ऑनलाइन खाना
पिताजी के इस दुनिया से जाने के बाद माँ का आना-जाना लगा ही रहता था। प्रिया उनकी इकलौती संतान थी,पिताजी के जाने के बाद माँ एकदम अकेली पड़ गई थी।घर का कोना-कोना पिता जी के साथ बिताए मधुर पल की याद दिलाता रहता,जब माँ घर के अकेलेपन से डरने लगती तो प्रिया के घर के चक्कर लगा आती। प्रिया ने कितनी बार कहा,
“इतने बड़े घर में अकेले रहना मुश्किल है। तुम मेरे पास आ जाओ।”
पर संस्कारों की बेड़ियों में बंधी माँ उस बंधन को तोड़ नहीं पाई। बेटी के घर में हमेशा के लिए रहना आसान नहीं था दुनिया क्या कहेगी?प्रिया और अमित दोनों ही नौकरीशुदा थे। सुबह से लेकर रात तक घर में तूफान सा मचा रहता था। प्रिया जल्दी-जल्दी घर के कामों को निपटाती जाती और नौकरानी को आदेश देती जाती। माँ अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए आ तो जाती पर यहाँ भी किसी को किसी के लिए फुर्सत ही नहीं थी पर गनीमत था कि कम से कम शाम को प्रिया और उसका पूरा परिवार माँ के आस-पास होता था।
इंसान सुख के लिए दुनिया भर के नौकर-चाकर तो रख लेता पर माँ को देखते ही एक -एक कर सब खिसकने लगते। प्रिया और बच्चों के जाने के बाद माँ सुबह के भूचाल को समेटने का प्रयास करने लगती। बिस्तर पर पड़ी भीगी तौलिया, मेज पर पड़े झूठे प्याले, लुढ़की हुई पानी की बोतलें,भगौने में पड़ी चाय की पत्ती… कितना कुछ तो समेटना होता था।माँ अक्सर पिताजी से कहती थी,
“पुरुष तो रिटायर्ड होते हैं पर औरत के जीवन में कभी रिटायरमेंट नहीं आता।”
उम्र के साथ बूढ़ी होती माँ काम करते वक्त न जाने इतनी ऊर्जा कहाँ से ले आती थी।माँ हमेशा कोशिश करती कि बच्चों को अपने हाथ का खाना बनाकर खिलाएं।बच्चें भी नानी को देखकर फरमाइश कार्यक्रम शुरू कर देते। सुबह की निकली प्रिया का चेहरा थकान से उतर जाता था,कभी-कभी तो वह माँ की गोदी में सर रखकर लेट जाती। प्रिया अक्सर खाना ऑन लाइन आर्डर कर देती, कभी पिज्जा तो कभी दाल मखनी…रोटियाँ घर आते-आते ऐसी कड़क हो जाती कि दाँत भी जवाब दे जाते। शुरू-शुरू में तो माँ संकोच के मारे खा भी लेती फिर धीरे-धीरे कभी पेट खराब तो कभी तबीयत ठीक न होने का बहाना करके दूध पीकर ही सो जाती।
एक दिन माँ ने दबे स्वर में प्रिया से कहा,
“प्रिया!ऐसी नौकरी का क्या फायदा तुम बच्चों पर ठीक से ध्यान भी नहीं दे पा रही।”
प्रिया ने तड़प कर कहा था,
“माँ! आपके जमाने की बात दूसरी थी,आज के जमाने मे जीने के लिए दोनों को कमाना पड़ता है। बच्चों की पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है। अगर मैं कमाने न जाऊँ तो इनके शौक, इनकी पढ़ाई,घर की ई एम आई और इनके भविष्य के बारे में सोचना मुश्किल हो जाएगा। वैसे भी मैं अपनी पढ़ाई को यूँ जाया होने नहीं दे सकती।”
प्रिया को कोई भी तर्क माँ को सन्तुष्ट नहीं कर पाया,
“बच्चों के चेहरे तो देख,नौकरानी कच्चा-पक्का बनाकर शाम को ही चली जाती है। वो पानी जैसी दाल और ठंडी रोटी पता नहीं कैसे तुम लोगों के गले से उतरती है, तेरे पापा को एक-एक रोटी फूली-फूली चाहिए होती थी,पापा की छोड़ तू अपनी सोच… बचपन में तुझे भी तवे से एक-एक पराठा गर्म चाहिए होता था और अब…?क्या हम काम नहीं करते थे,तुम्हारे यहाँ तो हर काम करने के लिए नौकर है, अमित जी भी तुम्हारे कामों में हाथ बंटा देते हैं।तेरे पापा तो अपने हाथ से एक गिलास पानी तक नहीं लेते थे।”
प्रिया चुप थी।
“तुम्हारी मजबूरी समझती हूँ, तू भी थक जाती है ।ऑफिस से आने के बाद काम करने का मन नहीं करता होगा।मानती हूँ तू अपने बच्चों की बहुत अच्छी माँ है, ये सब कुछ तू उन सबके लिए ही कर रही है पर मैं ये सोच-सोच कर हैरान हूँ कि खाना खाने से पहले ही इंसान अपना पेट नापकर कैसे बता सकता है कि कौन कितना खायेगा। तेरे पापा की हमेशा की आदत थी कि खाना खराब बन जाये तो पूरे खाने के वक्त वो भुनभुनाते रहते थे पर अच्छा बन जाये तो कभी तारीफ के दो शब्द भी नहीं कहते थे पर मुझे हमेशा पता चल जाता था कि खाना अच्छा बना है और तेरे पापा को पसन्द भी आया है,जानती हो कैसे?”
“कैसे ?”
“तेरे पापा हमेशा तीन रोटी ही खाते थे पर सब्जी अच्छी बन जाये तो चार रोटी तक खा लेते थे और मुझे उनके बिना कहे ही पता चल जाता कि सब्जी अच्छी बनी है। न जाने कितनी बार चार लोईयों को जोड़कर मैंने तेरे पापा को तीन रोटियाँ बनाकर खिलाई हैं।”
प्रिया आश्चर्य से माँ को देख रहीं थी।
“तुझे याद है जब तू छोटी थी और मैं तुझे अपने हाथों से खाना खिलाती थी,तू अक्सर मुझ से पूछती थी। माँ मेरी दो रोटी हो गई और मैं तुझ से झूठ बोल देती। अभी कहाँ अभी तो एक ही रोटी हुई है और मैं चुपके से तीन रोटियाँ खिला देती। तू अक्सर पेट भरने का बहाना करके खाने से उठने लगती। तब मैं बाबा,दादी,चाचा,नाना का कौर कह-कह कर पूरी थाली ख़त्म कर देती।जानती थी अपने पति और बेटी से झूठ बोल रही हूँ पर इस बात की संतुष्टि थी कि मेरा परिवार पेट भर खाना खा रहा है। मानती हूँ हमारे जमाने में खाने की इतनी वैराइटीज नहीं थी, न ही ऑनलाइन खाने जैसी सुविधा पर हम दाल, रोटी, सब्जी खा कर भी खुश थे।एक बार सोचकर देख अपने बच्चों के महंगे बाजारु भोजन को खिलाकर तेरा मातृत्व सन्तुष्ट होता है।”
प्रिया माँ के चेहरे पर उन सवालों के जवाब ढूंढ रही थी,एक ऐसा सवाल जिसका जवाब किसी के पास नहीं था ।माँ उसे उन सवालों के साथ छोड़कर उसकी पसंद के भरवाँ करेले बनाने चल दी।
डॉ. रंजना जायसवाल
मीरजापुर,भारत