अंकुरण
रिंगटोन के बजते ही फोन के स्क्रीन पर अल्फाबेट के जिन सदस्यों ने एक परिचित नाम को उकेरा, वैसे ही भय और उत्साह दोनों की ही बेमेल संगति ने हृदय के धड़कने की गति को मानो बेलगाम कर दिया। मेरी आशंकाओं के विरुद्ध फोन के दूसरी तरफ आश्वस्तिपूर्ण ध्वनितरंगें पृथ्क ही व्योम रच रही थीं– “नेहाजी, हमारा मिशन सफल रहा। शुरू में दिक्कत तो आई , परंतु शीघ्र ही सब कुछ सामान्य होने लगा। सारे तर्कों, उलाहनों , शिकायतों, आक्षेपों- विषाद के इन सारे गाढ़े रंगों पर अंततः अपनत्व, प्यार, स्वीकृति का उज्जवल प्रकाश फैल कर जम गया । प्याली अब अपने घर पर पूरी तरह सुरक्षित है,ईश्वर करे जल्द स्वस्थ हो जाए।” अंदर कुछ नम- सा हुआ जा रहा था, कोई सैलाब जैसे डुबोना चाह रहा हो मेरे अंतर्मन के तटों को ।विपरीत दिशा की निश्चिंतता के बीच कुलबुलाता प्रश्न मेरे अधरों से गुजरकर उस ओर पहुँच ही गया-“आगे भी सब कुछ ठीक रहेगा?उसकी मानसिक अवस्था और—-“। प्रश्न भी पूरा न कर पाई मैं, जैसे मानो ब्रह्मांड से डर रही हूँ कि मेरे मुँह से निकले नकारात्मक शब्द उस बेचारी के जीवन में नकारात्मक उर्जा को व्याप्त न कर दें । परंतु फोन के दूसरी तरफ श्रीमती पाटिल की आवाज फिर से मधुरता का संचार कर रही थी -“सब कुछ अच्छा होगा । प्याली के परिवार वालों को तो मानो खोई निधि मिल गई है। माँ तो बस एकटक उसे देखते जड़ – सी हो गई, निःशब्द। शब्द तो क्या मानो अश्रु भी उसके गले के मध्य अटककर रह गये हों।प्याली भी उन्हें थोड़ा -बहुत तो पहचान रही ही थी क्योंकि उसका कोई भी व्यवहार उन सभी के प्रति उग्र या असंगत नहीं था।हमने भी उसकी माँ और बहनों को आवश्यक हिदायतें दे दी हैं,पूरी काउंसलिंग करके ही लौट रही हूं।”
एक दीर्घ निःश्वास स्मृतियों को पीछे की ओर खींचकर विगत के आगोश में डाल गया। मूँदी हुई पलकें और सबकुछ मानो सामने——
ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार से पटरी पर दौड़ी चली जा रही थी,सभी यात्री मशगूल।सामने दो युवतियाँ और उनकी माएँ मोबाइल पर लूडो खेलने में आनंदमग्न थीं।बगल के कंपार्टमेंट में एक किशोर अपनी सहोदरा और दूसरी समवयस्क सहयात्री के साथ गिटार के तारों को छेड़ते हुए नए गीतों के स्वरों के उतार- चढ़ाव से वातावरण को लयबद्ध कर रहा था । परंतु पृथक रुचि का स्वामी मेरा हृदय,संगीत प्रेमी होने के बावजूद उन स्वर लहरियों से आबद्ध न हो पाया था। अपने स्वप्रेम में केंद्रित मैं प्रकृति से मौन संभाषण में लगी हुई थी । द्वय चक्षु दृष्टिभ्रम से उत्पन्न चलाएमान दृश्यों को ज्यों अपने कोटरो में बंद कर लेना चाहते थें।यह अवलोकन निस्पृह मानस को वितरागी कर रहा था ।तभी एक मधुर स्वरलहरी श्रवण तंत्रिकाओं से आकर टकरा उठी।सुनना बड़ा सुखद लगा ।मन को मिला सुख दृगों में उत्सुकता की तरंगों को जन्म देने लगा-कौन है? किसकी इतनी मधुर , सुरीली सी आवाज है ? लिपि की मौखिक गंध मैं पहचान रही थी-भाषा शुद्ध रूप में बांग्ला थी। सार्वजनिक स्थान की शिष्टता का पालन करते हुए लोग भला कहां ऐसे गाते हैं ट्रेन में ?ऐसे ही दो – चार प्रश्नों से उलझी हुई मैं , अपनी जगह बदलकर ,आई तटस्थता को थोड़ा तोड़ना चाह रही थी कि दूसरे कंपार्टमेंट में ऊपर वाली सीट पर नजर चली गई।
एक स्त्री मलीन कपड़ों में, छोटे-छोटे बाल, कंबल लपेटे अन्य यात्रियों से थोड़ी अलहदा सी दिख रही थी। एक पल की दृष्टि ने ही इतना तो ग्रहण कर लिया कि वहां कुछ असामान्य तो है। थोड़ी देर बाद वह महिला एक अन्य महिला के साथ शौचालय की ओर जाती दिखीं। मन के पास अब तो और भी प्रश्न थें-कौन है यह, किन लोगों के साथ है, कहां जा रही है, सुरक्षित तो है न? इस उथल पुथल के मध्य वह ‘ अन्य ‘ महिला एक लघु स्मित के साथ पास से गुजर गईं – पौरुषिक वेशभूषा, दृढ़ व्यक्तित्व की आभा से युक्त। तीन लोगों का समूह था इनका जिसमें एक पुरुष सदस्य की भी उपस्थिति थी।
भारतीय रेलवे से बढ़िया समाजशास्त्र का अध्याय कोई हो ही नहीं सकता। कुछ किलोमीटरों और घंटों का सान्निध्य-धीरे धीरे सबके एकांतिक व्यक्तित्व के घेरे को तोड़ने लगता है; चर्चा- परिचर्चाएं,सहयोग, मुस्कान —कितने ही रंग बिखरने लगते हैं। इन्हीं रंगों के बीच ज्ञात हुआ कि वह महिला गुमशुदावस्था में उदयपुर के एक एनजीओ को मिली थी, जिसने उदयपुर पुलिस से संपर्क स्थापित कर, उसके घर वालों की पहचान कर, सकुशल घर वापसी की उसकी व्यवस्था की है। जितनी छोटी पंक्तियों में समेटकर यह प्रक्रिया मैं लिख रही हूँ , वास्तव में इतनी छोटी यह प्रक्रिया है नहीं—समझा जा सकता है।पुलिस वालों के साथ-साथ उस विशिष्ट एनजीओ के दिन-रात का परिश्रम और उससे भी ज्यादा उनका अनुसंधान- इस घर वापसी को एक निश्चित दिशा दे पा रहा था।
मेरे सामने राजस्थान पुलिस के दो हेड कांस्टेबल बैठे हुए थें-एक महिला और एक पुरुष , दोनों ही सिविल ड्रेस में। बड़े ही समर्पित भाव से दिमागी रूप से विक्षिप्त उस महिला की देखरेख कर रहे थें। कथा बड़ी ही कारुणिक निकली-नवीन स्वपनों और श्रम की तलाश में निकली यह युवती मुंबई में सामूहिक शारीरिक दुराचार का शिकार होती है,यंत्रणा झेलने के बाद वह उदयपुर की ओर भागती है,वहां भी एक ऑटो वाले के द्वारा दुराचार किए जाने का प्रयत्न करने पर उसके सिर पर पत्थर मार कर उसके सारे कागजात लेकर भाग खड़ी होती है ।अपने गांव पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर,जो खड़गपुर से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है ,से मुंबई और उसके बाद उदयपुर तक की यात्रा में शारीरिक यंत्रणाओं का शिकार होते-होते अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है।
मेरे द्वारा बातचीत का प्रयास किए जाने पर प्याली मुझसे कहती है -” आमार नाम गीतिलता , तुमार नाम कि?”मेरे गले में पड़े सोने की चेन को देखकर वह मुझसे मांगने लगती है अपने लिए —बातचीत की शैली, उच्चारण का आरोह – अवरोह ही उसके मानसिक रुग्णावस्था का बोध करा देते हैं।
सच कहूँ तो ऐसी कितनी पृष्ठभूमि हमारे बॉलीवुड की घिसी -पिटी फिल्मों की कहानियों में दिखती है ——जिनसे उत्पन्न होने वाली ऊब इन कहानियों की समाप्ति के पहले ही मुझ तक आ जाया करती थीं लेकिन अभी तो समक्ष वास्तविकता बिखरी पड़ी है , निरीह मनोरचना नहीं।
स्त्री शरीर अपनी ही सीमाओं में इस तरह आबद्ध है कि पीड़ा की मरूभूमि उसे अपने अंदर दबा लेना चाहती है—बहुत करीब से इसे पहली बार महसूस किया। प्याली के साथ ड्यूटी पर तैनात महिलाकर्मी , श्रीमती आभादेव पाटिल के पास अनेकों अनुभव हैं, जिसे सुनना ह्रदय को गर्त में ले जाता रहा। सुन रही हूँ एक अन्य आप्लावित करती कथा -सत्रह वर्षीय युवती,अपने पहले विवाह से विधवा हो जाने के बाद दूसरे विवाह में पति द्वारा शारीरिक यातना पाकर घर छोड़ने का निर्णय ले लेती है,रास्ते में अपने ही चचेरे अनुज के द्वारा सहारा दिए जाने की बात कही जाती है लेकिन वही अनुज उसे ले जाकर मात्र ₹60000 में बेच देता है। यह दुर्भाग्यमयी भी मानसिक स्वास्थ्य खोकर दीवानगी की हालत में है। बतौर महिला पुलिसकर्मी, अब उसके साथ कोई कुछ भी करें,उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। सुन रही हूँ— यथार्थ के धरातल पर लिखी गई कहानियाँ—कभी छल से,कभी बेबस कर,कभी मजबूरी का फायदा उठाकर —कहानियां जो मथ देती हैं हृदय के वेदना आवेग को,जैसे रुधिर जम रहा हो शिराओं में।
स्त्री हूं मैं , कैसे न आकंठ डूब जाऊँ इस दर्द के गह्वर में ।जो कहानियाँ फिल्मी लगती थीं, वे अपने नग्न और भयावह रूप में सामने पसरी हैं ।स्त्री शरीर की कीमत तय होती है बाजारों में और इस बाजार में पुरुष ही नहीं खुद स्त्रियाँ भी संलिप्त हैं। शोषण ऐसा, कि —“अब मुझको तो दीवाना कर दे, जिंदगी , ऐ जिंदगी ।”
घरेलू हिंसा और मानसिक असंतुष्टि, कार्यालयी मैला, समाज का लिंग विशेष के प्रति दोहरापन , शारीरिक शोषण—— के घने अंधियारों के बीच स्त्री शरीर के क्रय- विक्रय की पंकीली नहीं अपितु दलदली भूमिवाला बियाबान टापू, जहाँ प्राणवायु भी अपने कितने अल्प प्रतिशत में उपलब्ध है पता नहीं, की उपस्थिति की कल्पना मात्र ही आत्मा को सिहरा दे रही है। हिय के अन्तर्नाद में प्रश्नों की झड़ी लगी हुई है – नारी, कई बार तेरा परिचय सिर्फ तेरी काया ही क्यों है? तेरा शरीर तेरे लिए ही अजाब क्यों है? नारीवादी आंदोलनों के झंडे सशक्तिकरण की परिभाषा को क्या इन प्रश्नों के उत्तर में ढूंढ पायेंगे?
डूबती उतराती मन:स्थिति के बीच द्वय योद्धाओं की,योद्धा ही कहूंगी,उनके असीम साहस और कल्याण की भावना ने मेरी दृष्टि में लिंग भेद खत्म कर दिया है उनके बीच ।पुरुषकर्मी श्री निवास पाटेकर ने बताया कि लॉकडाउन के गत दो सालों में वह कम से कम बीस राज्यों की यात्रा कर चुके हैं, गुमशुदा लोगों को उनके घर तक पहुँचाने के क्रम में। सभी कर्मी इस ड्यूटी को लेना भी नहीं चाहते क्योंकि घर छोड़कर यात्राएँ करनी पड़ती हैं और कई बार तो टिकट भी ढंग की बोगियों में प्राप्त होने की बात कौन करे, आरक्षित सीट तक नहीं मिलती –और अगर पीड़ित मानसिक रूप से बीमार हो,तो उसको उसके गंतव्य तक पहुँचाना कितना दुष्कर होगा , यह महज कल्पना करके भी समझा जा सकता है।
हमारी बॉगी में पीड़िता थी, वह भी बार-बार बीड़ी पीने की मांग करती थी।चलती ट्रेन में उसकी इस माँग को कभी पूरा करना और कभी उसे बहला-फुसलाकर रखना, तेज आवाज में उसके धाराप्रवाह बोलते जाने या गीत गाने पर यात्रियों की सुविधा को ध्यान रखते हुए उसे संयमित करना—-इतना सहज नहीं था। पर सब कुछ मैंने उन्हें धीरज और स्नेह से संभालते हुए पाया था। पुलिस की भ्रष्टाचार से ओतप्रोत पूर्वाग्रही छवि के विपरीत इस छवि को दिल से नमन करने की इच्छा हुई थी तब। अथाह फैले समुद्र के गहरे तूफानों के बीच ये दोनों लाइट हाउस की तरह काम कर रहे हैं।
सचमुच जीवन तू श्वेत और श्याम दोनों है—पता नहीं क्यों , यह सब सोचते -सोचते नयनों के कोरों की माटी गीली हो गई। उम्मीद के अंकुरण को सिक्त मृतिका में ही जीवन पाना था ।
रीता रानी
झारखंड,भारत।