सुमधुर भारत वर्ष हमारा

जाने कितनी कवियों ने दोहराई होगी बात पुरानी ,
आज सुनाता हूँ मैं तुमको नव भारत की नई कहानी।

नई पुरानी सभ्यताओं का संगम
भारत वर्ष कहाता,
यहाँ कभी ना टूटा नई पुरानी
संस्कृतियों का नाता।

यहाँ जुड़ी है कड़ियां कितने
रस्मों और रिवाजों से,
यहाँ मिली है धड़कन कितनी
धर्मों और समाजों से।

बहता रहता सदा यहाँ अनथक
गंगा यमुना का पानी,
कभी टूट न पायी सागर की
लहरों की अथक रवानी।

इसकी रक्षा करें हिमाला ,
सागर इसके पाँव पखारे,
देवताओं की भूमि यहाँ
सारा जग इसकी ओर निहारे।

वीर प्रसविता धीर प्रसूता
दानवीर वीरों की माता,
जन गण इसको करे नमन
ये धरा हमारी भाग्य विधाता।

देती हमें दुलार बहन सा ,
पत्नी का सुख देती है ,
पिता तुल्य करती है रक्षा
माँ सम लोरी देती है ।

सब कुछ देती हमें लूटा
कुछ पास स्वयं ना रखती है,
इस सबके बदले हमसे
बस इतनी आशा रखती है।

बेटों सा हम बनें सहारा
भाई सा विश्वास बनें,
पिता समान संभालें इसको
पति सम मृदु अहसास बनें।

आओ करें संकल्प कि
इसकी खातिर जान लुटा देंगे,
मिट जाएंगे स्वयं शान
पर इसकी और बढ़ा देंगे।

सब झंडों में सबसे ऊंचा
परचम उड़े तिरंगा प्यारा,
सब देशों में सबसे सुंदर
सुमधुर भारत वर्ष हमारा।

प्रो. सरन घई
संस्थापक अध्यक्ष
विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा
प्रोफेसर ,टोरंटो विश्वविद्यालय, कनाडा

आजादी के पहले का हिंदुस्तान चाहिए

हमें कश्मीर नहीं पूरा पाकिस्तान चाहिए,
आजादी से पहले का हिंदुस्तान चाहिए।

हम हैं अमन के रखवाले युद्ध छेड़ते नहीं
पर हम छेड़ने वालों को कभी छोड़ते नहीं
तुमने जो की मक्कारी उसे कैसे सहेंगे
पुलवामा का बदला अब हम लेकर रहेंगे

हमें अब और नहीं बेटों का बलिदान चाहिए,
आजादी से पहले का हिंदुस्तान चाहिए ।

माताओं को अब और यहाँ रोने नहीं देंगे
बहनों को माथे का सुहाग धोने नहीं देंगे
नफरत का जहर भारत में बोने नहीं देंगे
दुश्मन को अब हम चैन से सोने नहीं देंगे

हमें कश्मीर चाहिए ना बलुचिस्तान चाहिए,
आजादी से पहले का हिंदुस्तान चाहिए।

सरहद के वीर शहीदों को सौ बार नमन है
उनकी ही बदौलत हिंद का गुलजार चमन है
जांबाज जवानों ने आज फिर कसम है खाई
नक्शे से मिटा देंगे हम कर देंगे सफाई

हमें आतंकियों का शीघ्र कब्रिस्तान चाहिए,
आजादी से पहले का हिंदुस्तान चाहिए।

दिनेश्वर प्रसाद सिंह ‘दिनेश’
वरिष्ठ साहित्यकार और संपादक

” सपनो का भारत “

हो न अमन की कमी इस जहां में
मिलजुल सब रहें इस जहां में

हर विस्थापितों को मिले आशियाना
रहे अनाथ ना कोई इस जहां में

आतंकी के आतंक का हो खात्मा
उन्हें भी प्यार मिले इस जहां में

बागों में खिले हर इक कली
कहीं कुम्भला न जाए इस जहां में

अधिकार हर औरत को यूं मिले
हक के लिए न लड़ें इस जहां में

नेता हम चुने अपने विवेक से
धर्म के नाम पर न बटें इस जहां में

फर्क बेटे बेटियों का जब मिटे
इज्जत भी तब मिले इस जहां में

फूलों में खुशबू हो तभी
कुसुम न बने मौसमी इस जहां में

निज स्वार्थ से ऊपर रहे देश हित
यही सपनो का भारत इस जहां में

कुसुम ठाकुर

वरिष्ठ साहित्यकार और समाजसेविका

संपादक और प्रकाशक

आर्यव्रत

हम स्वतंत्र हैं….

हम स्वतंत्र हैं….
क्योंकि…..
प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस….
हर्षोल्लास से मना रहे हैं।

सड़कें गड्ढों से पटी पड़ी
तो क्या???
रेल-बस ठसाठस भरी हुई
तो क्या???
बुलेट ट्रेन तो आ रही है
हम स्वतंत्र हैं…

गरीबी, अशिक्षा, मंहगाई
अब बहुरूपिये हो चले,
सरकारी आंकड़ों में…
नज़र ना आएंगे…
वैसे यत्र-तत्र-सर्वत्र
नज़र ही नज़र आयेंगे
कारण???
हम स्वतंत्र हैं….

भ्रष्टाचार की गति
4 G से भी तेज हो चली
सौ-पचास लेने वाले अब
हज़ार-पाँच सौ में और
पाँच-दस हजार वाले
मात्र लाख-दो लाख में
संतुष्ट हो जाते हैं
कारण???
हम स्वतंत्र हैं ना

अंग्रेजों की भांति
आज भी…
अधीनस्थ कर्मचारियों
के स्वाभिमान..
अफसरों के पैरों तले
रौंदे जाते हैं..
फिर भी हम स्वतंत्र हैं
प्रति वर्ष स्वतंत्रता दिवस
जो मनाते हैं…

गाँव-शहर में…
गली-मोहल्लों में…
गंदगी के अंबार देख…
निराश क्यों होना???
स्वच्छता सर्वेक्षण में
अव्वल तो आ रहे ना???
जी हाँ!हम स्वतंत्र हैं
प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस
जो मना रहे…

मिट्टी-फूस के घर..
पक्के हो चले,
खेत-खलिहान…
धुँए उगल रहे…
नदियां खून के..
आँसू बहा रही।
प्रदूषित जल,
विषाक्त भोजन…
और जहरीली हवा को..
ग्रहण करने को विवश..
आज हम स्वतंत्र हैं
कारण???
प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस
जो मना रहे….#

डॉ सुधा मिश्रा
साहित्यकार और शिक्षिका

“कलम आज उनकी जय बोल “

प्राण हाथों मे हैं लेकर रहते
निडर दुश्मन से भीड़ हैं जाते
रक्षा थल वायु जल में करते
देश पे जान न्यौछावर जय बोल
कलम आज उनकी जय बोल

दृढ़ संकल्प वीरता भाषा उनके
त्याग तपस्या से वे ना मुख मोड़े
निश्छल जीत उनके मन लुभाये
माताभारती उनके हृदय अनमोल
कलम आज उनकी जय बोल

सुझबुझ जिनकी है सर्वोत्तम
ना हारे जो ना पीड़ा से घबड़ाये
जोश होश को ना कभी बिसराये
धरती माँ का कर्ज चुकाये
कलम आज उनकी जय बोल

वे वीर वीरांगना इस माटी के
सदियों से इतिहास रहे बनाते
नत उनके सम्मु्ख दुनियावाले
शौर्य उनका है तिरंगा का मोल
कलम आज उनकी जय बोल ।

डॉ आशा गुप्ता ‘श्रेया’
वरिष्ठ साहित्यकार और गायनेकोलॉजिस्ट

वन्दें मातरम्
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आओ बच्चों तुम्हें सिखाएं
जीवन है श्रमदान की
माँ भारती की मिट्टी है
मिट्टी है बलिदान की
वन्दें मातरम् वन्दें मातरम्

पावन पुण्य प्रेम धरा है
अन्न धन से पूर्ण भरा है
माँ भारती की रक्षा करना
रक्षा गृह किसान की
वन्दें मातरम् वन्दे मातरम्

लहरों पर कश्ती खेना
तुफ़ा दीया जला लेना
हर दम आगे बढ़ जाना
स्वाभिमान हिन्दूस्तान की
वंन्दे मातरम् वन्दे मातरम्

आँधी या तुफ़ान हो
स्वराज हमारा नारा है
दुश्मन को ललकारा है
जीवन है बलिदान की
वंन्दे मातरम् वन्दे मातरम्
आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं
जीवन है श्रमदान की ।

प्रतिभा प्रसाद कुमकुम 

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आजादी
———–
मुस्कुराती हुई हवाऐं,
घाटी कश्मीर से आ रही।
मुक्त हुई हूँ ,आज,
हो स्वच्छंद बह रही।
नयी भोर में उदित,
सूर्य ये कह रहा,
खुलकर लो प्रकाश,
ना कोई रोकने वाला।
कई बेड़ियाँ टूट गई,
जन्नते कश्मीर की।
ना आतंक ना भय होगा।
पावन पवित्र जन्नत होगा।
शिक्षा,धन,दौलत से,
ये शहर पूरित होगा।
एक प्रधान, एक विधान,
एकही संविधान होगा।
एक सूत्र में बंध जायेगे,
हम सभी भारतवासी।
बंसत झूम फिर आयेगा।
फागुन गीत सुनायेगा।
मेरे स्वतंत्र भारत का,
आज तिरंगा लहरायेगा।

छाया प्रसाद

साहित्यकार

“बुलंदियों के गगन में
लहराएँ तुझे शान बान से”

हम कौन थे ,क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्यायें सभी ।

सोने की चिड़िया कहा जाने वाला भारत देश अगर गरीबी, अशिक्षा ,बेरोजगारी आदि मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है तो ऐसा कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इतिहास और वर्तमान के रणनीतियों के सम्मिश्रण का प्रतिफल है । आजादी के बाद देश ने कई क्षेत्रों में अभूतपूर्व तरक्की की ,जिसका सीधा लाभ करोड़ों लोगों को मिला परिणामस्वरूप उनके जीवन स्तर में सुधार हुआ है। लेकिन आजादी के 70 वर्ष पूर्णोपरान्त भी अगर कुछ समस्याएँ जो जड़ तक फैली हुई है और जिसका निराकरण नहीं हो पाया है तो उसका सम्मिलित श्रेय सरकार और जनता दोनों को जाता है । सरकारें इसलिए दोषी हैं क्योंकि वह एक ऐसी रणनीति नहीं तैयार कर पा रहीं जिससे तरक्की के रास्ते सहज और सरल हों एवं देश पुन: उत्थान की ओर अग्रसर हो । अगर करती भी हैं तो अशिक्षा अर्थात जानकारी के अभाव में समाज का वह वर्ग उस लाभ से वंचित रह जाता हैं, जिसका वो हकदार होता हैं ।

आज भी देश का एक बड़ा हिस्सा भरपेट खाना नहीं खा पाता , अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाता है, रोजगार के अवसर नहीं मिल पाते जिससे बेरोजगारी जैसी समस्यायें भी पैदा हो रही हैं। देश में युवा शक्ति होते ही हुए भी देश उसका सकारात्मक उपयोग नहीं कर रहा है जिसके कारण लोग गलत रास्ते पर भटक जाते हैं। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, बढ़ती जनसंख्या- ये कुछ ऐसी समस्यायें हैं जिनके लिए हमारे प्रतिनिधियों को जल्द ही कुछ ठोस कदम उठाना होगा ।

इन तमाम आंतरिक समस्याओं के साथ साथ देश नक्सलवाद, भ्रष्टाचार एवं वैश्विक स्तर पर आतंकवाद से काफी व्यथित है । ऐसी समस्याओं के निदान हेतु हमलोगों को भी राष्ट्रीय हित में सरकार को सहयोग करने की आवश्यकता है । हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम अकेले क्या कर सकते हैं बल्कि हमें ये चाहिए कि हमारे हिस्से में जो हिंदुस्तान पड़ता है हम उसे ठीक रखें। ऐसी मानसिकता अगर हर व्यक्ति में होती है और उसका अनुसरण होता है तो भारत को पुनः विश्व गुरु होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा ।

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखंड है, चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है।
अतएवं अवनति ही हमारी कह रही उन्नति कला ..
उत्थान ही जिसका नहीं, उसका पतन ही क्या भला।।

डॉ. विकास सिंह
डीएम(कॉर्डियोलॉजी)
एफ ए सीसी, एफ एस सीएआई
डायरेक्टर 4ए हार्ट हॉस्पिटल, पटना

स्वतंत्रता उर्फ़ स्वाधीनता या स्वछंदता,.?

स्वतंत्रता क्या है,..?
स्वतंत्रता का अर्थ क्या है,..?
अपने मन मुताबिक चलने की आज़ादी,..?
या मनमानी करने की आज़ादी,..?
या अभिव्यक्ति की आज़ादी,..?
आखिर क्या है स्वतंत्रता??
एक पतंग जो खुले आकाश में उड़ती है आज़ाद होती है? या एक पंछी जो अपनी काबिलियत और सामर्थ्य के दम पर उड़ता है वो आज़ाद होता है?
दरअसल पंछी को उड़ने की आज़ादी तभी तक है जब तक उसके पंख सलामत हैं,..बिलकुल वैसे ही पतंग को उड़ने की आज़ादी तभी तक है जब तक वो डोर से बंधी है,..पंछी पंख के बिना उड़ नहीं सकता,..जब भी कोशिश करेगा औंधे मुह गिर पड़ेगा,..पतंग को आज़ाद करके देखिये,..कटी डोर के साथ कुछ दूर जाकर गिर पड़ेगी फट जाएगी ख़त्म हो जाएगी,.. वस्तुएं गुरुत्वाकर्षण बल के बिना तितर बितर हो जाएंगी,..समीकरण सूत्रों के बिना हल ही नहीं होंगे,..भाषा व्याकरण के बिना असभ्य हो जाएगी,. नदी किनारों के बिना तबाही का कारण बन जाएगी,.. दुनिया सूर्य और चंद्रमा के बिना नष्ट हो जाएगी,..यानि सृष्टि की हर चीज़ किसी न किसी से बंधी है,… इन्हें आज़ादी देने का अर्थ है सृष्टि का विनाश,…
क्या प्रलय की कीमत पर ये स्वतंत्रता मानव को मंजूर है?नहीं ना,..????
फिर क्यूं चाहिए मानव को स्वतंत्रता,…??
एक बार सालों की दासता से जैसे तैसे देश को महापुरुषों के बलिदान से स्वतंत्रता मिली तो थी,…क्या किया देश वासियों ने इस स्वतंत्रता का,..? खोखला हो गया सोने की चिड़िया कहलाने वाला हमारा देश,..। आज़ादी का मतलब मानव ने क्या लगाया??? भ्रष्टाचार, व्यभिचार, दुराचार है वर्तमान में स्वतंत्रता की परिणति,..।
लोगों को बोलने की आज़ादी मिली तो क्या हुआ गालिओं और अपशब्दों का बहुतायत प्रयोग,.. गंदी भाषा ,..गंदी सोच,..??? और जिनकी भाषा सभ्य थी वो सारे बन गए ज्ञानी,.. जो अपने काम से नहीं बल्कि अपने ज्ञान से दुनिया को प्रभावित करते हैं,..
लोगों को स्वतंत्रता मिली तो रिश्तों की मर्यादा ख़त्म हुई,..प्रेम और शादी जैसे पवित्र बंधन “लिव इन रिलेशनशिप” में तबदील होने लगे है,.. लोगों ने स्वतंत्रता का अर्थ स्वछंदता मान लिया है,..ऐसी स्वछंदता जिसके चलते सीमाओं का अतिक्रमण एकदम साधारण सी बात हो गई है।
जबकि होना ये चाहिए था की स्वतंत्रता को स्वछंदता नहीं बल्कि स्वाधीनता का पर्याय माना जाना चाहिए था,.,स्वछंदता हमेशा कटी हुई पतंग की ही तरह गर्त में ढकेलने का काम करती है जबकि स्वाधीनता मुक्त रहने के बावजूद भी अपने पर नियंत्रण रखना सिखाती है,..स्वाधीन व्यक्ति अपने मन वचन और काया पर नियंत्रण रखना जानता है,..की गई भूलों को सुधारने का प्रयास करना भी जानता है,.. काल और परिस्थिति के अनुरूप ढलने की काबिलियत रखता है,..आज स्वतंत्रता को स्वाधीनता की जरुरत है,..

फर्क सिर्फ नज़रिये का है
फैसला खुद ही करें,..।
स्वाधीन होकर जियें,.
या स्वछन्द होकर मरें,…।

हमेशा की तरह एक बात फिर कहना चाहूंगी,..ये सोच मेरी है सहमति या असहमति के लिए आप सभी स्वतंत्र हैं,…मैंने भी तो आखिर अभिव्यक्ति की आज़ादी का उपयोग किया है,. 🙂

फिलहाल मैं अपनी सोच को साझा कर रही हूं कि मैं ये मानती हूं की सृष्टि ने हर चीज़ को,हर भावना को एक दूसरे से सम्बद्ध रखा है इसका अर्थ ही यही है जीवन में अनुशासन के लिए बंधन जरुरी है,…अगर स्वतंत्रता चाहिए तो भी खुद से बंधन बंधना ही होगा,..क्योंकि सुख का मूल अगर स्वतंत्रता है तो स्वतंत्रता का स्वरुप स्वछंदता नहीं स्वाधीनता होना चाहिए,.. मैंने पहले भी कही थी,.. आज फिर कहती हूं,…

सुनो!
मुझे नही चाहिये
विकृत मानसिकता वाली
“आज़ादी”
मुझे आदत है
उस सुख की,
उस सुरक्षा की,
जो अपनो के अपनेपन
और प्यार के बन्धन से मिलता है,…

जो मुझे
सबकी नज़रो मे हमेशा
ऊंचा स्थान न भी दिलाए
पर
दिल की गहराई में
स्थायित्व दिलाता है,..

नही है
मुझे जरूरत
आभासी आजादी की
मै खुश हूं
अपने
इन वास्तविक बंधनो के साथ,……

डॉ प्रीति सुराना
संस्थापक एवं संपादक
अन्तरा-शब्दशक्ति
वरिष्ठ साहित्यकार
बाला घाट, मध्यप्रदेश

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