हरेक औरत

हरेक औरत

एक वक्त
ऐसी जगह
पहुँच ही जाती है
हरेक औरत ,

जहाँ
खुद चुनने पड़ते हैं
उसे राह के काँटे

खुद बुनना पड़ता है
ख्वाहिशों के धागे

खुद लिखना पड़ता है
तकदीर का किस्सा

खुद ढूँढना पड़ता है
अपने हक का हिस्सा

खुद सहलाने पड़ते हैं
जखम तन के

खुद सुलझाने पड़ते हैं
भरम मन के

एक वक्त ऐसी जगह
पहुँच ही जाती है
हरेक औरत

जहाँ नहीं चाहती
वो खुद के लिए
बैसाखी रखना

सिर्फ चाहती है
खुद को खुद के लिए
महसूस करना !!

 

डॉ कल्याणी कबीर
जमशेदपुर
झारखंड

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