स्मृति के पल
जब भी मैं अपने बचपन को याद करती
हूँ तो अपने आपको एक ऐसे संसार
से घिरा पाती हूँ जहाँ चारों और पत्र
पत्रिकाओं, समाचार पत्रों की सुगंध बिखरी हुई रहती थी।बालभारती, पराग, चंपक,चंदामामा,नन्दन की लुभावनी दुनिया
थी मेरे चारों ओर। समाचार पत्रों के बालजगत, पहेलियाँ मन को भरमा
के रखती थीं। फिर धीर धीरे इनकी
जगह ले ली सरिता, मुक्ता, ज्ञानोदय
कादम्बिनी ,
नवनीत आदि ने। धर्मयुग, हिन्दुस्तान का बड़ी बेसब्री से इंतजार
रहता था।पहला उपन्यास जो पढ़ा था
वह था ‘परिणिता’। फिर तो जैसे चस्का
ही लग गया।न जाने कितने उपन्यास पढ़ डाले।पता नहीं समय कहाँ बीत जाता था इन सब के बीच।अपने
अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण मैं शायद
स्वयं को किताबों की भीड़ में बहुत
सुरक्षित पाती थी।पढ़ते पढ़ते न जाने कब लिखना शुरू कर दिया।
कहानियों से लिखना शुरू किया।
आकाशवाणी से कहानियों का प्रसारण होना। पत्र पत्रिकाओं और
साझा संकलन में कहानियों का छपना,
अम्बाला छावनी से ‘कहानी लेखन’
पत्राचार कोर्स में भाग लेना आदि ने
जीवन की दिशा अनजाने में ही तय
करदी।
समय अपनी गति से बहता रहा थोड़ा
बहुत रचनाकर्म भी चलता रहा। लौहनगरी की नामी गिरामी संस्थाओं जैसे तुलसी भवन, सहयोग बहुभाषीय संस्था, जनवादी लेखक संघ, अक्षर कुंभ आदि से जुड़ना
बहुत प्रेरणा दायक रहा।नगर के
विद्वजनों एवं साहित्यकारों का
सान्निध्य व सहयोग सदैव मिलता
रहा।बीच में
कविताओं का सुनहरा दौर भी आया
फिर धीरे धीरे काव्यात्मक गद्य ने अपना
स्थान ले लिया।जीवन में संघर्ष के पल
कम नहीं थे पर साहित्य संजीवनी ने
सदैव जीवन दान दिया। अपने कविता संकलन ‘कँटीले कैक्टस में फूल’ के प्रकाशन से आत्मिक संतोष की अनुभूति हुई।कम्प्युटर और
स्मार्टफोन ने कई आयाम खोल दिए।
ईश्वर की कृपा सदैव बनी रही।परिवार
का सहयोग सदा मिलता रहा।
जीवन में अपेक्षाएँ कभी भी अधिक नहीं रहीं पर अंतिम सांस तक
लिखती रहूँ यह इच्छा अवश्य है।
अनजाने में
जिन्दगी से चुराए
पल दो पल
आनंद बाबा शर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार