साथी हाथ बढ़ाना !

साथी हाथ बढ़ाना !

श्रमिक हमारी सभ्यता-संस्कृति के निर्माता भी हैं और वाहक भी। हजारों सालों तक मनुवादी संस्कृति ने उन्हें वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखा। उन्हें शूद्र, दास और अछूत घोषित कर उनके श्रम को तिरस्कृत करने की कोशिश की गई। सामंती व्यवस्था ने गुलाम और बंधुआ बनाकर उनकी मेहनत का शोषण किया। आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी की तुलना में श्रम की हैसियत दोयम दर्ज़े की है। उत्पादन में केंद्रीय भूमिका निभाने वालों को उत्पादन में उनका जायज हिस्सा पूंजीवादी व्यवस्था में नहीं मिला। मार्क्सवादियों ने ‘सर्वहारा की तानाशाही’ का झूठा सपना दिखाकर उन्हें कभी अपना हथियार ढोने वालों में, कभी अपनी प्रचार-सामग्री में, कभी अपने वोट बैंक में तब्दील किया। दौर कोई भी रहा हो, हमारे मेहनतकश समाज की मुख्यधारा से सदा ही वहिष्कृत रहे। आज कोरोना के संकट काल में रोज़ी के अभाव में बड़े शहरों से पलायन करने वाले करोड़ों मज़दूर जिस अमानवीय त्रासदी से दो-चार हैं, उसे भी इतिहास याद रखेगा। युगों-युगों से छले जा रहे श्रमिकों को वह श्रेय और सम्मान कभी नहीं मिला जिसके वे वास्तव में हक़दार हैं। निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के संगठित श्रमिकों ने लंबे संघर्ष के बाद थोड़ी बहुत सहूलियतें ज़रूर हासिल कर ली है, मगर गांवों और शहरों में असंगठित मजदूरों की हालत आज भी बेहतर नहीं हुई है।

‘श्रमिक दिवस’ पर देश के श्रमिकों, हम शर्मिंदा हैं !

 

ध्रुव गुप्त
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार

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