शुरुआत
सारे घर में आज एक बार फिर से खूब चहल-पहल थी। हर कोना बड़े मनोयोग से सजाया जा रहा था। विभिन्न आकृतियों वाले गुब्बारे, रंग बिरंगी बंदनवार , फूल, जिस जिसने जो भी सुझाव दिया था, महक ने हर उस चीज का इस्तेमाल किया था। खासतौर पर बैठक में, जहाँ आज शाम को यह कार्यक्रम रखा गया था। अभी भी कितना काम बाकी है। रसोईघर में बेशक खाना बनाने वाले कुक का इंतजाम कर दिया है बाबू जी ने, पर वह फिर भी कोई लापरवाही नहीं कर रही। हर इंतजाम पर पैनी नज़र रखे हुए है। शाम को चाय के साथ स्नेक्स से लेकर रात के डिनर तक; कहीं भी कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। आखिर आज पूरे पांच साल बाद यह शुभ घड़ी आई है। देवरानी बन कर इसी घर में आई छोटी बहन नव्या की आज गोदभराई की रस्म है। कितने पापड़ बेलने पड़े आज के दिन के लिए..कितना तरसे हैं सब लोग..कोई डाॅक्टर नहीं छोड़ा.. जिसने जैसा कहा, वैसे इलाज करवाए। यहाँ तक कि मंदिर, गुरुद्वारा हर जगह मन्नत मांगी..दादी सास के कहने पर तावीज टोटके तक कर डाले..खैर! अंत भला तो सब भला। अब कोई परेशानी नहीं होगी। भगवान की कृपा से सात महीने अच्छी तरह से निकल गए हैं, तो आगे भी अच्छा ही होगा। काश! आज मम्मी जी भी होती।
“मम्मा! आप यहाँ हो? मैं आपको सारे घर में ढूंढ रहा था। दो बज रहे हैं, खाना तो दे दो, बहुत भूख लगी है।”पीछे से आकर सात वर्षीय तन्मय ने आवाज दी, तो वह एकदम चौंक गई। ध्यान आया कि फटाफट दोपहर का खाना भी निपटाना है, फिर तैयार होकर बाकी कामों में लगना पड़ेगा। पूजा की थाली, रस्म का सारा सामान..बैठक की ओर एक नजर डाली और कदम रसोईघर की ओर चल पड़े। बुआ जी पहले ही डाइनिंग टेबल पर खाना लगाने में व्यस्त थीं।
“अरे आ जाओ महक बिटिया, खाना लगा दिया है, मुझे पता है कि तुम सुबह से लगी हुई हो। नव्या के लिए खाना देवांश ले गया है, दोनों अपने कमरे में ही खा लेंगे। और माँ को भी दे आई हूँ। तुम लोग बैठो, मनहर भाईसाहब और शशांक भी आ रहे हैं।” महक की सारी थकान मानो छू मंतर हो गई, बुआ जी की स्नेहिल आवाज़ से ही..कितना ख्याल रखती हैं सबका। जब भी आती हैं,मम्मी जी से भी बढ़कर इस घर को अपना समझ संभाल लेती हैं। कहने को भागलपुर जैसे छोटे से कस्बे में रहती हैं, पर हर काम बहुत लियाकत से करती हैं। बस किस्मत ने ही हमेशा धोखा दिया है इनको, तभी तो शादी के पंद्रह साल बाद ही फूफा जी छोड़कर चले गए। तब मानव सिर्फ दो साल का ही था, और अब दो साल पहले मानव भी..! सोचते-सोचते ही आंखें भर आईं। किस्मत भी कई बार कितनी निर्ममता दिखाती है।
शाम चार बजे से ही मेहमान इकट्ठा होना शुरू हो गए थे। वैसे तो कोरोना की भयावहता को देखते हुए सिर्फ महक के मायके वाले और कुछ नजदीकी रिश्तेदारों की महिला सदस्याओं को ही आमंत्रित किया गया था, फिर भी ऐसा कोई खुशी का अवसर हो, तो रौनक सी लग जाती है। नव्या को सोलह श्रृंगार कर बैठक में लाकर बिठाया गया था। आने वाली संतान को लेकर खुशी और चिंता के मिले जुले भाव थे उसके चेहरे पर। महक की तो खुशी का वैसे ही ठिकाना नहीं था। बड़े लंबे अरसे से बेताब थी कि कोई नन्हा फ़रिश्ता या परी उसे आकर चाची या मासी से संबोधित करेंगी। हर समय घर में इसे लेकर हास-परिहास भी चलता रहता था। लगभग सभी लोग आ चुके थे और दादी सास के दिशा निर्देश में गोदभराई की रस्म की तैयारी शुरू हो चुकी थी। दादी सास टांगों की कमजोरी की वजह से बेशक छड़ी के बिना नहीं चल पातीं थीं, पर आज भी उनका रौबदाब वैसा ही था।
“महक! बुआ जी नहीं नजर आ रही तुम्हारी? तबीयत तो ठीक है न उनकी?” जब माँ ने पूछा, तो सब चौंक पड़े। अपनी अपनी व्यस्तताओं के बीच किसी को ध्यान ही नहीं रहा कि दोपहर के भोजन के बाद दादी सास के कमरे में आराम करने गई बुआ जी तैयार होकर बैठक में आई ही नहीं।
“मैं देख कर आती हूँ मां! आप जरा यहाँ सामान व्यवस्थित कर रखिए तब तक।” कहते हुए महक लगभग दौड़ती हुई दादी सास के कमरे की तरफ चल दी। पिछली बार की बातों को याद कर मन आशंकित सा हो रहा था। बात सात साल पहले की थी, जब तन्मय उसकी कोख में था और उसकी गोद भराई की तैयारियां चल रही थी। बुआ जी भी बड़े शौक से मानव के साथ पूरे पंद्रह दिन पहले ही पटना आ गईं थीं। कितना चाव था उन्हें कि उनके भतीजे शशांक के घर में नन्हा मेहमान आने वाला है। उसे याद है कि तब दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में वह अपने हाथों से नन्हे नन्हे स्वेटर और मौजे बुनती रहती थीं। मांजी के साथ मिलकर सौंठ के लड्डू और तिल की बर्फी अपने हाथों से तैयार की थी। सब कुछ बिल्कुल सही चल रहा था, पर गोद भराई के दिन सब कुछ गड़बड़ हो गया। जब गोद भराई की रस्म के लिए दादी सास ने सात महिलाओं को आगे आकर महक की गोद में शगुन रखने के लिए बुलाया। बुआ जी भी बड़ी खुशी खुशी उठकर महक के पास आकर खड़ी हो गई थी, तभी दादी सास की गरजती आवाज़ सुन सब सहम गए,” अरी बावरी हो गई हो सपना? क्यों बदशगुनी करने पर उतारू हो? भाई के घर की खुशी का जरा तो ख्याल कर। कोई छोटी बच्ची तो न है अब तू, जो इतना भी नहीं मालूम कि विधवाएं शगुन के कामों में हाथ नहीं लगाती।”
दादी सास के गुस्से के आगे किसी की कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं थी। मांजी ने कुछ बोलना भी चाहा, तो मनहर लाल ने उन्हें इशारे से चुप रहने को बोल दिया। उस दिन तो बुआ जी अपमान का घूंट पीकर रह गई। पर उसके बाद उन्होंने अपने मन को इतना पक्का कर लिया कि शशांक की शादी में भी वह औपचारिक रूप से ही शामिल हुई। फूफा जी के जाने के बाद वैसे भी उनकी दूध की डेयरी के काम को देखने से उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती थी। महक की गोदभराई में भी अपने किसी रिश्तेदार के सिर काम छोड़कर आ पाई थी।तन्मय के पहले जन्मदिन के फंक्शन पर भाई के मिन्नतें करने के बावजूद मानव की पढ़ाई का बहाना लगाकर टाल गईं। हाँ, मांजी के देहांत पर वह अंतिम रस्मों तक पटना रहीं थीं। दोनों ननद भोजाई का रिश्ता सगी बहनों से भी बढ़कर था।
मानव के इंजीनियर बनने के सपने को पूरा करने में ही बुआ जी दिन रात लगी रहती थीं, पर दो साल पहले कालेज के एक ट्रिप पर जा रही उसकी बस की दुर्घटना होने पर..उनकी तो दुनिया ही खत्म हो गई थी। मनहर लाल के बहुत मिन्नतें करने के बावजूद उन्होंने मायके आकर रहना मंजूर नहीं किया। अपनी डेयरी के ही एक वर्कर और उसकी पत्नी को घर पर किराएदार के रूप में रख लिया था। पर इस बार नव्या की गोद भराई की रस्म में शामिल होने के लिए जब शशांक खुद उन्हें लेने जा पहुंचा, तो वह मना ही नहीं कर पाई थीं।
“अरी महक, दरवाजे पर क्यों खड़ी हो? बेटा कुछ चाहिए था क्या?” बुआ जी ने पूछा, तो महक अतीत की दुखद स्मृतियों से बाहर आई।
“नहीं, नहीं बुआ जी, मैं तो आपको बुलाने आई थी। आप आइए, ताकि गोदभराई की रस्म शुरू की जा सके।”
” मैं तो आने ही वाली थी, पर कम्बख्त यह घुटने की दर्द.. वैसे दवा ली है अभी,तुम जाओ मैं थोड़ा ठीक महसूस होते ही आती हूँ। फिर रसोईघर का इंतजाम भी तो देखना है, तुम चलो..” बुआ जी ने कहा तो दिया,पर उनकी पलकों पर आए आँसू कुछ और ही बयां कर रहे थे। महक ने पलंग पर बैठते हुए उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा,” क्या सच में यही बात है बुआ जी? आपको मेरी कसम, झूठ मत कहिएगा।क्या हुआ आखिर? आपकी आंखें तो कुछ और ही कह रही हैं?”
“नहीं, वो मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से इस शुभ कार्य में कोई भी बदशगुनी हो।” भर्राये हुए स्वर में बुआ जी ने कहा, तो शक की और कोई गुंजाइश ही नहीं रही।
“किसने कहा यह सब आपसे? ये सब दकियानूसी बातें हैं। मैं नहीं मानती इन सबको।आप चलिए न..” महक ने साधिकार कहा।
“नहीं,पर हम दूसरों की सोच नहीं बदल सकते। मां तो आज पहले ही हिदायत दे गई हैं मुझे। वैसे भी पति और जवान बेटे को खोने के बाद मैं किसी के भी दर्द की वजह नहीं बनना चाहती महक बेटा।” बुआ जी अब खुद पर संयम न रख सकीं और फफक कर रो पड़ी।
” बुआ जी! दादी जी बेशक समाज की पुरानी परंपराओं के निर्वहन करती हुई लकीर का फ़कीर बनी रहें, पर हम में से किसी को तो इस रूढ़िवादिता की लकीर को मिटाना ही होगा। मांजी उस समय चाहकर भी यह नहीं कर पाई, पर किसी को तो शुरुआत करनी ही होगी बुआ जी, और वह शुरुआत आपकी यह बेटी करेगी। चलिए, चलिए..अब मैं आपकी एक भी नहीं सुनने वाली।”महक ने बाजू पकड़ उठाते हुए कहा।
“हाँ दीदी! आपको नहीं पता, यह महक कितनी जिद्दी है। उठ जाइए, नहीं तो जबरदस्ती खींच कर ले जाएगी, और फिर आपके घुटने का तो भगवान ही मालिक!” अंदर आते हुए मनहर लाल जी ने ऐसे मुंह बनाकर कहा कि उनके पीछे आ खड़े हुए परिवार के बाकी सब सदस्य भी ठहाका लगा कर हँस पड़े।
सीमा भाटिया
लुधियाना, भारत