उजाले की ओर
शाम गहरा रही थी, एवं धूल भरी आंधियों के आसार नजर आ रहे थे। मैं तेज कदमों से भाग रही थी। बूंदा-बांदी शुरु हो चुकी थी। ओह! घर पहुँच तो जाऊँ बदरा तुम बरसते रहना। यों मौसम बड़ा ही सुहाना हो चला था। प्रचंड गर्मी से राहत तो मिली। सहसा सड़क किनारे इकट्ठी भीड़ ने ध्यान खींच लिया। मेरे बढ़ते कदम ठिठक गये। लोगों की काना-फूसी से पता चला कोई महिला स्कूटी समेत सड़क पर बदहवास सी पड़ी है। मेरे मन में उत्सुकता जगी। किसी तरह भीड़ को चीरती उस महिला के करीब पहुँची। अरे! ये तो नमिता की बहन है।नमिता से मेरा परिचय एक स्थानीय साहित्यिक संस्था में हुआ था और यदा-कदा उसकी बहन नव्या उसे स्कूटी से ड्रॉप करने आ जाया करती थी। मैंने भीड़ को इशारे से समझाया और नव्या की ओर झुकी। हौले से उसे थपथपाया- “नव्या ………. नव्या …………।” उसने हौले से आँखें खोली। आँखें भारी और बोझिल हो रही थीं मानों नशे में चूर हों। मैंने नव्या को सहारा देकर उठाया, पैर-हाथ सही सलामत थे। हल्की-फुल्की चोटें थीं। टखना छिल गया था और खून रिस रहा था। तब तक लोगों ने स्कूटी को भी खड़ा कर दिया था। मैंने पूछा- ‘घर छोड़ दूँ?’
‘नहीं-नहीं चली जाऊँगी।’ नव्या जबरन आँखें खोलने की कोशिश कर रही थी। अब वर्षा भी तेज हो गयी थी। हम लगभग भींग चुके थे। मैंने नव्या को स्कूटी के पीछे बैठने को कहा- “नव्या तुम मुझे जोर से पकड़ कर बैठी रहो।” “जी……… और नव्या मेरे पीछे बैठ गई। तेज रफ़्तार से स्कूटी भगाती मैं सीधी घर के आगे रूकी। नव्या को घर की दीवार के सहारे टिकाकर स्कूटी गैरेज में डाल वापस आयी। किसी तरह अपने से दुगनी नव्या को सीढ़ियों पर धकेलती बैठक में सोफे पर बिठा दिया।
तुम बैठो मैं पानी लाती हूँ।” हूँ…… हूँ…….. नव्या सोफे पर लुढ़क गयी। ‘लो पानी, पी लो और चेहरा भी धो लो।’ यों वर्षा ने चेहरा क्या पूरा शरीर ही धो डाला था। तपती गर्मी में यह वर्षा स्नान बड़ा ही सुखद लग रहा था पर नव्या की स्थिति ने वापस गर्मी के अहसास से भर दिया था। मैंने कपड़े बदले। नव्या को भी अपनी एक नाइटी दी और हिदायत देते हुए कहा- ‘देखो बाथरूम बंद मत करना………. मैं बाहर ही हूँ।” मैं घर में अकेली ही थी। अनिल जमीन विवाद सुलझाने गाँव गये थे और दोनों बच्चे बैंगलोर और पुणे में थे। मैंने चाय का पानी चुल्हे पर रखा और कुछ नमकीन और पानी टेबल पर रख नव्या की प्रतीक्षा कर रही थी। मेरे मन में हलचल मची थी। अभी कुछ दिनों पहले ही तो नमिता से मुलाकात हुई थी। उसने तो ऐसा कुछ नहीं बताया। करीब पाँच-छः बरस पहले ही तो नव्या की शादी हुई थी। यों लड़के वाले आये थे नव्या से बड़ी और नमिता से छोटी बहन नूतन को देखने पर नव्या निलेष को भा गयी थी। नव्या ने भाभी को कहा भी था- ‘भाभी, देखिये न वो लड़का और उसकी माँ तो मुझे घूरे जा रहे हैं।”
भाभी ने यों ही चुटकी लेते हुए कहा था- मेरी छबीली ननद रानी को कोई क्यों न घूरे। “धत्त्……………. भाभी आप भी न! ऐसा नहीं था कि नूतन योग्य नहीं थी।” शांत-सुषील पढ़ी-लिखी छरहरी काया की स्वामिनी थी। वहीं नव्या दोहरे बदन की चुलबली, पर चेहरे पर गजब की आभा! नमिता ने ही मुझे बताया था कि लड़के वाले आये तो थे नूतन को देखने पर नव्या को पसंद कर लिया। पापा ने भी सोचा, चलो किसी की तो शादी पक्की हुई? लेकिन पापा ने निलेश के घर वालों को साफ-साफ कह दिया कि जब तक नूतन की शादी तय नहीं हो जाती आपको प्रतीक्षा करनी होगी। जाने क्यों निलेश के माँ-बाप ने सहज ही हामी भी दी और लगभग दो वर्ष प्रतीक्षा की। इस बीच नव्या और निलेष का मिलना-जुलना होता रहता था। आखिरकार दोंनों बहनों की शादी साथ-साथ एक मैरेज हॉल में संपन्न हुई। निलेश किसी प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर थे। नव्या भी खुश थी, हाँ उसकी सासु माँ से नहीं पटती थी। कारण माँ का बेटे से जरूरत से ज्यादा लगाव था। अभी मैं ख्यालों में पहेलियों से जूझ ही रही थी कि नव्या का शांत स्वर कानों से टकराया-
‘दीदी, मैं यहाँ कैसे आ गई?’
‘नव्या तुम पहले निलेश का मोबाइल नम्बर दो, ताकि मैं उसे तुम्हारी सूचना दे सकूँ’। ‘दीदी निलेश एक रिश्तेदार की बारात में गये हैं। कल शाम तक आयेंगे। बच्चे को नमिता दीदी के पास हैं। आप उन्हें बता दें। मेरे फोन की बैटरी डिस्चार्ज हो गयी है।”
‘ठीक है, मैंने धीरे से कहा। तुम चाय पीयो।’
नमिता को मैंने नव्या की स्थिति समझा दी। साथ ही यह भी बता दिया कि मौसम ठीक नहीं है, सो नव्या को अपने पास ही रोक लेती हूँ। नमिता आश्वस्त हो गयी।
‘रात के खाने में क्या खाओगी नव्या’ मैंने पूछा।’
‘अरे दी जो आप खिलायें खा लूँगी।’ झिझकते हुए वह बोली।
मैंने झटपट तहरी और आलूदम बनाया और डायनिंग टेबल पर प्लेटें लगा दी।नव्या लगातार मेरे साथ बनी हुई थी। इन पाँच-छः वर्षों में नव्या कितनी बदल गयी थी। हँसते हुए चेहरे पर तनाव के गहरे बादल थे। वो चुलबुली, शोख, हँसोड़ बाला धीर-गंभीर ‘अनंत’ सागर की लहरों को आत्मसात किये लगभग कठपुतली सी हरकत कर रही थी। हमने खाना खत्म किया। खाने के बाद कॉफी पीने की आदत है सो मैंने नव्या से पूछा- ‘कॉफी पियोगी?’
‘जी, पी लूँगी।’ कॉफी मग हाथ में लिये मैं बेडरूम में आयी। धीरे-धीरे मैंने नव्या की नब्ज टटोलनी शुरू की। नव्या संगीत में विशारद थी। हारमोनियम पर जब वह गाती तो सभी मंत्रमुग्ध हो जाते। मैंने कहा-
‘नव्या कुछ सुनाओ’
‘क्या सुनाऊँ’ दी। अब सुर ही नहीं लगता।’
‘क्यों?’ अनायास वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसकी दबी-दबी हिचकियाँ रात के सन्नाटे को चीरने लगीं। मैं घबरा गई। पता नहीं पास-पड़ोस वाले क्या समझेंगे?’
मैंने उसे सीने से भींचते हुए उसके बालों पर स्नेह की ऊँगलियाँ फेरी, वषों का सिंचित दरिया पूल-किनारे तोड़ बह निकला।धीरे-धीरे उफनती नदी का प्रबल वेग शांत हो गया। नदी अपनी धारा में लौट आई।
‘दीदी’, निलेश बड़े भले इंसान हैं। पर अचानक जीवन में तूफान बनकर उनका मित्र अमरजीत आ खड़ा हुआ। अमरजीत जमीन की खरीद-बिक्री का काम करता था और मोटर-पार्टस का बिजनेश भी करता था। अमरजीत ने निलेश की बुद्धि भ्रमित कर दी। उसने निलेश को बरगलाते हुए कहा- ‘भाई, क्यों प्राइवेट कंपनी में खटते हो? अपना धंधा शुरू करो। निलेश ने जब कहा पैसे कहाँ से लाऊँ तो अमरजीत ने उससे पूछा कोई जमीन बगैरह हो तो उसे बेच डालो, पूँजी लगा दो। साल दो साल में तो तुम प्लाट तो क्या कंपनी के मालिक बन जाओगे। हर शाम अमरजीत अपनी दुकान के आगे कुर्सी लगवाता और शराब की बोतलें खुलने लगी। धीरे-धीरे अमरजीत ने निलेश को पूरी तरह नशे का आदी बना दिया और निलेश ने नव्या से पूछे बिना अपनी गाढ़ी कमाई से खरीदी जमीन बेच डाली। देर रात को नशे में डगमगाते कदमों से चोरों की तरह घर में घुसता और सीधे बाथरूम में जाकर शॉवर के नीचे खड़ा हो जाता। फिर भरपूर पाउडर और इत्र लगाकर चुपचाप सो जाता। नव्या उसकी हरकतों से परेशान थी। पति को समझाने का कोई फायदा ही नहीं था। बच्चों और घर खर्च की चिंता में घुलती नव्या को अवसाद ने जकड़ लिया। सारी रात करवटें लेती गुजार देती। उनींदी आँखों में रातें कट रही थी। अंत में डॉक्टर की शरण में जाना पड़ा और नींद की दवा लेनी शुरू की। पर विडंबना यह थी कि नींद की गोली भी बेअसर थी। बच्चे सहमें रहते थे और माँ की स्थिति से परेशान! पापा तो पहले वाला पापा थे ही नहीं और अब मम्मी! नव्या ने धीरे-धीरे गोलियों की संख्या बढ़ा दी थी। लेकिन आँखें तो सो जाती पर दिमाग जागता रहता। उसे नींद में चलने की बीमारी हो गई। वह रात को दरवाजा खोलती आहट से सासु माँ जाग जाती। उसे टोकती तो वह बिस्तर पर पुनः आकर लेट जाती। सुबह उसे कुछ भी याद नहीं रहता।नव्या अपनी परिस्थितियों से तंग आ गई थी। उसने पानी से गले को तर किया और अचानक फफकने लगी। मैंने पूछा- “नव्या तुम ठीक तो हो? रो क्यों रही हो?
उसने सिसकते हुए कहा- ‘दीदी कल निलेश गाँव एक बारात में गये थे ओर सासु माँ भी अपने रिश्ते की बहन की बेटी की शादी में।
बच्चों की छुट्टियाँ चल रही थीं नमिता दी के यहाँ पहुँचा दिया, यह बोल कर कि बाजार से जरूरी काम निपटाने हैं। थोड़ी देर में वापस ले जाऊँगी। वहाँ से सीधे मैं घर आ गई और ढेर सारी नींद की गोलियाँ गटक लीं। मुझे चक्कर आने लगी और आँखों के आगे बच्चों के चेहरे तैरने लगे। हिम्मत करके मैंने मुँह में अंगुली डाली गोलियों को बाहर निकालने की कोशिश की। शायद मुझे बच्चों के लिए जीवित रहना था। मैं मरना नहीं चाहती थी। मैंने स्कूटी निकाली और बच्चों को लाने निकल पड़ी।शेष घटनाक्रम से तो आप अवगत हैं।
“दीदी आप देवदूत की तरह जाने कहाँ से आ गईं और पुलिस थाने के चक्कर और बदनामी से बचा लिया।” उसके आत्मग्लानि से भरे स्वर मुझे भीतर तक झकझोर गये। मैंने उसे देर तक समझाया और उसने भी गलती न दुहराने का वचन दिया। रात काफी हो चुकी थी। अपने दिल का बोझ बाँटकर नव्या तो वर्षों बाद चैन की नींद सो रही थी। लेकिन मेरी आँखों की नींद गायब हो गई। किसी तरह झपकी लेकर मैंने रात काटी। सुबह-सुबह नव्या नहा-धो कर चाय के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। हमने चाय पी और नव्या ने हाथ जोड़कर जाने की अनुमति माँगी। ‘दीदी बच्चों से मिलने को बेचैन हूँ। आपका आभार व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आपका उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलूंगी। अब चलती हूँ।’
‘ठीक से जाना और जाते ही मुझे फोन कर देना।’
नव्या अब सहज हो गयी थी। उसने स्कूटी स्टार्ट की और हाथ हिलाती आगे बढ़ गई।
समय अपनी गति पकड़ता रहा। अनिल अब रिटायर हो चुके थे। बच्चों की शादी हो चुकी थी। मैं अपनी नई दुनिया में मस्त थी। तभी एक दिन मेरी कामवाली बाई अंजलि ने मुझसे कहा- “भाभी, हमने अपनी बेटियों को प्राइवेट स्कूल से निकाल दिया है। कोरोना के कारण पति की नौकरी छूट गई और फीस के पैसे हम जुटा नहीं पा रहे। किसी सरकारी स्कूल में यदि आप डलवा देतीं तो………. मेरी बेटियाँ पढ़ लेतीं। बेटियों की पढ़ाई को लेकर मैं संजीदा हो गई। मैंने उसे आश्वासन दिया कि यथासंभव कोशिश करूँगी। तुम कल अपनी बेटियों के साथ आवश्यक कागजात लेकर आ जाना। उसे आश्वस्त कर मैंने एक परिचिता को फोन घुमाया जो एक प्रतिष्ठित सरकारी विद्यालय की प्राचार्या हैं। प्राचार्या ने मुझे निराश नहीं किया और लड़कियों को लेकर विद्यालय बुलाया। मैं अंजलि और उसकी बेटियों को लेकर विद्यालय पहुँची।
बड़ा बाबू ने कहा- “मैडम अभी नहीं आई हैं। आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। उसने मुझे बैठने का संकेत किया।
मैंने अंजलि और उसकी बेटियों को वहाँ बिठा दिया, स्वयं विद्यालय का जायजा लेने इधर-उधर टहलने लगी। पास में ‘स्टाफ रूम’ था जहाँ शिक्षिकाएँ बैठी थीं। मैं आगे कक्षाओं की ओर बढ़ गई। अचानक सामने से नव्या हाथ में रजिस्टर थामे नजर आयी। मैं अवाक सी उसे घूर रही थी। वो अपने पुराने लहजे में मेरा अभिवादन कर मेरा हाथ पकड़ सामने खाली पड़े कक्ष में ले गई।
उसने पूछा- ‘दीदी आप यहाँ?’ मैंने सारी कथा उसे बता दी कि मैं यहाँ क्यों? कैसे?
‘दीदी आप निश्चिंत रहें। एडमिशन तो पक्का हो जाएगा और पढ़ाई के साथ मैं फ्री में संगीत की शिक्षा भी दूँगी अंजलि की बेटियों को।’
मेरे मन की जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई थी। मेरी आँखों में तैरते प्रश्नों को नव्या ने पढ़ लिया था।
‘दीदी आप चाय पिएंगी?’
‘पहले जिस कार्य के लिए आयी हूँ वो तो हो जाए’ मैंने कहा।
उसने चपरासी को आवाज दी- ‘रामदीन मैडम आएँ तो हमे बता देना और तब तक दो कप अच्छी चाय ले आओ।’
चाय की गरमागरम चुस्कियों के साथ नव्या ने अपने कथा संसार की कड़ियाँ खोलनी शुरू कीं।
‘दीदी उस दिन आपसे विदा लेने के बाद मैं बच्चों को लेकर घर आयी। अपने इष्ट के सामने हाथ जोड़कर क्षमा याचना की और निलेश को राह पर लाने का संकल्प लिया।
मेरे प्रयासों तथा ईश्वर की कृपा से निलेश को अपराधबोध हुआ और वह दहाड़ें मारकर मेरे गले लगकर रोने लगा।अमरजीत ने उसे जबरदस्त धोखा दिया था और आर्थिक रूप से बदहाल कर दिया था। मैंने धैर्य के साथ उसे सहारा दिया, उसकी हिम्मत बढ़ाई और कहा- ‘हम मिल कर साथ-साथ प्रयास करेंगे और अपना खोया वजूद वापस पायेंगे।उस दिन के बाद से निलेश ने शराब को हाथ नहीं लगाया। दीदी, नव्या ने साँस ली। दीदी निलेश ने नये सिरे से इंटरव्यू दिया और एक अच्छी कंपनी में मारकेटिंग आफिसर के पद पर चयनित हो गया। मैंने भी किसी तरह आस-पास की बच्चियों को संगीत सिखाकर अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की साथ में बी.एड. का कोर्स भी पूरा किया और इस विद्यालय में आ गई। दोनों बेटे भी पढ़ाई में अव्वल थे। बड़ा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है और छोटा मेडिकल की तैयारी कर रहा है। मैंने अच्छा खास फ्लैट ले लिया है और वो सारी सुविधाएँ जुटा ली है जो मेरे हाथों से निकल गई थीं।
मैंने मुस्कुराते हुए उसे शाबासी दी और मैंने नव्या के संघर्ष और जुझारू व्यक्तित्व को मन ही मन सलाम किया। अब नव्या के लड़खड़ाते कदम उजाले की ओर बढ़ चुके थे।
सुमेधा पाठक
पटना, भारत