बिना पते की चिठ्ठी
मेरे घर के आगे एक छोटा बगीचा है जिसमें मैंने नारियल, नींबू, अमरूद, चम्पा, रातरानी, आम के पेड़ लगा रखे हैं। छोटी क्यारियों में गेंदा, चमेली, उड़हुल के फूल हैं। उड़हुल के भी कितने रंग है ना। जब छोटी थी तब केवल लाल या गुलाबी रंग के उड़हुल के फूल हुआ करते थे। जमाना भी बदल गया है। “मिक्स एंड मैच” हर जगह जैसे एक नियम बन गया है। सुबह अपने कमरे की खिड़की से निहारा अपने उन पौधों को और पेड़ों को भी। हर पौधे के साथ एक कहानी जुड़ी है। नारियल का पौधा मैं मद्रास से लाई थी, आम का पौधा देहरादून जाते हुए रास्ते में खरीदा था, अमरूद का पौधा साथ वाली नर्सरी से लाई थी और नींबू का पौधा मेरी पड़ोसिन सहेली ने दिया था। एक लम्बी सांस लेकर सोचा कमरे के बाहर निकलू। सब को एक बार छू लूँ फिर पता नहीं अगला व्यक्ति उसे रखे ना रखे। हल्की ठंढ की सिहरन थी तो काली शाल लपेट कर बाहर निकली। हल्की गुलाबी ठंढ हो गई है। नींबू के छोटे छोटे फल निकल आए हैं। आम का पेड़ भी कितना ऊँचा और गदराया हुआ हो गया है। पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियाँ जमा हो गई थी । उन्हें देखा फिर छोड़ दिया। सूखी पत्तियों का क्या काम अब? ऐसे ही बिखर कर खत्म हो जाएंगी। बिल्कुल मेरी तरह। एक लम्बी साँस ली। सोचना नहीं चाहती हूँ कि कल क्या होगा। अपनी जिंदगी की साँसों को गिनना नहीं चाहती लेकिन उन साँसों की जिंदगी देखना चाहती हूँ बस।
अठारह साल की थी तभी शादी हो गई। पति एक प्राइवेट फर्म में थे। देखने में सुंदर और जवान मर्द। उस जमाने में हमसे तो किसी ने पूछा ही नहीं कि हमें क्या चाहिए। कुदरत ने हमे खुशियां ही खुशियां दी। मान सम्मान की कमी नहीं थी। पति तरक्की करते रहे। उनके साथ साथ मै भी प्रमोशन पाती रही। सोचकर मुस्कुराहट छा गई। पहले पार्टी में मैं सबसे पहले आती थी और बाद में जाती थी। पति मात्र मैनेजर जो थे। कहां नहीं घूमा हमने। आगरा, मुरादाबाद, हाथरस, बनारस, कानपुर। जब हम बनारस पहुँचे तो वहां गंगा का किनारा, हनुमान और शिव की भक्ति से ओत प्रोत शहर ने मन मोह लिया। गंगा के किनारे या फिर नाव में बैठकर उसकी लहरों में खेलकर जैसे जीने को एक नई ताकत मिलती थी। बहुत ही चाव से हमने वहां एक प्लाट खरीदा और सोचा बहुत घूमघाम लिए, अब एक पता हमारा भी होना चाहिए। हर तीन-चार साल पर पता बदलता था।
अब प्लाट नं-7, रोड नं-12 हमारा नया पता होगा, पति की गर्वीली आवाज अभी भी मेरे कानों में है। इतने वर्षों के बाद भी। चम्पा के पत्तों को सहलाते हुए उसे उस दिन की याद फिर से आ गई। सीमेंट, बालू, ईटं को जोड़ते हुए पति के बाल सफेद होने लगे। रोज शाम को एक ही चर्चा होती – कितने पैसे और लगेंगे। दोनों बच्चों की फरमाईश थी टाइल्स वाला बाथरूम और शावर। मैं मुस्कुराई। अब पांच सालों में छोटा वाला न्यूयार्क से नहीं आ पाया है उपने टाइल्स वाले बाथरूम को देखने। खैर घर बन गया। बड़े मन से मैंने सजाया। कोई भी नई चीज लाने पर पति की भृकुटि तन जाती जैसे मैंने ताजमहल ही मांग लिया हो। खैर पति की एक बात अच्छी थी। कितनी भी मांग करो, कभी उसका ताना नहीं दिया। उन्होंने शायद कसम खा रखी थी कि उन्हें बस जीतना है। लेकिन फिर हार गए कैंसर से। इस नए घर में आए केवल आठ साल हुए थे कि कैंसर के स्टेज तीन ने उन्हें धर दबोचा और वो मन से हार गए। मैदान में हारा हुआ इंसान फिर जीत सकता है पर मन से हारा इंसान कभी नहीं जीत सकता। उन्हें जैसे वैराग्य हो गया जिंदगी के प्रति। “तुम्हारे प्रति जिम्मेदारी निभा दी है, तुम्हें घर देकर जा रहा हूं। तुम्हें इस पते से कोई अलग नहीं कर सकता” यही बार बार दोहराते रहें। और फिर मैं अकेली हो गई। बच्चे पढ़ने के लिए दिल्ली और बम्बई चले गए थे। उन्हें रोका नहीं मैंने। जिंदगी एक हसीन तोहफा है। उन्हें अपने अकेलेपन से नहीं बांधा मैंने। सच कहूँ तो प्लाट नं-7, रोड नं-12 मेरी पहचान हो गई थी। मैंने थोड़ा बहुत लेडीज क्लब में आना जाना शुरू किया। 12 नंबर वाली के नाम से मेरी पहचान होने लगी। वहां की गतिविधियां थीं तो बहुत हल्के स्तर की लेकिन मैंने पौधे लगाने के कार्यक्रम को अपना लिया। दस बारह साल ऐसे निकल गए। इस बीच दोनों बच्चों की शादियां की। जिंदगी बदलने में समय लगेगा, यही सोचती थी मैं। क्या मालूम था कि आने वाला समय जिंदगी बदल देगा।
तीन घर छोड़कर शर्मा जी के मकान में हादसा क्या हुआ, दोनों बच्चे पीछे पड़ गए कि आपका इतने बड़े घर में अकेले रहना अब ठीक नहीं है। सो ढुल मुल होकर कभी एक, कभी दूसरे के यहां रहने लगी। बीच बीच में यहां भी आती रहती थी। बच्चे मुझ पर हंसते थे कि मां को परिवार नहीं अपना घर ज्यादा पसंद है। बच्चे शायद मेरे लगाव को नहीं समझते थे। कैसे समझते उन्हें अपनी जड़ें जमाने का मौका नहीं मिलता। नौकरी और घर बदलने में माहिर थे दोनों। कभी दिल्ली, कभी पूना, कभी बंगलोर। ये तो अच्छा हुआ कि मोबाईल फोन का जमाना आ गया वरना कितनी डायरियां बदलनी पड़ती पता बदलने के लिए।
अभी पिछले चार महीने से यहां रह रही हूँ । अपना घर, अपना पता, अपनी पहचान। पौधों के कारण मुझे कभी अकेलापन लगा ही नहीं। पौधे ही शायद मेरे बच्चे हो गए। आम, अमरूद, नारियल, सुपारी के पेड़ों की देखभाल में मुझे लगा ही नहीं कि इतना समय बीत गया। पति को गए बाइस साल हो गए थे। मुझे समय का ज्ञान शायद नहीं रहा तभी तो डूबते सूरज को भी उगता मान लिया। मुझे लगा मेरे बच्चे बाकी बच्चों से अलग हैं। मेरी भावनाओं को समझते हैं। मुझे अपनी जमीन से अलग नहीं करेंगे। मैं गलत तो नहीं थी पर अपनी सुविधा को अपना सुख मान बैठी थी। इस घर में मुझे रोक टोक वाला कोई नहीं था, अपनी मन मरजी। क्लब में बहुत महिलाएं मुझे बहुत भाग्यवान समझती थी क्योंकि मेरा अपना ठौर था, समझदार बच्चें थे जिन्हें अपने काम से काम था । और उन्हें घर बेचने की जल्दी नहीं थी वर्ना पड़ोस के तीन चार घर तो बिक गए और वहां फ्लैट बन गए। ज्यादा घर और ज्यादा लोगों वाले।
मैं शायद भूल गई थी कि जिंदगी में जो चाहिए, वही होगा हमेशा नहीं चलता है। इंसान केवल अपने परिवार से हार जाता है। मैं भी हार गई। “आपके अकेले रहने से हमारा दिल यहीं होता है। जमाना ठीक नहीं है। शर्मा अंकल के यहां देखों क्या हुआ।” बच्चों ने बोल बोल कर एक माहौल बना दिया। मैं भी शायद उनकी बातों में आ गई ओर हां कर दिया।
शाम को बगीचे में घूमते हुए मुझे लगा कि कल मेरी यहां आखिरी दिन है। क्या समेटू, क्या छोडूँ । बच्चें ने कहा था कि कोई भी पुराना सामान नहीं जाएगा। वो लाल फ्रिज जो मैंने थोड़े थोड़े पैसे बचाकर खरीदे थे, वो बर्त्तन जो कि बर्त्तन वाली से कपड़ों के बदले में लिए थे, वो कालीन जो कि हम नेपाल से लाए थे- सब कुछ बच्चों ने शांति अम्मा को पकड़ा दिया। शांति अम्मा मेरे साथ पिछले पंद्रह साल से है। आते जाते मेरे सुख दु:ख की साथिन। उसे पता था कि मैं अपने घर को टूटते देख रही हूँ। “मेम साहब, आप फिक्र मत करना। सब सामान वैसे ही रखूँगी जैसे आपने रखा था –प्यार से।” उस पगली को क्या पता था मैं अपने नींव को खोने से डर रही थी। मेरा पता जो कि मेरा वजूद था मेरी पहचान थी, एक झटके में किसी और का होने वाला था।
तीन सूटकेस और एक बैग में मेरा सब कुछ आ गया है। सत्तर साल की कमाई और यादे और संजोया हुआ दिल। पुराने घर से एक डायरी रख ली है जिसमें फोन नम्बर लिखे हैं। यादें हैं और लिखा हुआ है प्लाट नं-7, रोड नं-12। मेरे पति की लिखावट में।
सुबह कब शाम में बदल जाता है बंगलोर में, पता हीं नहीं चलता। बच्चों की अपनी जिंदगी है। मुझे तो उनके पते के बारे में इतना ही मालूम है फ्लैट नं-640। यही प्लाट नं-7 की देन है। लेकिन मुझे मालूम है यह पता भी टिकने वाला नहीं है। वो अक्सर घर बदल लिया करते हैं। घर छोड़ते समय मुझे लगा था कि कोई स्थायी पता मांगेगा तो मैं क्या कहूँगी? बिना पते की चिठ्ठी आती है क्या?
बंगलोर में यह तीसरा घर है उसका। अब तो पता याद ही नहीं रहता। जरूरत भी नहीं है। आधार कार्ड और बैंक खाते खुलवाने के समय स्थायी पता पूछा था। बड़ी लालसा हुई कि लिख दूँ प्लाट नं-7, रोड नं-12। लेकिन अगर उस पते पर कोई चिठ्ठी गई तो डाकिया क्या लिखेगा कि इस पते पर उस नाम का कोई नहीं रहता अब।
डा. अमिता प्रसाद
बैंगलोर, भारत