प्राण का संबंध
“सुनो तुम्हारी माँ का क्या नाम है?”
स्कूल के प्रांगण में एक छात्रा को रोकते हुए प्रीति ने पूछा। लड़की हतप्रभ होकर प्रीति को देखने लगी। प्रीति मुस्कुराई। लड़की से कहा- “मैं समझ रही हूँ तुम्हारे दिल की बात। लोग अमूमन पिता का नाम पूछते हैं और मैंने तुमसे तुम्हारी माँ का नाम पूछ लिया इसलिए तुम चौंक गई हो ना?”
“जी.. जी”
थोड़ी घबराई सी उस लड़की ने कहा।
प्रीति ने उसे शांत किया।
“दरअसल स्कूल से लेकर कालेज तक एक मेरी सहपाठी थी-निर्मला।तुम उसकी प्रतिछवि लग रही हो। मुझे लगा की कहीं तुम उसी की बेटी तो नहीं।”
“जी हाँ आंटी आपने सही पकड़ा। मेरी माँ का नाम निर्मला ही है।”
प्रीति ने उसे पास खींच कर अपनी बाहों में भींच लिया।
“तुम बिल्कुल निर्मला की स्टूडेंट लुक हो। मम्मी आई है तुम्हारी?”
स्कूल में प्रदर्शनी थी। लिहाजा प्रीति पूरी तरह से आशावान हो चली कि आज सालों की बिछुड़ी सहेली से उसकी मुलाकात होगी।लेकिन उसे निराश होना पड़ा।
“नहीं, आंटी! मम्मी नहीं आई है। वो बेंगलुरू में है। मेरी दीदी के पास।”
“तुम्हारी बड़ी बहन बेंगलुरू में रहती है? क्या करते हैं जीजा जी तुम्हारे?
कितने भाई – बहन हो बेटा? पापा भी बेंगलुरू में ही हैं?”
प्रीति जैसे निर्मला के बारे में एक बार में ही सबकुछ जान लेना चाहती हो।
“हां आंटी! दीदी बेंगलुरू में ही रहती है। जीजा जी आईआइटियन हैं और एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं।आंटी हम दो बहने हैं और एक भाई है।पापा नहीं रहे।दो साल पहले कोरोना में वो चल बसे।”
“ओह!आई एम सॉरी बेटा!”
“भैया कैलिफोर्निया में रहते हैं। वो माँ को अपने साथ ले जाना चाहते हैं। लेकिन माँ इंडिया नहीं छोड़ना चाहती। पापा की पेंशन उसे मिल जाती है।वो किसी पर निर्भर नहीं। दीदी के पास उसका मन लग जाता है इसलिए वहीं रहती है।मैं स्कूल के हॉस्टल में रहती हूँ।मेरी फीस मम्मी भेज देती है।”
पूरी आत्मीयता से नेहा ने मम्मी की सहेली प्रीति आंटी को सारी बातें बताई। “आंटी! मुझे देर हो रही है- प्रदर्शनी में स्टॉल पर ड्यूटी लगी है मेरी,” कहते हुए वो जाने लगी।
“अरे शालिनी! बस मम्मी का फोन नंबर देती जाओ।” नंबर देकर शालिनी जल्दी-जल्दी आगे बढ़ गई। स्कूल की सिस्टर सामने से उसे घूर रही थीं।जो भी अभिभावक या अन्य विजिटर्स आ रहे हैं सभी स्कूल- सभागार की गैलरी में अपना स्थान ले रहे हैं।आज शहर के नामी गर्ल्स हाई स्कूल में प्रदर्शनी लगी है। अभिभावक के अलावा और भी बहुत लोग इसे देखने आते हैं। बालिकाओं द्वारा बेहतरीन मनोरंजक कार्यक्रम होता है- गेम्स, संगीत, काव्यपाठ, नाटिका, इन सबके अलावा हस्त निर्मित कलाकृतियाँ, पेंटिंग्स और खाद्य पदार्थों- चाट-पकौड़े- छोले भटूरे की स्टालें भी लगतीं हैं।प्रीति की बेटी नेहा इसी स्कूल में पढ़ती है।सबेरे उसने प्रीति के लिए एक साड़ी, क्रीमकलर की रेड पार वाली अलमीरा से चुनकर रख दिया था।
“मम्मी! यही साड़ी पहनकर आना मेरे स्कूल, मैं जल्दी जा रही हूँ। तुम ग्यारह बजे जरूर आ जाना। भोला ड्राइवर को मैंने फोन कर बुला लिया है, आ जाना मम्मी। मैं चलती हूँ आना जरूर!” कहते हुए नेहा स्कूल चली गई थी। प्रीति ठीक ग्यारह बजे उसके स्कूल पहुँच गई थी- लेकिन अभी बहुत कम ही लोग स्कूल में आए थे- सिर्फ स्कूल की बच्चियाँ इधर-उधर दिख रहीं थीं इसी बीच उसकी शालिनी पर नजर पर गई थी।
प्रीति स्कूल की सभागार में बैठ गई, एनाउंसमेंट हो रहा था “कृपया सभी लोग स्थान ग्रहण कर लें, अभी एक घंटा बाकी है प्रदर्शनी शुरू होने में।”
सभागार में सभी दर्शकों को स्कूल की ओर से चाय पिलाई जा रही थी। प्रीति ने चाय की चुस्की लेते हुए सोचा- नेहा और शालिनी जरूर एक दूसरे को जानते होंगे, एक ही स्कूल की हैं, दोनों हम उम्र भी लगती हैं- कहीं एक ही वर्ग में पढ़ती होंगी। प्रीति ने दिमाग पर जोर दिया। नेहा की कौन-कौन सहेली को वह जानती है। एकाएक वह चौंकी- अरे! पिछले महीने फोन पर नेहा अपनी सबसे प्यारी सहेली-शालु से उसकी बात करवाई थी।नेहा ने बताया था कि मम्मी शालु हॉस्टल में रहती है, हमारे क्लास की सबसे मेधावी छात्रा है। शालु से हॉस्टल की लड़कियाँ इसलिए दुःखी हैं कि वो हॉस्टल्स से आत्मीय मित्रता न करके डेसकालर, यानि मुझसे, दोस्ती रखती है। प्रीति को याद आया नेहा ने बताया था की शालु की मम्मी उसकी बड़ी बहन के साथ रहती है और उसके पापा करोना में मर चुके हैं।खुशी से प्रीति चहक उठी- अरे। ये शालिनी ही शालु है।
मेरी बेटी नेहा और निर्मला की बेटी शालिनी, दोनों प्यारी सखियाँ हैं- उसने ईश्वर को धन्यवाद देते हुए ऊपर की ओर देखा।
उसकी नजर दीवार पर टंगी घड़ी पर पड़ी-अभी भी आधा घंटा बाकी है।निर्मला की बातें याद करते-करते वह किस भाव-भूमि में चली गई उसे पता ही नहीं चला। निर्मला अपनी अंतरंग बातें प्रीति से शेयर करती थी। शादी के बाद उससे एक बार मुलाकात हुई थी। निर्मला ने अपनी माँ के लिए जो मुझे मार्मिक बातें बताई थी फिर से चलचित्र की भांति प्रीति के सामने विडियो जैसा दिखने लगा और आडिओ में निर्मला की आवाज साकार हो गई थी- निर्मला बोल रही थी- मेरे घर के पीछे से बिल्कुल साफ नजर आता था रेलवे स्टेशन। अंतिम बार माँ से मिली थी याद है वो दिन।
माँ साड़ी के आँचल से अपने बिसुरते होठों को छिपाए फफक-फफक कर रो रही थी। शायद उसे पता था की अब वह दुनिया को छोड़ने वाली है और यह हमारी अंतिम मुलाकात है। मुझे ऐसा कोई एहसास नहीं था क्योंकि माँ अभी बूढ़ी नहीं थी।स्वस्थ गठीला बदन था उसका।अपना काम-धाम सब कर लेती थी।व्रत, त्योहार रखती, ठाकुर जी की पूजा नियमित करती।भोग में चीनी-मिश्री तो कभी चिनियाबादाम-किसमिस चढ़ाती। देर तक भूखी रहकर पूजा करती रहती तो मैं गुस्सा होती-‘तबीयत खराब कर लोगी क्या माँ’।
इतने प्यार से ही निहाल हो जाती माँ। मैं जल्दी-जल्दी उन्हें खिलाती, कॉलेज जाती, पढ़ती-लिखती। यूनिवर्सिटी टॉपर जो थी मैं। मेरी शादी हो गई। पति प्रशासनिक अधिकारी बन गए थे। मैं खुश थी/मेरी माँ भी बहुत खुश हुई थी। मैंने अपनी लेक्चरशिप की नौकरी छोड़ दी। पति जो अधिकारी बन गए थे। माँ को पिछली बार जिद कर पति की पोस्टिंग पर ले गई थी। माँ वहाँ कुछ दिन ही रही, बेटी के यहाँ रहना उसे गँवारा नहीं था। जबकि वह बार-बार कहती रही- ‘तुममें मेरा प्राण बसता है, तुमसे अलग मन नहीं लगता।’ ‘मैं तेरी जान हूँ, प्राण हूँ तो फिर मेरे साथ क्यों नहीं रहती माँ।’ निर्मला ने भावुक होकर माँ से कहा।
“पूर्ण शिक्षित हूँ, किसी ने यानि मेरे पति ने तेरा अपमान किया न तो उसे छोड़कर अलग हो जाऊँगी, नौकरी कर लूँगी पर तुम्हें नहीं छोड़ूँगी।” निर्मला ने माँ को आश्वस्त किया था। लेकिन माँ नहीं मानी। मेरी ट्रेन चल दी। माँ ने हाथ हिलाया था। वह अपने आँसू आँचल से पोंछ रही थी। धीरे-धीरे वह विलीन हो गई। मेरा मन कचोटता रहा। दिल करता कूद जाऊँ ट्रेन से ।खैर! जैसे-तैसे संभली!
पूरे सफर में बार-बार बीते दिनों की बातें याद आती रही! बचपन में माँ कहती- “वो फिल्मी गाना है न निर्मला! तू जहाँ रहेगा मेरा साया साथ होगा, मैं कहीं रहूँ न बेटी! मेरा साया तेरे साथ रहेगा।” माँ कहती- “तू बिल्कुल निर्मल मन की है ना! इसीलिए तेरा नाम निर्मला रखा है।” अपनी पारखी नजरों से शादी के बाद ही सही परखकर उसने निष्कर्ष दिया था- “तेरा पति असल जौहरी है मेरी हीरा जैसी बेटी की कीमत समझता है बहुत सुख मिलेगा इससे तुझे।” “तुमने कैसे जाना माँ?” मैंने पूछा था। माँ कहती- “डेकची में चावल के एक दाना को टोह कर ही पता चल जाता है कि बाकी सिझा है कि नहीं..” “याद है तुम्हें, मैं हॉस्पिटल में कॉलरा होने पर भर्ती थी। एक टिटनेस मरीज गंदा-संदा चलने में लड़खड़ाया और गिरने ही वाला था कि तेरे पति ने उसे अपने बाँहों में समेट लिया था- मेरे अंतर्मन से यही आशीर्वाद निकले थे- ये आकाश की ऊंचाई छूएगा। मैं कहती- “इतना सब जानती हो की मेरे पति भी अच्छे हैं तो फिर मेरे साथ क्यों नहीं रहती माँ।”
मेरे पिताजी का देहांत मेरे बचपन में ही हो गया था। तीन भाई मुझसे बड़े थे, सबों की शादी हो गई थी और सभी नौकरी कर रहे थे। पिता का अपना बनवाया मकान था जिसमें सभी रहते थे। सभी अपने में व्यस्त थे। माँ निरामिष थी इसलिए अपना खाना स्वयं बनाती, किसी पर बोझ न बनती।
मकान का हिस्सा सभी भाइयों ने बाँट लिया था। माँ के हिस्से में दो कमरे थे। एक में माँ का बिस्तर एवं ठाकुर जी का मंदिर था। दूसरा, जिसमें माँ ने कीचेन की व्यवस्था कर रखी थी।
एक मेरा भाई – माँ को दबाव दे रहा था कि माँ वाले हिस्से को वह किराया लगाएगा।
माँ तैयार नहीं थी। वो अपने ठाकुर जी की पूजा शांति से अकेले करती और चुपचाप रहना चाहती।
मेरे भाई माँ के सटे वाले हिस्से में ही थे। वो चाहते तो उनकी देखरेख कर सकते थे लेकिन उन्हे तो किराया लगाने की धुन थी। जो ही और पैसे हो जाएँ। माँ को ओसारा पर छोटे से कमरे में सोने को कह रहे थे।
माँ भी थी विल-पावर की तगड़ी। उसने पहले बेटे को बहुत समझाया, जब वो तंग करने लगा तो माँ ने कहा- “ठीक है मुझे दस दिन का समय दो, खाली कर दूँगी।”
दसवाँ दिन एकादशी था माँ ने ठाकुर जी की पूजा की, उसके बाद दिनभर कमरे में पड़ी रही। रात को सोई तो सुबह नहीं उठी। माँ ने ठीक दसवें दिन मकान खाली कर दिया था। मुझे ये सारी बातें पता चलीं लेकिन मैं क्या करूँ, अब तो सब लुट गया था- माँ चल बसी थी।
मुझे तार से सूचित किया गया था लेकिन तार पहुँचने के पहले ही मुझे पता चल गया था कि माँ नहीं रही। उधर माँ के प्राण पखेरू उड़े और इधर मुझे लगा जैसे मेरे हृदय से कुछ निकाल कर उड़ गया। मैंने पति को जगाया सुबह के चार बजे थे। “ऐ जी! मेरी माँ नहीं रही।” “ये क्या कह रही हो? तार आया है क्या!” “नहीं! माँ से मेरा प्राण का संबंध है न! मेरे अन्दर से मेरा प्राण निकल गया, पता चल गया, माँ नहीं रही।”
सही में, वही ब्रहमुहूर्त था जब माँ इस दुनिया को छोड़कर स्वर्गलोक में चली गई थी। इतना कहकर निर्मला फूट-फूट कर रो पड़ी थी। प्रीति भूल गई थी की वह स्कूल के सभागार में बैठी है। प्रदर्शनी शुरू हो गई है, इस एनाउंसमेंट के साथ ही उसकी तंद्रा टूटी। प्रीति की आँखें गीली थीं।
इति माधवी
पटना, भारत