इसे कहते हैं ज़िंदगी

इसे कहते हैं ज़िंदगी

वैसे तो मैं एक लेखिका हूँ लिखना पेशा नहीं जूनून है मेरा लेकिन अपनी जिंदगी के बारे में लिखने बैठी हूँ तो बीती जिंदगी का हर लम्हाँ एक एक करके नजरों के सामने आ गया है।क्या लिखूँ और क्या नहीं ,हर लम्हें की अपनी खूबसूरती हैं और महत्ता है।बात अपने जन्म से शुरू करना चाहूँगी।मैंने भारत के मुज़फ्फ़रनगर में जन्म लिया । हिन्दी व संस्कृत में स्नातकोत्तर,बी० एड० के साथ ‘साठोत्तरी हिन्दी गज़लों में विद्रोह के स्वर व उसके विविध आयाम’ विषय पर पी-एच०डी० की उपाधि तथा टेक्सटाइल डिजाइनिंग व फैशन डिजाइनिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया है।

लेखन में-

हाइकु में विशेष रूचि के साथ-साथ पत्रकारिता में भी खास रुचि है।कविता,कहानी,गीत,गज़ल,हाइकु,सेदोका,चोका, बाल रचनाएँ मुक्त छन्द,संस्मरण,लघुकथाएँ,लेख एवं पुस्तक समीक्षाओं का प्रकाशन देश-विदेश की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता है।अपनी लिखी दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं-

*तारों की चूनर, धूप के खरगोश ( हाइकु संग्रह),
*जाग उठी चुभन (सेदोका-संग्रह),
*परिन्दे कब लौटे (चोका संग्रह),
*जरा रोशनी मैं लाऊँ (मुक्त छन्द),
*साठोत्तरी हिन्दी गज़ल में विद्रोह के स्वर (पी एच०डी०का शोध प्रबन्ध),
*अक्षर सरिता,शब्द सरिता,स्वर सरिता, गीत सरिता (प्राथमिक कक्षाओं के लिए हिन्दी भाषा-शिक्षण की शृंखला),
*भाषा मंजूषा में कक्षा 7 के पाठ्यक्रम में एक यात्रा–संस्मरण।

कविताएँ और लेख भारतीय हाईस्कूल पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित हैं ।अनेकों रचनाकारों की रचनाओं का सह संकलन भी किया है-

*चन्दनमन (हाइकु-संग्रह),
*भाव कलश (ताँका संग्रह),
*गीत सरिता (बालगीतों का संग्रह- तीन भाग),
*यादो के पाखी (हाइकु संग्रह),
*अलसाई चाँदनी (सेदोका संग्रह),
*उजास साथ रखना (चोका-संग्रह),
*डॉ०सुधा गुप्ता के हाइकु में प्रकृति(अनुशीलनग्रन्थ),
*हाइकु काव्यःशिल्प एवं अनुभूति (एक बहु आयामी अध्ययन)
*गीले आखर(चोका संग्रह)।

उन पुस्तकों की संख्या अब तक नौ हो चुकीं है।ऑस्ट्रेलिया में निर्मित फिल्म “वन लेस्स गॉड ” में हिन्दी में संवादों का अनुवाद किया है।ऑस्ट्रेलिया,कैनाडा और भारत की अनेकों साहित्यिक पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में संपादन एवं सह-संपादन का कार्य किया।

(वन लेस्स गॉड के एक दृश्य में मैं भी)

 

भारत,युंगाडा और सिडनी यूनिवर्सिटी में शिक्षण कार्य किया।अभी भी लोंग डिस्टेंस हिन्दी शिक्षण एवं अपनी चित्रकला का आर्ट गैलेरी में प्रदर्शन कार्य में व्यस्त रहती हूँ।
प्रथम प्रवासी सेदोका,चोका और हाइकुकार के नाम से जाना जाता है।
*भारत में “हाइकु रत्न सम्मान” (2011)
*”कविता कोष सम्मान“(2018),
*हिन्दुस्तानी भाषा काव्य प्रतिभा सम्मान“, (2019) *ऑस्ट्रेलिया सिडनी में “हिन्दी रत्न” (2019) में ही *अमेरिकन कॉलेज ब्रिसबेन “ईप्सा एवार्ड” प्राप्त हुआ है।हाल ही में भोपाल में हुए
*”टैगोर इंटरनेशनल लिटरेचर एंड आर्टस फेस्टेवल” में प्रवासी साहित्कार सम्मान से सम्मानित किया गया है।

 

ये सारी उपलब्धियाँ हिन्दी से प्रेम के कारण ही प्राप्त हुई हैं जो प्रेम हिन्दी से है,जो समर्पण की भावना अब है वो बचपन में नहीं थी तब सपने कुछ अलग ही थे- मेरा मन कभी अध्यापक बनने का नहीं था। मैं आर्टिस्ट या डॉक्टर बनना चाहती थी। बी०ए० में मैंने मनोविज्ञान लिया था।परन्तु मेरे पिता श्री हिन्दी संस्कृत के लैक्चरर थे और मुझे वो वही बनाना चाहते थे, तो उन्होंने कुछ ऐसे हालात पैदा कर दिए कि मैं ना तो आर्टिस्ट ही बन पाई और ना ही साइकेट्रिस्ट। मेरे बड़े भाई और एक छोटी बहन है। भाई को सांईस दिलाई उन पर नहीं चली पिताश्री को लगा कि हम पर भी नहीं चलेगी, तो हमने उस तरफ तो कभी सोचा ही नहीं। सब आदमी सांईस से ही कामयाब नहीं होते भाई भी आज फाईव स्टार होटेल मैं अस्सिटेंट मैनेजर की पोस्ट पर हैं। पिताश्री का मानना यह भी था कि जो पढ़ो उसमें फर्स्ट डिवीजन जरूर होनी चाहिए।तो मैंने बी०ए० के बाद हिन्दी और संस्कृत से एम०ए० किया बी०एड़० किया फिर पी-एच०डी” साठोत्तरी हिन्दी गज़ल में विद्रोह के स्वर” पर की। डॉ० तो फाईनली हम बन ही गए भले ही फिर साहित्य के बने हों।

अपनी डिग्री समाप्त करके मुझे इंडिया में पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में जॉब मिल गई वहाँ काफी साल काम किया।
फिर मन कुछ इस दुनियादारी से,रिश्ते-नातों से भर सा गया जाने क्यों मुझे दोहरे चेहरे पंसद कभी आये ही नहीं बहुत कोशिश कि इग्नोर करने की पर एक दिन मन में बहुत बड़ा भूचाल आया तो बनावटी रिश्तों को तिलाजंली देकर भारत से दूर युंगाड़ा(पूर्वी अफ्रीका) चली गई अपने पतिदेव प्रगीत कुँअर और अपनी प्यारी-प्यारी दो बेटियों के साथ। काव्या और ऐश्वर्या हम दोनों की जान हैं ।ऐश तो सालभर की थी जब हम अफ्रीका गए। वहाँ ज़िंदगी को नये सिरे से शुरु किया या यूँ कहूँ कि सच में ज़िदंगी कैसे जी जाती है वहाँ जाकर ही सीखा। प्रगीत को बहुत बड़ी कंपनी में जॉब मिली थी। मैंने भी अपनी कोंचिग क्लास शुरु कर दी और इतना ही नहीं अपना एक हिन्दी ब्लॉग-

http://dilkedarmiyan.blogspot.com/

और एक पेंटिग का ब्लॉग –

http://drbhawna.blogspot.com/

 

भी बनाया जिस पर समय- समय पर अपनी रचनाएँ और पेंटिग पोस्ट करती रहती हूँ।कुछ साल वहाँ रहने के बाद हम परिवार सहित ऑस्ट्रेलिया(सिडनी) चले गए।लिखने का शौंक यूँ तो बचपन से ही था क्योंकि साहित्यिक परिवार में पली बढ़ी थी पिता श्री अपनी कविताएँ लिखकर सुनाया करते थे । पर उन्होंने उनको कभी पब्लिश नहीं कराया था।हमें जब स्कूल की पत्रिका में कविताएँ देनी होती तब हम अक्सर लिखा करते।बड़े हुए तो उल्टी सीधी शायरी करके डायरी के पन्ने भरने लगे जो आज भी टूटे-फटे पेज बड़े सँभालकर रखे हुए हैं।जब पी-एच०डी० गज़ल पर की तो बहुत सारी पुस्तकें पढ़ी। दुष्यंत त्यागी की “साए में धूप” मेरी आज भी पंसदीदा पुस्तक है। अब ये शौंक बढ़ने लगा था लेखन में और ज्यादा रुचि आने लगी थी जो विषय कभी नीरस लगा करता था वही अब अच्छा लगने लगा था। तभी मेरा वास्ता “हाइकु” रचना से पड़ा यह विधा मुझे बहुत पसंद आई। मैंने इस पर बहुत काम किया।मेरी खुद की दो पुस्तकें हाइकु पर आईं।

लेखन तो चलता रहा पर स्थान परिवर्तन होने से कुछ मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा।नया देश,नई जगह,नये लोग लेकिन वह भी मुझे अच्छा लगा क्योंकि कभी भी मुझमें कॉन्फिडेन्स की कमी नहीं रही और नये-नये चैलेन्ज़ एक्सपैट करना मेरी आदत रही और जब सफलता मिलती तो उसको जीने में जो आन्नद आता था वो किसी की मदद से मुझे कभी नहीं आया।। ऑस्ट्रेलिया जाकर जॉब की तलाश शुरु हुई तो जॉब दूसरे शहर जाकर पर्थ में मिली।पर्थ में ट्यूटर की जॉब थी दो घन्टे काम किया पूरा दिन होटेल में बैठकर बस साहित्य पर ही काम किया करती। कुछ महीने तक काम किया फिर बच्चों को सिडनी में छोड़ना ज्यादा मन को जंचा नहीं तो वापस सिडनी आकर काम शुरु किया। यहाँ पहले अपनी कोचिंग क्लास शुरु की ।लोगों को हिन्दी पढ़ाना शुरु किया।साथ ही महिला संसाधन न्यू माइग्रेंट सेंटर (सिडनी) में स्वैच्छिक शिक्षण किया।जिसकी कोई फीस नहीं ली बस “हिन्दी” के प्रति बच्चों में जागरूकता लाने का प्रयास किया।फिर कोगराह प्राइमरी स्कूल स्क्रिपचर्  टीचिंग किया और साथ ही इंडियन आर्ट का शिक्षण भी किया।अभिनय स्कूल ऑफ परफार्मिंग आर्ट्स में कुछ समय तक टीचिंग की।उसके बाद सिडनी विश्वविद्यालय में कई वर्षों तक सी सी ई में ट्यूटर की जॉब की ।अब प्राईवेट ट्यूटरिंग करती हूँ और ऑस्ट्रेलिया की एक रेपुटेडिड कंपनी में एकाउंट्स और सेल्स सपोर्टस डिमार्टमेंट में काम करती हूँ। अपनी चित्रकलाओं की प्रदर्शनी लगाती हूँ।लेखन के कार्य से जुड़े रहने के साथ-साथ सम्मेलनों में जाना,गोष्ठियों में जाना निरंतर चलता रहता है।जो कभी ऑस्ट्रेलिया तो कभी ऑस्ट्रेलिया से बाहर आना-जाना लगा रहता है।

ज़िदंगी में बहुत सारे उतार चढ़ाव देखे बुरे से बुरा वक़्त अगर देखा था तो बहुत अच्छे,प्यारे और मधुर पल भी न सिर्फ देखे बल्कि जिए भी तब बरबस ही मुख से निकला इसे कहते हैं ज़िंदगी। जब ऑस्ट्रेलिया की जमीन पर पहला कदम रखा तो मुख से बरबस ही निकला -स्वर्ग बस यही होता है कौन जानता है मरने के बाद कैसा स्वर्ग होता है हमारे लिए तो यही स्वर्ग है,इतना साफ-सुथरा,ना धूल ना मिट्टी,चमचमाती सड़कें उन पर सिर्फ सरकती हुई गाड़ियाँ । रहते-रहते सभी सुविधाओं को समझा और जाना। ना ही किसी भी तरह का पोलुषण, ना लाईट का जाना, ना किसी तरह का क्राइम, ना रिश्वत खोरी, ना कोई भी असुविधा बस फिर वहीं के होकर रह गए।

जिंदगी ने फिर रफ्तार पकड़ ली। काफी मेहनत मशक्कत करके एक अच्छा मुकाम पाया,वहाँ अपना सपनों का घर भी बना लिया। फिर वक़्त आया छोटे से ब्रेक का।आज भी वह वक़्त याद आता है जब हम जर्विस बे  गए थे एक हफ़्ते के लिए ये टूर बच्चों ने हमें गिफ्ट किया था।हम चारों ने मिलकर उस हफ्ते को खूब जी भरकर जिया। वो एक हफ्ता मधुर याद बनकर आज भी मेरे सपनों में आता रहता है। मुझे प्रकृति से बहुत प्यार है जंगलों में,कॉटेज़ में रहना,जानवरों को करीब से महसूस करना,फूल पौधों से घण्टों बात-चीत करना ये मेरी हॉबी है।

ऐसे ही जब हम अफ्रीका में थे तो अफ्रीकन सफारी गए थे वो वक़्त भी आज तक मन में एकदम ताजा हैं वहाँ का अनुभव भी बहुत रोमांचक था मेरी (अफ्रीकन सफारी) “मरचीज़न फॉल नेशनल पार्क की रोमांचक यात्रा” कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और उसको स्कूल के बच्चों की किताबों में पढ़ाया भी जाता है।

उसके बाद मैं और प्रगीत बहुत दिनों बाद अकेले  गोल्ड कोस्ट  गए।करीब एक हफ़्ता घर से ऑफिस से दूर हम लोगों ने बहुत एंज्वाय किया।उन मधुर स्मृतियों को समेट मैंने मन के एक कोने में छिपाकर रख लिया और एक-एक याद को निकाल मैं उन्हें सिर्फ जीती ही नहीं हूँ बल्कि उन पर कुछ ना कुछ लिखती भी हूँ,कभी वो मेरी कविताओं का हिस्सा बनती हैं तो कभी मेरी लघुकथाओं का यानी लेखन तो मैं हर जगह ढूँढ ही लेती हूँ। जिस हिन्दी से कभी बचा करते थे वही हिन्दी आज लोगों को सिखाकर गर्व का अनुभव करती हूँ ।ज्यादा से ज्यादा काम साहित्य पर करना चाहती हूँ। लोगों को जोड़ती हूँ, उनको उत्साहित करती हूँ अपनी मातृभाषा को ना सिर्फ सीखने के लिए बल्कि उसमें कुछ ना कुछ लिखने की प्रेरणा देने के साथ-साथ उनको लेखन सिखाती भी हूँ चाहे वह हाइकु हो या कोई और विधा।

आज प्रगीत भी ऑस्ट्रेलिया की ही एक रेपुटेडिड कंपनी में “डायरेक्टर ऑफ फाइनेंस ” हैं, बड़ी बेटी काव्या भी आई०टी और बिजनैस मैनेजमेंट की डिग्री लेकर दो साल से एक बहुत बड़ी कंपनी में काम कर रही है।छोटी बेटी ऐश आई०टी० कर रही है।वो दोनों भी इंग्लिश में कविताएँ लिखती हैं।प्रगीत में भी कहानी, कविताएँ,दोहे लिखते हैं।पूरा परिवार ही लेखन से जुड़ा है।कभी-कभी हमारी लेखन पर लम्बी चर्चा भी होती है।

आज मैं ही नहीं मेरे पिता श्री चन्द्रबली शर्मा माता श्री सावित्री देवी मुझ पर गर्व करते हैं अपनी मातृभाषा से परदेस में रहकर भी इस कदर जुड़े रहने से। अपनी मातृभाषा के लिए भविष्य में बहुत कुछ करना है और ये जुड़ाव मेरे मन के भीतर से उमड़ता है और कुछ ना कुछ उपलब्धि जरूर कराता है।

डॉ० भावना कुँअर
साहित्यकार और शिक्षिका
सिडनी, आस्ट्रेलिया

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