समर्पित जीवन
जब से होश संभाला स्वयं को शिक्षकों के बीच पाया | हिंदी के प्रखण्ड विद्वान्-दादा डॉ. मुरलीधर श्रीवास्तव राजेन्द्र कॉलेज छपरा के प्राचार्या थे जिन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र शैलेन्द्र की शादी हिन्दी स्नातकोत्तर की गोल्ड मेडलिस्ट वीणा से बिना कुण्डली देखे बिना उपजाति पूछे ,सिर्फ अंक पत्र देखकर की थी | शैलेन्द्र और वीणा की ज्येष्ठा जूही के नाना राम शरण प्रसाद कंठ पेशे से मजिस्ट्रेट थे पर साहित्यानुरगी जिन्होंने निराला की कविता “जूही की कली” पढ़कर अपनी दौहित्री का नाम जूही रख दिया जिसमें पता नहीं क्या सोचकर पापा ने समर्पिता जोड़ दिया |
भोजपुर के प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में पाँच पीढ़ी के बाद कन्या का जन्म हुआ था और मेरे जन्म पर बहुत जश्न मनाया गया था।ननिहाल और ददिहाल दोनों तरफ़ से मैं प्रथम संतान थी इसलिए बहुत मान ,सम्मान ,लाड़ ,प्यार में लालन पालन हुआ। मेरी शिक्षा दीक्षा का विशेष ध्यान रखने के लिए न सिर्फ़ मेरे माता पिता बल्कि ननिहाल ददिहाल के सभी अभिभावक तत्पर रहा करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने मैट्रिक पास किया तब मेरे परिवार को यह चिंता थी की जूही कौन सा विषय कॉलेज में पढ़ेगी। मेरी राय जानने का किसी को ख्याल ही नहीं | हाँ, बाबा ने कहा इंटर में संस्कृत विषय ले लो अच्छे अंक मिलेंगे और उनके कहने से मैंने इंटर में संस्कृत रखा | तब बाबा स्वयं मुझे काली दास का रघुवंशम और संस्कृत में पंचतंत्र की कहानियाँ सुनाया करते थे । जब इन्टर का रिज़ल्ट निकला तब प्रथम श्रेणी प्राप्त करना स्वाभाविक था , बाबा इतने ख़ुश थे अपने निर्णय पर,ऐसा लगता था कि मुझे नही उन्हें प्रथम श्रेणी मिली हैं ।जब बी ए औनर्स में विषय चयन की बात उठी तब पुऩ: पारिवारिक संसद में यह फैसला लिया गया कि जूही को हिन्दी साहित्य नहीं पढ़ना है । दलील यह दी गई कि अच्छे रिज़ल्ट का श्रेय कभी जूही को नहीं दिया जायेगा,और सदा यह सुनने को मिलेगा कि प्रोफ़ेसर माता पिता की वजह से टॉप कर गई ।चाचा चाहते थे कि उनकी अंग्रेजी की पुस्तकों का कोई उत्तराधिकारी हो पर पापा के सामने उनकी दाल नहीं गली। न हिन्दी न अंग्रेज़ी साहित्य मुझे समाजशास्त्र पढ़ने का फ़रमान जारी कर दिया गया।
अम्मा मगध महिला कॉलेज में हिन्दी विभाग में प्रोफेसर थी पर मुझे हिन्दी ओनर्स नहीं पढ़ने दिया गया | अतः समर्पिता जूही ने सर्वसम्मति से समाजशास्त्र में बी.ए एम.ए.पी.एच.डी. कर लिया | हिन्दी तो विरासत में मिली , पूर्णत: समर्पिता अपनी मातृभाषा ,राजभाषा की | अंग्रेजी माध्यम के स्कूल पटना सेंट जोसफ कॉन्वेंट में दस वर्ष पढ़ने के बावजूद अंग्रेजियत और अंग्रेजी को जीवन में वह स्थान नहीं दे पायी जो विशिष्ट स्थान हिन्दी को दिया |
मैं अपना निर्णय स्वयं नहीं ले पाती थी, बड़ों के समक्ष मुँह नहीं खोल सकती थी, आज्ञाकारी थी या यह जानती थी कि मेरे माता पिता मेरे लिये हमेशा भला सोचेंगे । अम्मा कहती है कि बचपन से ही मैं स्वभाव से बहुत सरल,सहज,और डरपोक थी। कोई यदि दो बात कह देता तब मैं मोटे मोटे आँसू गिराती पर पलट कर जवाब नहीं दे पाती।( अब नहीं हूँ ) | शायद इसीलिये पूरे परिवार ने जहाँ कहा वहाँ विवाह के लिये भी तैयार हो गई। जूही समर्पिता ने विवाह के वक्त भी अपनी जुबाँ नहीं खोली | न तो पति को शादी से पूर्व देखा था न बात हुई थी |पापा ही रिश्ते की बात करने जाते और पूरे परिवार से सहमती लेते | मुंगेर भी अम्मा , पापा , चाचा ,पापू जाकर मेरा छेका कर आये | आजकल की तरह ‘रिंग सेरेमनी’ नहीं हुई इसलिए पति को देखने के सुख से वंचित रह गई | २२ वर्ष की उम्र में उन दिनों इतनी ही अक़्ल हुआ करती थी। आज की पीढ़ी की तरह स्वछंदता, स्वतंत्रता नहीं थी। निर्णय लेने की क्षमता अधिक विकसित नहीं थी-.समाज में प्रतिष्ठा मर्यादा आदि मूल्यों की अहमियत थी।बड़े बुज़ुर्गों के लिये आँखों में पानी था,भरोसा और विश्वास था |
ख़ैर विवाहोपरांत जमशेदपुर आना और इस लौहनगरी को अपना कर्मक्षेत्र बनाना ही प्रारब्ध था।पति यानि अंजनी किशोर सहाय टाटा स्टील में प्रतिष्ठित अफ़सर थे और उनके साथ ही जीवन डोर बंधी थी। सास भी सरकारी स्कूल की प्राचार्या हो कर रिटायर की और ससुर भी इकॉनमिक्स के प्रोफ़ेसर थे | घर गृहस्थी बाल बच्चों के साथ कालेज की एक नौकरी भी मिल गई थी,और जीवन आरामदायक था । इस लौह नगरी में मैं पटना के सामाजिक ,साहित्यिक ,राजनैतिक, सांस्कृतिक परिवेश को बहुत ढूँढती पर कारख़ाने के इर्द गिर्द सिमटी जिंदगी में शायद साहित्य के लिये लोगों के पास वक़्त नहीं बचता यह सोच कर मैं चुप रहती।तभी एक दिन निर्मल मिलिन्द जी मुझे ढूँढते हुए मेरे घर आए। पारिवारिक मित्र थे किसी ने पटना से उन्हें मेरा पता देकर भेजा था। बड़े भाई की तरह आत्मीयता से मिले मिलिन्द जी और धीरे धीरे मेरे साहित्यिक गुरू ,मेरे अभिभावक ,बन गए। कादम्बनी क्लब का गठन मुझसे मिलिन्द जी ने करवाया। हर महीने ‘कादम्बनी ‘ पत्रिका मेरे घर पर डाक से आती जिसे लेकर मैं कुछ साहित्यिक अभिरुचि वाले मित्रों को जब देने जाती तब थोड़ी देर बैठ कर कुछ साहित्य चर्चा हो जाती। इस लौह नगरी के साहित्यकारों से,मेरा परिचय निर्मल मिलिंद जीने करवाया .श्रीमती निर्मला ठाकुर, डॉ .सी .भास्कर राव, डॉ.बच्चन पाठक सलिल के प्रभावशाली व्यक्तित्व की शीतलछाया में बैठकर गजल का सुकून मिलाता .” मै तो भूल चली बाबुल का देश और पिया का घर प्यारा ” लगने लगा ।पटना का साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश विस्मृत होता गया और औद्योगिक नगरी के भी ” लोहे के पत्ते हरे होने लगे”। प्रत्येक माह सहित्यिक गोष्ठियों का या तो आयोजन मै करती या साहित्यिक परिचर्चाओं में शिद्दत करती। कॉलेज हो या स्कूल एक साहित्यिक परिवेश तैयार करने का जूनून सा हो गया था|
इस बीच निर्मल मिलिन्द जी द्वारा निकाला जा रहा “स्टील सिटी समाचार” (साप्ताहिक अख़बार ) बन्द होने की कगार पर था | मेरे पास एक प्रस्ताव लेकर अशोक वर्मा जी एवं मिलिन्द जी आये कि आप इसका सम्पादन संभालें | मैंने इसी शर्त पर सम्पादन स्वीकार किया यह अखबार बच्चों के लिये , बच्चों के द्वारा हो | फिर क्या था ” स्टील सिटी समाचार ” नए कलेवर में , रंगीन बाल चित्रो के साथ खूब पसन्द किया गया और बच्चों में पत्रकारिता की ललक दिखी | लोयोला कान्वेन्ट जैसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भी यह अखबार काफी लोकप्रिय हुआ | साहित्यिक परिवेश विकसित करने का आत्मसंतोष तो था ही।
जब टाटा स्टील में तीन मार्च १९८९ में भयंकर अग्नि कांड की मैं प्रत्यक्षदर्शी बनी। इस भीषण अग्नि कांड में बहुत अपनो को झुलसते तड़पते देखकर कोमल हृदय मेरा रो पड़ा ।अस्पताल के हृदय विदारक चीत्कार ने मुझे क़लम उठाने को मजबूर कर दिया। बहुत क़रीब से आग से जले मरीज़ों को जीवन और मौत से लड़ते देखा और अख़बार वालों को जाकर देती। अनायास ही पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम पड़ गए। साहित्य और पत्रकारिता का सम्बंध चोली दामन का का है दोनों ही क्षेत्रों में धीरे धीरे लोग पहचानने लगे।
निर्मल मिलिन्द जी ,बच्चन पाठक सलिल जी ,भास्कर राव जी, आदि मेरी साहित्यिक विरासत से परिचित थे और उन्हें यह भरोसा और विश्वास भी था कि जूही साहित्यिक संस्कार को आगे बढ़ायेगी तभी इन्होंने बहुभाषीय साहित्यिक संस्था का जब गठन किया तब मुझे जोड़कर स्वयं संरक्षक बन गए। १९९६ में औपचारिक तौर पर बहुभाषीय साहित्यिक संस्था सहयोग की अध्यक्ष श्रीमती स्वर्णा सिन्हा तथा सचिव श्रीमती अल्पना सिन्हा को बनाया गया | अधिकांश कार्यक्रमों के संयोजन का दायित्व श्रद्धेय मिलिन्द जी एवं आदरणीय डॉ.बच्चन पाठक सलिल मुझे ही सौंप देते | उन दिनों निमंत्रण पत्र छपवाना,बांटना,प्रेस विज्ञप्ति लिखना,प्रेस में कार्यक्रम के बाद विज्ञप्ति देना आदि अनेक कार्य संयोजक को ही करने होते थे जिसमें मेरे पति अंजनी सहाय का पूरा समर्थन और सहयोग मिलता | उन दिनों चमकता आइना के श्री केदार महतो जी हमारे साहित्यिक कार्यक्रमों में नियमित बैठते और विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करते | इन सबके मार्गदर्शन में ही प्रत्येक माह इस संस्था की साहित्यिक गतिविधि होती | पुस्तक लोकार्पण , कथा-गोष्ठी, काव्य पाठ, साहित्यिक प्रश्नोतरी, महान साहित्यकारों की जयन्तियों के अवसर पर आयोजित होते | अन्तर-विद्यालय साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित कर नई पीढ़ी में साहित्यिक रूचि उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता रहा | पिछले बाईस वर्षों से इन कार्यक्रमों की श्रृंखला टूटी नहीं है, संस्थापकों के साथ-साथ मेरे लिये भी यह बहुत संतोषप्रद है | सहयोग को बहुभाषीय पहचान दिलाने में वे तमाम रचनाकार हैं जिन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया है | घर गृहस्थी में,तकिये के नीचे दबी डायरी के पन्नों में सिसकती अनुभूतियों को पहचान मिली इस बहुभाषीय साहित्यिक संस्था सहयोग से जुड़कर |
अपनी इस साहित्यिक यात्रा में जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो अभिभावक तुल्य डॉ.सी.भास्कर राव,डॉ.नरेन्द्र कोहली को सदा मार्ग प्रशस्त करता पाती हूँ | कार्यक्रम संयोजन में आदरणीय डॉ.नरेन्द्र कोहली के श्रीमुख से “जूही को दायित्व दे दीजिये” सुनकर असीम तृप्ति मिली | भाई प्रेमचन्द मंधान के साथ मिलकर ‘जटायु’ पत्रिका का सम्पादन कार्य सम्भालना मेरे अनुभव संसार को समृद्ध करता गया | डॉ.सी.भास्कर राव ने जब मेरे घर पर आकर अपने गुरुदेव डॉ.सत्यदेव ओझा के अमृत महोत्सव कार्यक्रम को बहुभाषीय साहित्यिक संस्था सहयोग के बैनर तले करने का आग्रह किया तब सचमुच ऐसा लगा ‘ सहयोग ‘ का गठन सार्थक हो गया | डॉ. बच्चन पाठक सलील, डॉ.सी.भास्कर राव, श्री प्रेमचन्द मंधान जब सातवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन सूरीनाम हो कर आये तब ‘सहयोग’ ने एक भव्य अभिनंदन कार्यक्रम आयोजित किया जिसके बाद ही अनेक साहित्यिक मंचो पर उनका अभिनंदन हुआ | डॉ .हरिवंश राय बच्चन को श्रद्धासुमन जब सहयोग ने एक विशाल सभागार में आयोजित किया तब सारा साहित्य जगत उमड़ पड़ा अपनी श्रद्धांजलि देने | इसका कैसेट उनके सुपुत्र श्री
अमिताभ बच्चन को भेज दिया गया था | विभिन्न भाषाओ को उत्कृष्ट रचनाओ का पाठ, बहुभाषीय काव्य पाठ, शेक्सपियर जयंती पर मंचित उनके नाटक, प्रेमचंद साहित्य पर आधारित प्रश्नोतरी, कबीर जयंती पर दोहा अन्ताक्षरी ऐसे कई नए-नए प्रयोग,(बहुभाषीय साहित्यिक संस्था ‘सहयोग’ के अध्यक्ष होने के नाते ) करने का अवसर ईश्वर ने दिया | मैं आभारी हूँ परमपिता परमेश्वर की जिन्होंने मुझे साहित्य सृजन के साथ-साथ साहित्य संयोजन का भी विरासत में देकर इस लोक में भेजा |
जूही समर्पिता अपने नाम के अनुरूप पूरी तरह समर्पित होती गई…. अपने परिवार ससुराल,पति,दोस्त,समाज,नौकरी,संस्था और राष्ट्र के प्रति समर्पण स्वभाव बनता गया | समर्पण की भावना ऐसी नस-नस में रोम-रोम में समाहित हो गई कि अब ‘स्व’ का अस्तित्व ही ख़त्म हो चला है | ‘तेरा तुझको अर्पण’ का लिये अब पूर्णरूपेन ईश्वर को समर्पित करना चाहती हूँ सब कुछ |
डॉ.जूही समर्पिता
अध्यक्ष-बहुभाषीय संस्था सहयोग
प्राचार्या-डी.बी.एम.एस. कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन
जमशेदपुर