श्वान
यह एक अलसाई-सी सुबह थी। उधर सुरमई बादलों के पीछे से झाँकता सूरज बाहर आने से कतरा रहा था और इधर मेरा भी रजाई से बाहर निकलने का मन नहीं था। बादलों के पीछे से आती पीली, मंद रोशनी की किरणें नींद को रोकने का असफल प्रयास कर रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे सूरज के साथ मेरी ये साँठ-गाँठ हो– “न तुम बाहर निकलो, न मैं। तुम भी आराम करो और मैं भी।” रजाई में चेहरा छुपाकर मैं अनुनय-विनय करती रही– “थोड़ी देर और छुप जाओ। सुबह की एक मीठी-सी झपकी तुम भी ले लो।”
इस सोने-जागने की, कुछ पलों की जद्दोजहद के बाद, रजाई फेंक कर उठना ही पड़ा। नए घर की खुशबू अभी भी दीवारों में थी। शहर की गहमागहमी से दूर, नया-नवेला घर। पिछवाड़े, दूर-दूर तक कोई बसाहट नहीं थी। था तो केवल छोटा-मोटा जंगल-सा। आसपास के घरों को कुदरती विरासत से जोड़ता हुआ। तंग घाटियाँ, झाड़ों और झाड़ियों के झुरमुटों में, झुंड के झुंड लताएँ और पेड़-पौधे। इतने सघन कि जरा दूर खड़े होकर देखो तो जमीन दिखाई ही न दे।
चारों ओर असंख्य पत्तों की जमात थी। इनके बीच-बीच में तफ़रीह के लिए सँकरी, उबड़-खाबड़ पगडंडियाँ बनी हुई थीं। लंबी सर्दियों के बाद, इन गर्म दिनों में उस ओर जाकर प्रकृति के साथ रहना बहुत भाता। रात में सन्नाटा ज्यादा गहरा जाता इसीलिए मैं सोने से पहले सारे परदे खींच देती थी। उठने के बाद पहला काम यही होता, खिड़कियों से परदे हटाना।
खुलते परदों के साथ, रोशनी की किरणें तेजी से भीतर पसरने लगीं। अभी मेरी मिचमिची आँखें पूरी तरह खुल भी नहीं पाई थीं कि किसी असामान्य-से दृश्य की ओर नजरें अटक गयीं। सामने दालान में कुछ पड़ा था जो धुँधला-सा दिखाई दे रहा था। चश्मा पहनकर देखा तो मेरे होश उड़ गए। बड़ी बिल्ली जैसे आकार का कोई जानवर खूना-खून पड़ा हुआ था। उसका शरीर इस कदर क्षत-विक्षत था कि पता ही नहीं लग रहा था यह कौनसा जानवर है! शहरी इलाके से आए रहवासी के लिए अपने घर के अहाते में ऐसा कुछ देखना अचरज की बात थी।
कभी-कभी जानवर आकर कचरे के डिब्बे को उलट-पलट जाते थे। इसीलिए मुझे यह आभास था कि इक्का-दुक्का जानवरों का बसेरा यहाँ जरूर होगा। शायद वहीं से आकर किसी जानवर ने इसका शिकार किया होगा। बाहर निकल कर, थोड़ा पास जाकर मैंने उसके रक्तिम-रक्तरंजित शरीर को ध्यान से देखा। आँखें बस लाश देख रही थीं, जानवर के नाम के बारे में कोई संकेत नहीं मिल पाया। क्या फर्क पड़ता है कि कुत्ता है, बिल्ली है, रैकून है या फिर खरगोश! किसी भी जानवर की हो, अब तो वह एक लाश थी, बस!
मृतक के शरीर पर खून अभी भी ताज़ा था। अपने चटख लाल रंग के साथ यहाँ-वहाँ छितरा हुआ। जानवरों के इस शिकार को देखकर मुझ जैसे इंसान का मन खट्टा हो जाना था, विचलित हो जाना था, लेकिन मुझे ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ। इसके बजाय मैं सोच रही थी- यहाँ कौन-सा ताकतवर जानवर रहता होगा जिसने अपने इलाके में घुसते ही, इस मासूम का शिकार किया होगा। शिकार किया तो किया, पर मुझसे क्या दुश्मनी थी कि अपना शिकार छोड़कर जाने के लिए उसने मेरे ही घर को चुना! जिसने भी शिकार किया था, शरीर के हर भाग से, हर अंग से थोड़ा-थोड़ा माँस चखकर स्वाद लिया था। ऐसा लगा जैसे शिकारी ने अपने शिकार की मौत का उत्सव मनाया हो। बुफे दावत के हर एक स्टाल से एक-एक चम्मच खाने से पेट भर गया हो और डकार आने पर भरी प्लेट छोड़कर चला गया हो। अब उस शव के आसपास मँडराते छोटे-छोटे कीट-पतंगों की रेलमपेल थी। सारे दावत उड़ाने को बेचैन, भिन-भिन, भिन-भिन कर रहे थे।
बहरहाल, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूँ! इस लाश से किस तरह मुक्ति पाऊँ! एक लहूलुहान शरीर मेरे सामने पड़ा था और मैं उसकी असमय ख़त्म हुई ज़िंदगी पर अफसोस करने के बजाय अपनी ही परेशानी में उलझी थी। अपने मित्र निक से फोन पर बात की। उसने बताया- “यह मरा हुआ जानवर कुत्ता ही होगा। और यह भी तय है कि उसका शिकार भी किसी बलशाली कुत्ते ने ही किया होगा।”
अकसर शाम को चहलकदमी करते हुए कई संभ्रांत घरों के कुत्तों को मैं देखा करती थी। एक से एक, झबरे बालों वाले, कटे-सँवरे महीन बालों वाले, श्याम-श्वेत-तांबई-कत्थई, कई रंगों के इतने सुसज्जित आकार-प्रकार के कुत्ते होते थे कि अनायास ही उन पर नज़रें टिक जातीं। अपने-अपने मालिकों के साथ टहलने निकले ये कुत्ते साथ ही साथ अपनी जरूरी शारीरिक क्रियाओं को अंजाम भी देते चलते। अपने एक हाथ में पट्टा थामे, मालिकों के दूसरे हाथ में एक थैली होती। इधर-उधर, घरों के लॉन में मुँह मारते हुए, कुत्ते का जैसे ही मल विसर्जन होता, तुरंत उस थैली में प्रवेश पा जाता।
मेरी पड़ोसन भी रोज अपने कुत्ते को लेकर बाहर निकलती थी। कभी-कभी मैं उसके रास्ते में पड़ जाती तो प्यार से वह अपने कुत्ते से कहती- “बेबी, आंटी से हलो कहो।” और वह, उसका शेर जैसे आकार का बेबी, मुँह और पूँछ हिलाने लगता। मैं उसकी पीठ सहलाती तो वह मेरे पैरों से लिपटकर प्यार जताने की भरपूर कोशिश करता। कुत्ते की आंटी बनकर मैं शरम से लाल होकर पानी-पानी हो जाती। मूक प्राणी के इस पड़ोसी प्यार पर रीझना मुझे अच्छा लगता।
यूँ तो रास्ते में अलग-अलग मालिकों के कुत्ते उनके साथ पट्टे में बँधे, बेहद शिष्टता से चल रहे होते, लेकिन जैसे ही किसी और मालिक को उसके कुत्ते के साथ आते देखते, तो दूर से ही भौंकने लग जाते। जैसे-जैसे थोड़ा पास आते, कुत्तों की तरह लड़ते हुए, एक दूसरे से भिड़ जाते। उनके मालिक जैसे-तैसे पीछा छुड़ाकर वहाँ से तेजी से दूर निकल जाते। लगभग रोज ही इन लड़ाइयों को मैं देखती थी। सोचती, ये सारे कुत्ते घरों में बच्चों की तरह पले-बढ़े, और लड़ रहे कुत्तों की तरह। अपने-अपने मालिकों के साथ, अपने-अपने रास्तों पर चलते जाने की जगह एक दूसरे को देखते ही भौंक-भौंककर लपकने लगते। इंसानों की बस्ती में रहते हुए भी प्यार से रहना नहीं सीखते। इंसानों ने कुत्तों की तरह लड़ना सीख लिया था लेकिन कुत्ते इंसानों की कोई आदत नहीं ले पाए थे। हालाँकि अपने-अपने घरों में ये सारे शिष्ट श्वान थे, मगर बाहर निकलते ही अपनी औकात पर उतर आते।
खैर, मेरी सोच पुन: लौटकर अपने दालान में आ गयी। जहाँ तक मैं सोचती हूँ, इस मरे हुए जानवर को सद्गति देना चाहिए मुझे। मेरे प्रांगण में इसकी लाश होना, मुझे इसके अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी का अहसास करवा रहा था। ऐसे ही पड़ा रहने दूँ तो! अन्य जानवर अपना पेट भर सकेंगे। टावर ऑफ साइलेंस, मेरी स्मृति में दालान ऑफ साइलेंस बनकर उभर आया। कई काल्पनिक गिद्ध मेरे घर के चारों ओर मँडराने लगे। असंख्य गिद्धों के बीच घिरी मैं, इस ख़याल से तुरंत बाहर आ गई। एक मृत्यु पाए जीव के दाह संस्कार की जिम्मेदारी थी मुझ पर। कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाई। दिन भर इसी सोच में निकल गया कि क्या किया जाए! अरे हाँ, ऐसी स्थिति के लिए नगर प्रशासन के फोन नंबर की एक सूची भी होगी। लेकिन फोन भी सोमवार सुबह ही कर सकती हूँ। आखिरकार कोई तो समाधान मिला। अगली सुबह फोन करने का फैसला लेकर मैं सोने की कोशिश करती रही। रात खौफ़नाक थी, नींद में लाश, खून, गिद्ध सभी मेरे इर्द-गिर्द मँडराते रहे।
यह वह सुबह थी जब जल्दी उठने की बेसब्री थी। काम के लिए तैयार होकर फोन में नंबर डाल ही रही थी कि दालान के उसी भाग पर नजर पड़ी। वह लाश वहाँ नहीं थी। कहाँ गई? मैं हैरान, परेशान हर कोने में उसे ढूँढने लगी। ये कैसे हुआ! वह लाश गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गई थी!
मैंने यह सोचा भी नहीं था कि कुछ ऐसा भी होगा। पिछला पूरा दिन और रात इसी सोच-विचार में निकल गए थे। जब फैसले को अंजाम देने का समय आया तो लाश ही गायब हो गई! राहत की साँस लेने के बजाय मुझे खुद पर तरस आ रहा था। बुद्धिजीवी फैसले समय का ध्यान नहीं रखते। मुझसे तो अच्छा वह जानवर था जो अपना शिकार याद करके वापस ले गया। शिकार को मेरे दालान में छोड़ने के बाद वह रात होने का इंतजार कर रहा होगा और अँधेरा होने के बाद अपने शिकार को कब्जे में लेकर चला गया। मैं उसके इस कौशल पर हैरान थी। दूर-दूर तक कहीं कोई पैरों के निशान, या उस मृत जानवर के खून के निशान दिखाई नहीं दे रहे थे।
विचारों की आपा-धापी में अपने काम पर जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट करने लगी तो सरसराहट के साथ पीछे से कुछ आवाजें सुनाई दीं। अपनी आँखें गड़ाकर देखा, दूर झुरमुट में एक बड़ा-सा कुत्ता अपने खुरों से एक गड्ढा खोदने में व्यस्त था। मैंने देखा, वही शव पास में रखा था। मैं साँस रोके एकटक देखती रही। कुछ ही क्षणों में उसने उस शव को खींचकर उस गड्ढे में डाला और वापस पैरों से मिट्टी धका-धका कर उस गड्ढे को पूरी तरह ढँक दिया। फिर उसके पास ही, अपने मुँह को जमीन पर टिकाकर बैठ गया। शायद यह मृत जानवर, उसका कोई अपना था।
श्वान को इंसान बनते देख मैं अवाक थी!
हंसा दीप
कनाडा