श्रद्धांजलि

महान लोक-शिक्षक ……स्वामी विवेकानंद !!

नव भारत का उदय होने दो। उसका उदय हल चलानेवाले किसानों की कुटिया से, मछुए, मोचियों और मेहतरों की झोपड़ियों से हो, बनिये की दुकान से, रोटी बेचने वाले की भट्ठी के पास से प्रकट हो। कारखानों, हाटों और बाजारों से वह निकले। वह नव भारत अमराइयों और जंगलों से, पहाड़ों और पर्वतों से प्रकट हो . .।

विवेकानन्द, इस प्रकार, नव भारत का उदय चाहते थे। भारत का वह सर्वतोमुखी विकास चाहते थे और उसके लिए राष्ट्र की शक्ति, सच्ची शक्ति उसकी महान जनता को वे शामिल करना चाहते थे। भारत को दुखी, पीड़ित, शासित, भूखी और अज्ञान पीड़ित जनता का देखकर विवेकानन्द का अंतस चीत्कार कर उठा। जबतक करोड़ों मनुष्य भूख और अज्ञान में जीवन बिता रहे हैं तबतक मैं उस प्रत्येक मनुष्य को देशद्रोही मानता है, जो उनके व्यय से शिक्षित हुआ है और अब उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता। विवेकानन्द जन समुदाय की ऐसी अवहेलना को महान राष्ट्रीय पाप और अपराध मानते थे। और, इसके लिए उन्होने उस तथा-कथित मान्य कहे जाने वाले मुट्ठी भर लोगों के वर्ग को दोषी ठहराया, जिस वर्ग ने शेष समुदाय का रक्त-शोषण किया है। उन्होंने स्पष्टतः कहा भारतवर्ष के सत्यानाश का मूल कारण यह है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दया केवल मुट्ठी भर लोगों के अधिकार में रखी गई है। उनके अनुसार यदि हम पुनः उन्नत होना चाहते हैं, तो जनसमूह में शिक्षा का प्रचार करके ही वैसे हो सकते हैं। इस प्रकार, विवेकानन्द ने जन शिक्षा के महत्व पर सर्वाधिक बल दिया और राष्ट्र की समुन्नति के लिए लोक शिक्षण को आवश्यक बताया।

विवेकानन्द भारत वर्ष के उन महान संतों, दार्शनिकों शिक्षा-शास्त्रियों तथा लोक शिक्षकों में हैं, जिन्होंने देश की परिस्थितियों को प्रत्यक्ष रूप में देखने का प्रयास किया है। विवेकानन्द एक संन्यासी की हैसियत से भारत के गांव-गांव और नगर-नगर में घूम-घूम कर सामान्य लोगों के जन-जीवन से अपने को एकाकार करते रहे और दुःख-कष्ट झेलते हुए उन्होंने लोगों की दुःख दारिद्रपूर्ण विषम परिस्थितियों को अनुभव किया। इस प्रकार क्रांतिकारी लोक-शिक्षक की भूमिका का निर्वाह करते हुए उन्होंने लोगों को विषम परिस्थितियों से जूझने के लिए तैयार करने की हर अंतिम कोशिश की। उन्होंने लोगों में चेतना की ध्वनि जागृत की और कर्मक्षेत्र में उतर आने की शंख ध्वनि दी। अपने संन्यासी कार्यकर्ताओं को इसके लिए उन्होंने निरन्तर सचेष्ट किया और उन्हें यह स्मरण दिलाते हुए कि हमारा राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है, उन्हें अपने कर्तव्य का भी बोध कराया। उनका उद्बोधन था, वर्तमान समय में तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाओ और गांव-गांव जाकर लोगों को समझाओ  के कि अब आलस के साथ केवल बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। जाओ और उन्हें अपनी अवस्था सुधारने की सलाह दो और शास्त्रों की बातों को विशुद्ध रूप से सरलता-पूर्वक समझाते हुए उदात्त सत्य का ज्ञान कराओ। इस प्रकार, लोक शिक्षक विवेकानन्द समाज की प्रयोगशाला में समाजशास्त्री वैज्ञानिक की तरह समाज के सत्य का निरन्तर प्रयोग करते रहे।
विवेकानन्द भारत के आदर्श के अनुरूप भारत के जन-साधारण को बिना किसी भेदभाव के ऊपर उठाना चाहते थे, उनमें आत्म-पौरुष और आत्म-विश्वास को जागृत करना चाहत थे। इसलिए उन्होंने लोक शिक्षण के माध्यम से लोगों को जगाने का व्रत लिया। शिक्षा के प्रति सबों को समान अवसर प्राप्त हो, ऐसी उनकी मान्यता थी। उनके अनुसार समाज के सभा व्यक्तियों को धन, विद्या और ज्ञान का उपार्जन करने के लिए एक समान अवसर मिलना चाहिए। उनका यह दृढ़ मत था कि राष्ट्र उसी मात्रा में प्रगति करता है, जिस मात्रा में जन-साधारण में शिक्षा तथा योग्यता का विकास होता है। और समाज उत्थान के लिए यही एक मात्र विकल्प है। विवेकानन्द ने स्पष्टतः यह स्वीकार किया हम कितनी ही राजनीति बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ न होगा, जबतक कि भारतवर्ष का जन-समुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपालित नहीं होता . . . । और इस प्रकार, विवेकानन्द शिक्षा के माध्यम से जनता जनार्दन तक पहुंचना चाहते थे। उनका यह स्पष्ट मत था कि शिक्षा को प्रत्येक के पास पहुंचना है और भारत की हर इकाई को शिक्षित होना है। इस संदर्भ में विवेकानन्द का अभिमत उल्लेख्य है। उन्होंने कहा शिक्षा स्वयं दरवाजे-दरवाजे क्यों न जाये यदि खेतिहर का लड़का शिक्षा तक नहीं पहुंच पाता, तो उससे हल के पास या कारखाने में अथवा जहां भी हो, वही क्यों न भेंट की जाये। जाओ, उसी के साथ उसकी परछाई के समान भारतीय जन-जीवन के परिप्रेक्ष्य जन-शिक्षा के संबंध में विवेकानन्द का यह क्रांतिमूलक व्यावहारिक दृष्टिकोण है और यह स्पष्टतः स्वीकार किया जायगा कि विवेकानन्द एक मात्र भारतीय शिक्षा दार्शनिक हैं, जिन्होंने जन-शिक्षा के सम्बन्ध में एक स्पष्ट विचार प्रस्तुत किया, जिससे वर्तमान शिक्षा-पद्धति के कई आयाम प्रभावित भी हुए हैं। आवश्यकता है, विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित जन-शिक्षा की योजना को अनुकूल अवसर प्रदान कर कार्यान्वित करने की।
विवेकानन्द जन-साधारण की शिक्षा के लिए औपचारिक शिक्षा-संस्थाओं की आवश्यकता नहीं महसूस करते थे, क्योंकि लोक-शिक्षा, शिक्षा की सर्वांगपूर्ण जीवन-धारा है जो प्रतिक्षण प्रवाहित है। एतदर्थ, ऐसे बालकों, वयस्कों, प्रौढ़ों के लिए, जो जीविका-सम्बद्ध उत्पादक कार्यों में लगे रहते हैं, विवेकानन्द ने संध्याकालीन शिक्षण का व्यावहारिक प्रस्ताव रखा है। परन्तु, इस प्रकार का शिक्षण जीवन से असंपृक्त पूर्णतः सैद्धान्तिक रीति से संपादित नहीं होगा, अपितु, उपलब्ध वैज्ञानिक उपकरणों के प्रयोग द्वारा गत्यात्मक और प्रभावी रीति से दिया जा सकेगा ताकि अनुकूल परिस्थिति में शिक्षण-प्रक्रिया स्थायी प्रभाव छोड़ सकने में समर्थ हो। इस प्रकार, विवेकानन्द ने लोक शिक्षण की जो व्यापक कल्पना की है, उसकी क्रियान्वयन किसी बन्द कमरे में नहीं हो सकती है।

लोक-शिक्षण कार्यक्रमों की सफलता शिक्षण के माध्यम पर बहुत दूर अधारित अवस्थित है। विवेकानन्द ने शिक्षण के माध्यम के रूप में मातृभाषा के महत्व को स्वीकार किया। उन्होंने कहा, जनसाधारण को उसकी निजी भाषा में शिक्षा दो, उनके सामने विचार को रखो, वे जानकारी प्राप्त कर लेंगे। उनके अनुसार मातृभाषा के द्वारा दी गई शिक्षा सहजग्राह्य और टिकाऊ होती है। संस्कृति शिक्षा की आवश्यकता पर भी उन्होंने बल  दिया।

किसी भी राष्ट्र को जीवित आत्मा वहां की लोक-शक्ति होती है और लोक-शक्ति के सहज और स्वाभाविक निर्माण में लोक-शिक्षण की बड़ी गहरी भूमिका होती है। विवेकानन्द लोक-शिक्षण के माध्यम से सबल लोक-शक्ति संगठित करना चाहते थे, ताकि नया समाज, उनकी परिकल्पना का नया समाज, साकारता ग्रहण कर सके। लोक-शिक्षण के रूप में विवेकानन्द की शैक्षिक विचारधारा उदात्त, विराट और क्रांतिमूलक है। हम भारत में आज जिस समाजवादी समाज की रचना को मूर्तरूप देने के लिए संघर्षरत हैं, उसकी मानसिकता को तैयार करने के लिए विवेकानन्द द्वारा प्रति-पादित लोक-शिक्षण के मूर्त रूप को यथार्थतः व्यावहारिक रूप देना आवश्यक होगा। उन्होंने जनता की शिक्षा को महत्व देकर वास्तव में जर्जर भारत की आत्मा में एक सजीवता की प्राण प्रतिष्ठा की थी। वे दूरदर्शी स्वप्न-द्रष्टा थे। उनका प्रत्येक शब्द सबल भारत के नव-निर्माण की प्रेरणा देता है। उन्होंने भारत की जनता को अपने अन्तर्मन की विशिष्ट ऊंचाई से देखा-परखा और उन्होंने लोक-शिक्षण के द्वारा लोक शक्ति के संगठन का संकल्प लिया। उन्होंने कहा, पहले- लोक शक्ति को संगठित करो, अतएव समाज सुधार के लिए भी प्रथम कर्तव्य है- लोगों को शिक्षित करना। जबतक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

आधुनिक भारत के महान निर्माताओं में सर्जक विवेकानन्द निर्धन एवं अशिक्षित जनता के महान सारथी थे। उन्होंने राष्ट में दासता से उत्पन्न व्याप्त अव्यवस्था, समाज में फैली धर्मान्धता एवं थोड़े- से प्रबुद्ध वर्ग की कैद में बंद शिक्षा की मशाल अपने हाथ में ले सर्वहारा वर्ग के बीच उसकी आंतरिक ज्योति को फैलाने का प्रयास किया था। शिक्षा के द्वारा जन-जागरण की भवितव्यता को उन्होंने पहचाना था। जन-शिक्षा के उनके विचारों से आर्यावर्त का विराट् जाग्रत हुआ था।
इस प्रकार, विवेकानन्द ने भारतीय जनता की अज्ञानता को दूर करने के लिए जो भी कुछ कहा और किया, वह एक महान लोक-शिक्षक के दस्तावेज के रूप में प्रकट है।

✍️ डॉ. नीरज कृष्ण
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार

युवा युग पुरुष

सत युगपुरुष सदियों में ही आता है धरणी पर

भारत की भूमि हुई गौरान्वित विवेकानंद को पाकर

सत्य तप संयम जीवन का दिए अनुपम संदेश

देश विदेश के युवाओं के पथप्रदर्शक चले उसपर ।

✍️डॉ आशा गुप्ता
वरिष्ठ साहित्यकार एवं गायनेकोलॉजिस्ट
झारखंड

उठों जागों

बच्चे देश का भविष्य हैं तो युवा निःसंदेह हमारा वर्तमान हैं ।हमारा यह वर्तमान जितना स्वस्थ, सशक्त, संस्कारी,सुविचारी और सुव्यवस्थित होगा उतना ही हमारा घर ,समाज, देश और विश्व सुरक्षित, संरक्षित, विकसित, संतुष्ट और सभ्य होगा ।
युवा दिवस पर युवाओं के लिए कुछ पंक्तियाँ  –
ओ युवा! उठा जुआ ।न थक कर बैठ ,न कर सिर्फ दुआ ।
रख सोच सही, शरीर स्वस्थ ।कर स्वयं का मार्ग प्रशस्त ।
सोच -समझ कर जो तू करेगा, निष्पक्ष और सही  निर्णय ।
तो सभी जी सकेंगे ,होकर निश्चिंत और निर्भय ।
नरेन्द्र बनकर तू दिखा ,विश्व में सफ़लता का परचम लहरा ।
समाज माँग रहा तुम्हारी शक्ति, जिससे मिले उसे सशक्ति ।
कर अच्छाई और नेकी बेशुमार, जिससे देश का हो उद्धार ।
बन सच्चा, अच्छा और ईमानदार, जोश संग होश में रह कर सपना साकार ।
अतीत के अनुभव से सीख ,वर्तमान को समझ  ।
भविष्य के सपनों को है तुम्हारी जरूरत ,
कर देश से तू अपार और निःस्वार्थ मोहब्बत ।

✍️पुष्पांजलि मिश्रा
शिक्षिका
झारखंड

 

अब तो जागो हे युवा देश के

अब तो जागो,
हे युवा शक्ति,
बहुत हो चुका अब तो संभलो
अब भी अंधियारा क्यों मन में?,
क्यों संशय की खींची दीवारें?
बिखरे सन्नाटों में फ़ैली ,
गूंज रही आवाज किसी की ..
बंधी मुट्ठियाँ मांग रही हैं,
साथ तुम्हारा, न्याय तुम्हारा ,
है गूंज रही सब और, जागरण की पुकार,
कातर चीखें,कुंठा, लिप्सा मन की–
तुम दो बिसार.
तुम बढ़ो कदम से कदम,
हाथ में दिए हाथ.
तुम युवा शक्ति,
ऊर्जा तुम ही हो मातृभूमि की.
अब तो आओ नव जीवन पथ पर,
कर्तव्यों की छाँह तले
एक नया सूर्य बनना तुमको,
तुमको लिखना इतिहास,
समय के पृष्ठों पर ,
तुम क्रांति दूत बन जियो,
सुनो,,घायल-मन,
भींगीआँखोंकीकातरपुकार
बन राम तुम्हें आना होगा.
है तभी नाश भ्रष्टाचारी रावण का है,
अब तो जागो हे युवा शक्ति ..!,

✍️पद्मा मिश्रा
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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