है ? पापा भी दिखाई नहीं दिए । क्या दोनों घर पर नहीं हैं ?”
“हाँ, युग मम्मी-पापा दोनों बाहर गए हैं । कोई एक घंटे पहले ।”
“अच्छा ! कहाँ गए हैं ? कुछ बोल कर गए हैं क्या ?”
“नहीं, कुछ कहा तो नहीं । बस मम्मी जी कह रही थी बेटा थोड़ी देर में आते हैं।”
“अच्छा, कनिका मैं कुछ दिनों से देख रहा हूँ कि जब मैं ऑफिस से आता हूँ तो मम्मी-पापा घर पर नहीं मिलते । हर दिन कहीं-न-कहीं निकल जाते हैं । मेरे पीछे घर में कुछ हुआ है क्या ?”
“नहीं ! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जैसा तुम सोच रहे हो । तुम्हारे जाने के बाद मैं घर के काम-काज में व्यस्त हो जाती हूँ । काम से फ़ारिक होकर हम तीनों एक साथ लंच करते हैं और उसके बाद मम्मी-पापा जी अपने कमरे में और मैं अपने कमरे में आराम के लिए चले जाते हैं ।”
“कनिका सब ठीक है न ?”
“मुझे तो कोई बात नहीं लगती । पता नहीं, तुम भी बेवजह फिक्र किए जा रहे हो ।”
“नहीं कनिका, पिछले महीने पंद्रह-बीस दिन के लिए भी मम्मी-पापा मौसी जी के घर गए थे । मैंने कभी नहीं देखा कि मम्मी मौसी के घर दो दिन से ज्यादा रुकी हो । जब कभी भी जाती थी तो ज्यादा-से-ज्यादा तीन दिन के लिए । मौसी के लाख कहने पर भी मम्मी रुकती न थी ।”
“अच्छा! मैं जब से इस घर में आई हूँ, तब से उनका नेचर ऐसा ही देखा है । मुझे तो कोई बदलाव नहीं दिखाई दिया ।”
“नहीं कनिका, तुम्हें नहीं पता । (गंभीर स्वर में) लगता है उन्हें किसी तरह की चिंता है । वे मुझसे जरूर कुछ छिपा रहे हैं । ध्वनि से कोई बात हुई क्या ?”
“हाँ, दीदी का शाम को फोन आया था । हम तीनों से बात हुई । दीदी बिना भूले हर शाम चाय के समय कॉल करती ही हैं । टेबल पर चाय के साथ-साथ दीदी की गुदगुदा देने वाले किस्से भी होते हैं । दीदी की कॉल चाय में शक्कर का काम करती हैं । कभी-कभी तो हम इतने लोट-पोट हो जाते हैं कि सामने से पापा जी कहते हैं, “ध्वनि बस कर । अब और नहीं ।”
“ध्वनि बचपन से ऐसी ही है । उसकी शादी तय होने पर पापा बहुत खुश थे, पर मन का एक कोना उदास भी था । उनकी लाड़ली दूर चली जाएगी । उसके होने से घर में हमेशा रौनक बनी रहती थी ।”
“कनिका, मम्मी को फोन लगाओ । पूछो कितने बजे आएँगे ? डिनर के लिए कहीं बाहर चलते हैं ।”
“हाँ, अभी लगाती हूँ । कनिका फोन लगाती है । मगर फोन की घंटी तो घर में सुनाई दे रही थी।फिर पापा को कॉल लगाया। उनका फोन बंद आ रहा था।”
“युग मम्मी अपना फोन ले जाना भूल गई हैं और पापा जी का फोन स्विच ऑफ आ रहा है ।”
“तुम चिंता मत करो । अभी आ आएँगे । जाओ, जल्दी से फ्रेश हो जाओ । मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूँ । ”
“लगभग साढ़े सात बज गए । युग ने कमरे की बालकनी से देखा तो मम्मी-पापा हँसते-मुस्कुराते बातें करते हुए घर की तरफ आ रहे हैं । दोनों को इस तरह खुश देख युग को अच्छा लगा । वह तेज रफ्तार से नीचे की ओर भागा और दरवाजा खोला ।”
“कनिका सास-ससुर के लिए पानी लेकर आती है । पानी देने के उपरांत वहीं सास के पास बैठ गई ।”
“पापा-मम्मी कहाँ घूम आए आप दोनों ? थोड़ा देर से गए होते तो मैं और कनिका भी आपके साथ चलते ।”
“शाम की चाय पीने के बाद मैं और तुम्हारी मम्मी यूँ ही घूमने के लिए निकल जाते हैं । सोचा घर में बैठे-बैठे क्या करेंगे? यहीं पास के गार्डन तक चले गए थे।”
“हम दोनों भी चलते आपके साथ । थोड़ी देर रुक जाते ।”
“युग ऐसी कोई बात नहीं है।” पापा ने कहा ।
“पापा लगता है आप कुछ छिपा रहे हैं या हम आपको अच्छे नहीं लगते।मैंने या कनिका ने आपसे कुछ कहा है क्या ? ध्वनि की कोई चिंता है क्या ? बताइए ? जल्दी बताइए ?”
कनिका और उसके सास-ससुर तीनों युग की आतुरता देख रहे हैं । किस प्रकार युग एक के बाद एक प्रश्न पूछे जा रहा है । मम्मी-पापा की यूँ फिक्र, मम्मी-पापा मन-ही-मन बहुत खुश हो रहे थे । अच्छा लग रहा था उनका लाड़ला बेटा उनकी परवाह करता है ।
“पापा ने युग को अपने पास बैठाया और समझाने लगे, “ मुझे गर्व है कि ईश्वर के अनुग्रह स्वरूप तुम हमें मिले हो । तुम्हें हमारी फिक्र है । यह जानकर बेहद खुशी हुई।”
“युग, हमने तुमसे कुछ नहीं छिपाया है । ध्वनि के जाने के बाद यह घर खाली-खाली लगता था । कनिका के आने से ध्वनि की कमी भी पूरी हो गई है । माँ-बाप को अपनी संतान कभी बुरी नहीं लगती । अब ऐसा कभी न कहना । ईश्वर के आशीर्वाद से ध्वनि अपने घर में बहुत खुश है । हमें कोई चिंता-फिक्र नहीं है । सब ठीक है ।”
“फिर …?”
“युग मैंने और तुम्हारी माँ ने सेवानिवृत्त ले लिया है ।”
“मतलब ?” युग ने पापा से पूछा ।
“मतलब एकदम सरल है – युग तुम्हारी मम्मी और मैंने हर जिम्मेदारी को बड़ी सहजता से निभाने का प्रयास किया । एक अच्छे और जिम्मेदार माता-पिता की तरह ध्वनि और तुम्हारे पालन-पोषण, उचित शिक्षा, उच्च शिक्षा, नौकरी, शादी-ब्याह आदि की जिम्मेदारी बखूबी निभाई ।(संवेदन भाव में) इन जिम्मेदारियों ने हमारी शादी से यहाँ तक के सफर का कभी आभास ही न होने दिया । जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते समय रेत की तरह सरकता रहा । तुम और ध्वनि कब इस मुकाम तक पहुँच गए, पता ही न चला।”
“पापा हमारी परवरिश ऐसे हाथों में हुई है, जिसे शब्दों में कह पाना संभव नहीं है । हम भी धन्य हैं, आप जैसे माता-पिता पाकर । लेकिन आजकल आप दोनों का बिना कुछ कहे, यूँ घर से निकलने की बात समझ नहीं आई । आप कहें तो दो-चार दिन की छुट्टी लेकर किसी हिल स्टेशन पर हो आते हैं । एक साथ वक्त गुजारने से मन फ्रेश हो जाएगा।कल ही छुट्टी की अर्जी दे देता हूँ ।”
“नहीं युग, छुट्टी लेने की कोई आवश्यकता नहीं । तुम बिना वजह परेशान हो रहे हो ।”
पापा युग के और करीब सरक गए । उसका हाथ अपने हाथ में ले कहने लगे, “युग हमारे जीवन की साँसें तुम और ध्वनि हो । अपने जीवन की बगिया में फूलों के रूप में तुम्हें, ध्वनि और अब कनिका को ही देखा है । तुम सब से ही इस घर में रौनक है, दीवारों पर टँगी तस्वीरें सजीव है, घर-आँगन में चहचाहट है । हमारे दिन की सुबह और रात तुम सब से ही है । तुम्हें याद है क्या ? कोई महीने भर पहले तुमने बताया कि तुम्हारी कंपनी तुम्हें विदेश भेज रही है । तुम्हारे विदेश जाने वाली बात से हम सभी खुश हैं । तुम प्रगति करो, खूब सफलता मिले यही कामना है ।”
“विदेश जाने वाली बात से तुम्हारी माँ खुश तो है, लेकिन तुम्हारे बिना रहने वाली बात ने उसे भीतर तक झकझोर दिया । जब भी वह अकेली रहती तो यही सोचती कि तुम्हारे जाने के बाद वह पूरी तरह अकेली हो जाएगी । यह मुझे असहनीय था । मैंने सोचा, अभी तो सिर्फ जाने का संदेश मिला है । लेकिन जब एक महीने बाद तुम चले जाओगे तो कैसे जी पाएगी वह ।”
“मैं इसी चिंता में घुला जा रहा था कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी माँ को तुमसे दूर होने का आघात न पहुँचे ।”
“पापा आप भी न । बस इतनी सी बात । मैं आज ही ऑफिस ईमेल कर देता हूँ कि मैं नॉर्वे नहीं जा पाऊँगा । आप किसी और को भेज दो ।”
“नहीं-नहीं ! युग ऐसा मत करना । तुमने पहले भी कई मौके गवा दिए हैं, इन्हीं कारणों से । लेकिन अब नहीं । मैंने तुम्हारी मम्मी को समझाया कि हमने अपने दांपत्य जीवन और मातृत्व-पितृत्व के कर्तव्य को बड़ी शालीनता से पूर्ण किया है । अब युग और कनिका की बारी है । नए देश में, नए लोगों के साथ, नए विचारों के साथ और अटूट विश्वास के साथ उन्हें अपना जीवन आरंभ करने दो । कब तक मातृत्व-पितृत्व के बंधन में बाँधकर रखोगी । बच्चे बड़े और समझदार हैं । स्वयं निर्णय ले सकते हैं । हमने भी ऐसे ही सीखा था । जब गाँव से आए थे तो कौन था हमारे साथ; सिखाने और समझाने के लिए । अब उनकी बारी है । नए अनुभव लेने दो उन्हें भी ,इसलिए मैं, तुम्हारी मम्मी के साथ हर दिन अपने किसी-न-किसी प्रियजन, नाते-रिश्तेदारों से मिलने-जुलने निकल जाते हैं । इससे एक-दूसरे के साथ कीमती वक्त बिता लेते हैं और जीवन में कुछ कर्तव्य जो पीछे रह गए थे उन्हें निभाने के लिए मातृत्व-पितृत्व से सेवानिवृत्त होना होगा ।”
डॉ. पूजा अलापुरिया
मुंबई, भारत