स्वराज एवं एक भाषा के हिमायती – महर्षि दयानन्द सरस्वती
महर्षि दयानन्द सरस्वती के बारे में जब चिन्तन करने लगते है तो सामान्य मनुष्य अथवा महापुरूषों के व्यक्तित्व व कृतित्व के समान चिन्तन तो करना ही होता है किन्तु यहां पर एक विशेष चिन्तन की गहनता दिखती है, जो उनका ‘ऋषित्व’ होता है। गुजरात के पश्चिम में मोरबी रियासत के टंकारा गांव के धनाढ्य, कर्मकांडी, सामवेदी औदिच्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए बालक को उसके जन्म नक्षत्र के अनुसार मूलशंकर नाम मिला। किन्तु ठीक उन्हीं परिस्थितियों ने उन्हें वैराग्य से जोड़ा, जिन परिस्थितियों में गौतम बुद्ध व महावीर ने घर को छोड़ा था। बस अन्तर केवल इतना था कि बुद्ध व महावीर को महल से बाहर निकलने पर वो दिखा था, जो मूलशंकर को घर के भीतर ही दिख गया था। मूलशंकर ने तीन वर्ष के अन्तराल में अपनी बहन व चाचा की मृत्यु देखी तो हठात् बाल मन चित्कार कर उठा,’’ क्या मैं व मेरे सभी अपने भी उसी प्रकार मरेंगे’’? नही मुझे मृत्यु को जीतना है।
स्वामी पूर्णानन्द से गुजरात के चाणोद ग्राम के एक आश्रम में संन्यास दीक्षा लेकर अब वे ‘दयानन्द’ बन चुके थे। जहाँ चाह वहाँ राह की उक्ति के अनुसार दयानन्द को भी स्वामी शिवानन्द व ज्वालानन्द नामक दो साधु मिले, जिन से योगाभ्यास की बारिकियां सीखी और इस विद्याध्ययन के कठोर प्रवास में अच्छे-बुरे का अनुभव करते हुए निरन्तर भ्रमण करते हुए नर्मदा नदी के उद्गम तक प्राणघातक घटनाओ से दो-दो हाथ करते हुए भारत वासियों के स्वाभाविक आकर्षण अर्थात् हिमालय प्रदेश की ओर बढ चले। दयानन्द को सम्पन्न ‘‘उखी मठ’’ के मठाधीश ने पट्ट शिष्यत्व व उत्तराधिकार का आग्रह किया किन्तु दयानन्द ने लक्ष्य में बाधा जानकर अस्वीकार कर दिया। विद्या और सद्ज्ञान की भूख और व्याकुलता ने उनको मथुरा के प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजानन्द तक पहुंचाया व वो ही उनके जीवन का सबसे बड़ा पड़ाव था। तीन वर्ष पर्यन्त अनेक संकटों को सहन करके अष्टाध्यायी व्याकरण पढ़ी व वेद भाष्य करने में निपुण हुए। यहाँ पर गुरू ने उन्हे ‘‘कालजिह्न’’ व ‘‘कुलक्कर’’ दो नाम भी उनके विशेषणों के कारण दिये। भारतीय सभ्यता व संस्कृति का आधार स्तम्भ ‘वेद‘ है, इसे जाना तथा ऋषिकृत आर्ष ग्रन्थ व सामान्य मनुष्य कृत ‘‘अनार्ष ग्रन्थ’’ में भेद करने की गुरू कुंजी पाकर दयानन्द अभिभूत हो गये।
गुरू के आदेश पर ‘‘वेदोद्धार‘‘ ही भारत उद्धार हैं इसे जानकर व मानकर सम्पूर्ण जीवन उसी लक्ष्य साधने चल पड़े। इसी लक्ष्य में उन्हें निज कुमारावस्था के दोनो प्रश्नों के उतर भी दिख रहे थे। भारत पर अंगे्रजी राज के कारण जो गरीबी व अस्मिता विहीन दुःखद दारुण दशा दयानन्द ने देखी तो उनके लक्ष्य में स्वतंत्रता का एक अहम लक्ष्य और जुड़ गया। इतिहास साक्षी है कि जब भारत की आजादी के लिए संघर्षरत ‘‘कांग्रेस’’ की बैठक अंग्रजों के पिता तुल्य राज को अक्षुण्ण रखने की ईश प्रार्थना से शुरू होती थी’’, तब पहली बार बाल गंगाधर तिलक ने जब ‘‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’’ की बात बैठक में कही तो उन्हें अत्यन्त निर्लज्जता पूर्ण व्यवहार झेलना पड़ा था। जब उनसे पूछा गया था कि यह बात आपको कैसे सूझी? तो उन्होंने निःसंकोच कहा था कि दादा भाई नौरोजी से ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ पुस्तक के सदर्भ से जानने को मिली थी। दादा भाई मुम्बई में पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के घर पर सत्यार्थ प्रकाश के सत्संग में जाया करते थे। महर्षि दयानन्द ने संसार को जो अवदान दिया है, उसे संक्षिप्त तो नही कर सकते किन्तु एक विचारक के शब्दों में कह सकते है कि, ‘‘वे गुण समुच्चय थे।’’ कोई व्यक्ति प्रभुभक्त है तो विद्वान नहीं, विद्वान-योगी है तो सुधारक नहीं, सुधारक है तो दिलेर नहीं, दिलेर है तो ब्रह्मचारी नही, ब्रह्मचारी है तो वक्ता नहीं, वक्ता है तो लेखक नहीं, लेखक है तो सदाचारी नहीं, सदाचारी है तो परोपकारी नहीं, परोपकारी है तो त्यागी नहीं, त्यागी है तो योद्धा नहीं, देशभक्त है तो वेदभक्त नहीं, वेदभक्त है तो सरल नहीं, सरल है तो सुन्दर नहीं, सुन्दर है तो बलिष्ठ नहीं बलिष्ठ है तो दयालु नहीं, दयालु है तो संयमी नहीं। किन्तु ये सभी गुण उनमें थे। वे दयानन्द ही थे जिनके कारण हम आज सोलह संस्कारों की चर्चा करते हैं, बाकी गृह सूत्रों में तो 3-10 व 13 संस्कार ही है। हम तीसरे दिन मृत्योंपरांत शोक निवृत्त होते हैं अन्यथा वर्ष पर्यन्त ‘गो करूणा निधि’ पुस्तक से, कन्या शिक्षा, विधवा विवाह, राष्ट्र गौरव, एवं भाषा, स्वधर्म, शुद्धि आन्दोलन, संस्कृत शिक्षा, एवं संस्कृति के उत्थान में महर्षि का अनुपन योगदान था। वेदाध्ययन कर स्त्री-शुद्र को समानाधिकार, जन्मना जातिवाद के विरूद्ध धर्म की प्रतिष्ठा इत्यादि के द्वारा केवल पाँच वर्षो में देश भर के राजाओं व प्रजा के दिल दिमाग को आन्दोलित करके जो जबरदस्त परिवर्तन की लहर महर्षि दयानन्द ने उठायी थी उससे विश्व के समस्त उन देशों में ऋषि के चाहने वाले आज भी गुणगान करते झूम उठते हैं।
दयानन्द सरस्वती की समाजसुधार आंदोलन में जो भमिका रही है वह हम सब जानते हैं लेकिन 1857,58 और 59 में तीन साल तक वे कहां रहे और क्या करते रहे ,यह हम सब कम ही जानते हैं। इस प्रसंग में स्वामी दयानन्द ने यही लिखा कि मैं “मैं इन तीन वर्षों में नर्मदा तट पर घूमता रहा।” कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि वे इस दौर में स्वाधीनता संग्राम के लिए आम जनता को संगठित करने का काम कर रहे थे। इस संदर्भ में वासुदेव वर्मा की लिखी किताब “ अठारह सौ सत्तावन और दयानन्द सरस्वती” महत्वपूर्ण कृति है। मूर्तिपूजा और सोमनाथ मंदिर के प्रसंग में दयानन्द सरस्वती ने “ सत्यार्थ प्रकाश” में लिखा है,एक अंश है ,पढ़ें, एक प्रश्न सोमनाथ मंदिर के बारे में था, “ देखो ! सोमनाथ जो पृथ्वी पर रहता था और बड़ा चमत्कार था। क्या यह भी मिथ्या बात है ?” उत्तर ,”हाँ मिथ्या है सुनो ! नीचे-ऊपर चुंबक पाषाण लगा रखे थे। उसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर खड़ी थी-जब ऊपर की छत टूटी तब चुंबक पाषाण पृथक होने से मूर्ति गिर पड़ी”।(सत्यार्थ प्रकाश,दिल्ली,1954,पृ.334) इसके बाद अगला प्रश्न है, “ द्वारकाजी के रणछोड़ की जिसने ‘नरसी महता’ के पास हुंड़ी भेज दी और उसका ऋण चुका दिया इत्यादि बात भी क्या झूठ है ?” उत्तर,” किसी साहूकार ने रुपये दे दिए होंगे। किसी ने झूठा नाम उड़ा दिया होगा कि श्रीकृष्ण ने भेजे।जब संवत्1914 के वर्ष में तोपों के मारे मंदिर-मूर्तियाँ अंग्रेजों ने उड़ा दी थीं तब मूर्ति कहाँ गई थी ? प्रत्युत बेघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े; शत्रुओं को मारा परंतु मूर्ति एक मक्खी की टाँग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिसके रक्षक मार खाए उसके शरणागत क्यों न पीटे जाएँ।”
सन् 1875 ई. में इन्होंने चैत्र नवरात्र के दिन आर्य समाज की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा इन्होने बाल विवाह, सती प्रथा, जैसी कुरीतियों को दूर करने एवं विधवा विवाह एवं शिक्षा के प्रसार का काम किया। मूर्तिपूजा और कर्मकांड के विरोध के कारण इनके शत्रुओं ने इन्हें जान से मारने का प्रयास भी किया।
हिन्दूसमाज के कठोर आलोचक दयानन्द सरस्वती जो लोग ‘हिन्दू महान’ का नारा लगाकर हिन्दुओं की बुराईयों पर पर्दा डाल रहे हैं वे हिन्दूसमाज का अहित कर रहे हैं, इससे भी बढ़कर वे हिन्दूसमाज की आलोचना करने वालों पर हमले कर रहे हैं, उनकी निंदा कर रहे हैं, उन्हें देशद्रोही तक कह रहे हैं। ऐसे लोगों का दयानन्द सरस्वती के बारे में क्या कहना है ? क्या दयानन्द सरस्वती ने हिन्दूसमाज और हिन्दू धर्म की रुढ़ियों और कुरीतियों पर प्रहार करके देशद्रोह का परिचय था या भारतीय समाज को सुधारने का काम किया था?
देश में महान हिन्दू और महान भारतीय होने का गौरव दयानन्द सरस्वती को हासिल है, राजा राममोहन राय को हासिल है। ये सब हिन्दूसमाज और हिन्दूधर्म की आलोचना में अग्रवर्ती भूमिका निभा चुके हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती
(12 फ़रवरी 1824 – 30 अक्टूबर 1883)
डॉ नीरज कृष्ण
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार