धीरे धीरे रे मना

धीरे धीरे रे मना

“अरे चुन्नू ! क्या सारा दिन खेलते रहोगे। आज तो सूरज उगते ही अपना क्रिकेट बल्ला सम्भाल लिया। पता है, बारह माही परीक्षा सर पर आ गई है।पढ़ाई के लिए स्कूल ने तुम्हें छुट्टी दे रखी है।और मैं भी तुम्हारे लिए घर पर हूँ, ऑफिस से छुट्टी लेकर। छः माही का रिज़ल्ट देखकर पापा ने कितनी डाँट लगाई थी, याद है न। चलो जल्दी से पढ़ने बैठो।”

चुन्नू मुँह बनाते हुए बोला, “क्या मम्मा ! आपको हर वक़्त पढ़ाई की लगी रहती है। स्कूल में सारे सर मैडम लोग मेरी तारीफ़ करते हैं। हर कॉम्पिटिशन में भाग लेता हूँ। डिबेट में तो मुझसे कोई मुकाबला नहीं कर सकता है। हाँ मेरा नं क्लास में पहले तीन में नहीं आता है। लेकिन ऑल राउंडर का खिताब मुझे ही मिलता है। और हाँ, भूल ही गया। इस बार तो मैं मोस्ट कोआपरेटिव्ह ब्वाय बनने वाला हूँ।”

“हाँ बेटा, मानती हूँ लेकिन तुम्हें पढ़ाई में भी अव्वल आना है।” धैर्या ने बेटे को अल्टीमेटम ही दे दिया।

इधर कामवाली सरयू को भी आज ही छुट्टी मारनी थी। अभी तक तो आई नही है महारानी। यही सोचते हुए धैर्या फटाफट नाश्ते के लिए पोहे धोकर प्याज़ काटने बैठ जाती है। वह सोचती है… चुन्नू को पोहे खिलाकर पढ़ने बिठा देगी। फ़िर अम्मा भी खाली पेट दवाई कैसे लेंगी ? अच्छा हुआ कि पति समय नाश्ता अपने क्लाइंट के साथ बैंक में ही लेंगे। वरना उनके नखरे उठाने में धैर्या को नानी ही याद आ जाती है। उलाहने सुनने की अब आदत ही हो गई है, “अरे डार्लिंग ! पोहे के साथ थोड़ा हलवा भी बना लेती। अम्मा को भी पोपले मुँह से खाने में आसानी होती है।”

अपने विचारों में खोई धैर्या की आँखों से प्याज काटने से पानी बहने लगा था। चुन्नू का रिपोर्ट कार्ड बार-बार आँखों के सामने आ रहा था।

तभी अम्मा भी पूजा समाप्त करके बहू को प्रसाद देने आ गई। लाल हुई आँखों से झरते पानी में मिले बहू के आँसू अम्मा को सोचने पर मजबूर कर देते हैं… उन्होने भी तीन-तीन बच्चों को पाला था कभी। आज उनकी दोनों बेटियाँ सुघढ़ता से गृहस्थी चलाते हुए नौकरी भी कर रही हैं। और बेटा समय भी अपने कर्तव्य निभा रहा है। बैंक में कैशियर है। हाँ, बच्चों की परवरिश के मामले में हुबहू अपने पिता पर गया है। वे अपने काम में ही व्यस्त रहते थे। बच्चों की शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी पत्नी को जो सौप रखी थी। हाँ, कभी-कभी कठिनाइयाँ अवश्य हल कर देते थे। अम्मा ने स्वयं कभी नौकरी नहीं की थी। इस चक्कर में वे कभी पड़ी ही नहीं। अपने जमाने में वे तीनों बच्चों को नियमित अभ्यास करने बिठा देती थी। ख़ुद तरकारी भाजी साफ़ करते हुए उनकी कॉपियाँ भी देखती जाती। और फ़िर तीनों अपनी मस्ती में खेलते-कूदते रहते थे। बड़ी कक्षाओं में बच्चे कोचिंग के लिए जाने लगे।

तभी धैर्या ने नाश्ते के लिए आवाज़ लगाई। डायनिंग टेबल पर करेले देखकर अम्मा जी ने मौके पर चौका लगाया, “बिटिया ! तेज़ आँच पर तो सब्जी जल ही जाती है। भरवाँ करेलों को तो धीमी आँच पर सिझाना होता है न। तभी उनकी कड़वाहट जाती है। ऐसे ही बच्चे के साथ भी इतनी जल्दबाज़ी व सख़्ती नहीं करना चाहिए। बच्चे को थोड़ा प्यार से समझाओ। शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए खेल-कूद भी आवश्यक हैं, यह तुम भली भाँति जानती हो।”

धैर्या का धीरज भी जवाब देने लगता है। आख़िर वह करे तो क्या करे ? ख़ुद की नौकरी, घर की जिम्मेदारियाँ और सबसे अहम चुन्नू का भविष्य। उसके दिल का गुबार आँसू के रूप में बहने लगा। वह रुआँसी हो बोली, “माँ ! आप ही बताओ मैं अकेली क्या- क्या करूँ ? आपके बेटे को बैंक व टीवी से फ़ुर्सत नहीं। ”

इधर चुन्नू के पोहे ठंडे होते देखकर धैर्या बाहर जाकर चुन्नू को पकड़कर ले आई।

पोहा देखकर चुन्नू मुँह बिगाड़कर बोला, “मम्मा ! आज तो आप मसाला डोसा बनाने वाली थी ना। मेरे दोस्त टिंकू के तो मजे हैं। जो खाना हो पार्सल मँगवा लेता है। उसकी डॉक्टर ममा को फुर्सत कहाँ ? ”

धैर्या का चाँटा लगाने के लिए उठा हाथ अम्मा जी की हिदायतें याद आते ही रुक जाता है, “चुन्नू बेटा ! ज़िद नहीं करते। तुमको याद है न कि टिंकू महीने में कितनी बार बीमार पड़ता है।”

पोहा वैसे ही छोड़कर चुन्नू बिस्तर पर जाकर लिहाफ़ में जा दुबका।

धैर्या ने सोचा कि अब क्या रात का खाना ही होगा। समय तो बैंक के केंटीन में ही लंच लेते हैं। अम्माजी का दलिया भी बना हुआ है। वो ख़ुद भी बचा हुआ दलिया खा लेगी। चुन्नू महाराज जो कहेंगे, वही बना कर देना होगा। परीक्षा के दिनों में बेटे के सारे नखरे उठाना ही ठीक है। यह सब सोचते हुए रसोई में जाकर अभी-अभी आई सरजू को रात के लिए समय के पसन्द की पंचमेल दाल व करेले तथा चुन्नू के लिए आलू पराठे का मसाला बनाने का कहती है। फ़िर चुन्नू के पास लौट जाती है। दिमाग़ में चल रहा बवंडर तो झपकी भी नहीं लेने देता। फ़िर भी आँखें बंद करके थोड़ा सोने का प्रयास करने लगी।

समय भी आज जल्दी ही आ गए। अम्मा इशारे से चुप रहने का कहकर चाय बनाकर ले आई, ” बेटा ! तुझसे कुछ मशविरा करना था।”

समय ने लापरवाही जताई , “आज फ़िर चुन्नू ने कुछ किया क्या ?”

“देख समय ! तुझे याद होगा, तुम तीनों भाई बहनों को पढ़ने के लिए मैं ही बिठाती थी। मेरे पास वक़्त भी होता था। किन्तु तुम लोगों की किसी भी विषय की समस्या तुम्हारे पापा ही देखते थे। बहू भी नौकरी करती है। तुम्हें भी चुन्नू को देखना होगा। पिता का भी कुछ दायित्व बनता है बच्चे के लिए। अकेली माँ भी क्या-क्या करे ? हर इंसान मेहनत अपने बच्चे के भविष्य के लिए लिए करता है। गणित व विज्ञान के तो तुम पंडित हो। बेटे को शुरू से आधारभूत फंडे व फार्मूले समझाओ। नींव मज़बूत होगी तो आगे का ढाँचा भी बेमिसाल होगा। इससे बच्चे की रुचियाँ आदि भी जान पाओगे। अरे ! टीवी छोड़कर बाप बेटे देश विदेश की बातें करो। बाकी के विषय धैर्या देख लेगी। इस तरह उसे भी सहारा मिलेगा।”

“वो तो सब ठीक है माँ। लेकिन उसकी ट्यूशन मेम भी तो आती है। फ़िर धैर्या भी है। घर के कामों के लिए सरयू जो है। ”

” फ़िर भी बेटा… तुम्हें टी वी व मोबाइल का मोह छोड़ना होगा। एक बार गाड़ी पटरी पर आ गई तो ख़ुद ब ख़ुद दौड़ने लगेगी।”

धैर्या को किचन की ओर जाते हुए देखकर समय बात पलटता है,”हाँ माँ, मेरा प्रमोशन भी होने वाला है। इसीलिए ज़रा ज़्यादा ही बिजी रहता हूँ।”

माँ किचन में जाकर बहू को दिलासा देने का प्रयास करती है, “बेटी ! अब समय भी चुन्नू की पढ़ाई आदि देखेगा। तुम ख़ुश रहा करो। इस तरह मन ही मन कुढ़ना तुम्हारे स्वास्थ्य व समय के साथ तुम्हारे रिश्ते को भी प्रभावित करता है। तुम ख़ुद भी नौकरी करके इस घर की पूरी जिम्मेदारियाँ निभाती हो।”

“अम्मा!यह तो मेरा कर्तव्य है।और एक बात बताऊँ आपको। मेरी बचपन में महत्वाकांक्षा थी कि मैं आई ए एस अधिकारी बनूँ। किन्तु मेरे भाग्य में शायद यह नहीं लिखा था।अब मैं जो स्वयं नहीं बन पाई,अपने बेटे को बनाना चाहती हूँ ? मेरा यह सपना है माँ। और आपके साथ के बगैर यह सम्भव नहीं होगा।” धैर्या अपने मन की बात छुपा नहीं पाई।

“हुँ उ ऊ, तो मेरी बेटी इसीलिए अपने चुन्नु के पीछे लगी रहती है।देखो तुम पूरे वक़्त उसे पढाई करने को कहती हो। पर चुन्नू को पहले कोई ड्रॉईंग बनानी होती है। कभी वह कोर्स के अलावा अन्य कोई किताब पढ़ना चाहता है। और हाँ ऐसे में उसकी दिलचस्पी देखने लायक होती है। बेहतर है उसे अपने मन का भी करने दिया करो। बच्चे को मात्र किताबी कीड़ा ही नहीं बनाना है। उसे एक अच्छा इंसान भी बनाना है। वह भी बनेगा बड़ा आदमी।लेकिन अपने सपने उस मासूम पर थोपो नहीं। लिटिल मास्टर सचिन के नाम कोई ऊँची डिग्रियाँ नहीं हैं। बच्चे, फूल की तरह होते हैं। उन्हें अपने आप खिलने दो। ये ज़रा में कुम्हला जाते हैं। दही जमाते हैं न तो बार-बार हिलाते नहीं हैं। ये तुम अच्छे से जानती हो। और दही जमने पर भी फ़्रिज में सहेज कर रख देते हैं ताकि खट्टा ना हो पाए। बच्चे के मामले में क्या कहते हैं लवफुल…।”

“हाँ अम्मा!खूब जानती हूँ बच्चों के साथ लाफुल होने के साथ लवफुल भी होना होगा।और खासकर आपके पोते चुन्नू के लिए। आपकी यह बात भी सही है कि पढ़ाई के साथ बच्चे का खेलना भी ज़रूरी है।मेरी गैर-मौजूदगी में आप चुन्नू को बड़े मजे से दाल चावल सब्जी चपाती कैसे खिला देती हैं ?”

धैर्या हँसते हुए चुन्नू को मनाने जाती है, “बच्चे ! चलो उठो अब, दादी के साथ पार्क नहीं जाना है क्या ?”

सरला मेहता
इंदौर, भारत

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