शाश्वत प्रेम

शाश्वत प्रेम

मचलती-बलखाती नदियाँ,
किनारों से टकराती नदिया,
अपनी रवानगी में बहती
चली जाती है मौन
सागर में समाने को।
खुद को खो कर
कुछ पाना है,
हार में ही जीत है
यह कहती जाती है नदियाँ!

गुलाब खिला है
खुश्बूओं से सुवासित है।
पर खो देता है अपनी सुगंध
मुरझाने पर।
आखिर वो
खुश्बू बसती कहाँ है?
प्रिय के दिल के परतों में
सहेजा गुलाब
मुरझाता नहीं है।
अपनी खुश्बू
आज भी बिखेर रहा है
मन आँगन में!

सर्द रातों में खिला
कोमल,नर्म,स्निग्ध
हरसिंगार के फूल
सूर्य की प्रतीक्षा में रही
आकूल रात भर
पर उसके ताप को सह नहीं पाती
और बिछ
जाती है स्वागत में
उसकी राहों में!

शायद यही प्रेम है
शाश्वत प्रेम !

अनिता निधि
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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