” मुर्दा खामोशी “
तेरे जग में भीड़ बहुत है
आगे बढ़ने की होड़ बहुत है
मंज़िल की मुर्दा खामोशी
रस्तों का पर शोर बहुत है
ख़्वाबों के साये को थामे
जीने की घुड़दौड़ बहुत है
बुत से दिखते चलते फिरते
मरे हुओं की फ़ौज बहुत है
पीठों में खंजर…भोंकते
प्यार जताते यार बहुत है
झूठ की इज्ज़त शान बढ़ाते
सच्चाई की हार बहुत है
अंबर को छूने की कोशिश
धरती पर लाचार बहुत हैं
मानवता की जात बताते
मजहब के व्यापार बहुत हैं
लेखकों की भीड़ में गुम
पाठकों की माँग बहुत है
सहरा में दो बूँदे ढूँढ़े
सागर की ये प्यास बहुत है
हरित आभा धरती का छीने
बस्ती के विस्तार बहुत हैं
मोहब्बत के इक ठौर को तरसे
नफ़रत के आधार बहुत हैं
तनहाई से अपने लड़ते
तेरे जग में भीड़ बहुत है
डॉ रेनू मिश्रा
पूर्व व्याख्याता एवं कवियत्री
गुडगांव