करोगे याद तो हर बात याद आएगी

करोगे याद तो हर बात याद आएगी

मैं, ऋचा वर्मा, माता स्वर्गीय प्रमिला वर्मा, पिता श्री सुरेन्द्र वर्मा की सबसे बड़ी संतान, एक लंबे, लगभग 10 वर्षों की प्रतीक्षा और बहुत मन्नतों के प्रतिफल के रूप में उनकी जिंदगी में आयी। संस्कृत भाषा में एम. ए. पास माता जिन्हें मैं मम्मी कहती ने मेरा नाम ‘ऋचा’ .. वेद की ‘ऋचा’ रखा साथ में पिता का उपनाम ‘वर्मा’ स्वाभाविक रूप से जुड़ गया, इस तरह से मेरा नाम हो गया ऋचा वर्मा।
पटना के कुर्जी अस्पताल में 20 मई 1963 को मेरा जन्म हुआ था। 1971 में पापा का स्थानांतरण छपरा हो गया, वहीं नामांकन के चक्कर में सरकारी अभिलेखों के लिए मेरी जन्म तिथि 10 जनवरी 1963 करनी पड़ी।
साधारण रूप रंग और बहुत ही सीधी – सादी सी दिखने वाली मैं अपनी कक्षा में तब तक उपेक्षित ही रहती जब तक शिक्षक /शिक्षिका मेरी प्रतिभा को पहचान नहीं लेते। लेकिन अपने गुरुजनों के दिल में जगह बनाने में मुझे देर नहीं लगती, यह सिलसिला छपरा के विद्यालय से शुरू होकर रांची के राजकीय बालिका उच्च विद्यालय, रांची वीमेंस कॉलेज( रांची), सेंट कोलंबस कॉलेज(हजारीबाग) से होते हुए जिंदगी के सबसे बड़े संस्थान, ग्रामीण पृष्ठभूमि में बसे पर शिक्षित और संपन्न परिवार जो मेरा ससुराल था वहां तक चला।

अपने सीधेपन की बात पर बचपन की एक मजेदार घटना याद आती है, कक्षा सात में अपनी एक सहपाठी से मेरी घनिष्ठ मित्रता हो गई थी, एक दिन उसने मेरे विज्ञान की कॉपी पर निम्न पंक्तियां लिख दी-

“शराब पीने के पहले बोतल हिलाई जाती है,
मुहब्बत करने के पहले आंखें मिलाईं जाती हैं।”

मेरे वर्ग कार्य पुस्तिका जांच के दौरान शिक्षिका की नजर जैसे ही उन पंक्तियों पर पड़ी, उन्होंने मुझे खड़ा कर इस विषय में पूछा और मैंने बड़ी सहजता से असली शायरा का नाम बता दिया, फिर क्या था, बेचारी मेरी मित्र को बहुत डांट पड़ी, ऊपर से पूरे सत्र भर वह उन शिक्षिका के नजरों में चढ़ी रही, सो अलग।
मेरी माता एक सुन्दर, सुशिक्षित, सौम्य और आदर्शवादी घरेलू महिला थीं और ठीक उनके उलट पिता एक अनुशासन पसंद, सख्त, आत्मविश्वासी और आत्मसम्मान की भावना के पोषक बिहार प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारी रहें हैं। माता जहाँ हमारे कानों में ‘वचनें किं दरिद्रता’ का मंत्र फूंक कर किसी का दिल नहीं दुखाने की सीख देतीं वहीं पिता ‘जैसे को तैसा’ की बात बताकर हमें निर्भीकता का पाठ पढ़ाते। कुछ बातें जो मेरे माता-पिता में सामान्य थी उनमें से पहली यह कि उन्होंने बेटी और बेटे में कोई अंतर नहीं समझा और उन्होंने हम बहनों को घर के काम काज सिखाने के बजाय पढ़ने-लिखने और खेलने – कुदने की भरपूर स्वतंत्रता दी और दूसरी बात कि दोनों ही साहित्यिक अभिरूचियों वाले इंसान रहें। माता जहां तुलसीदास, कालिदास और भवभूति, महादेवी वर्मा, अज्ञेय आदि की बात करतीं तो पिता के लिए आज तक शेक्सपियर, जेन आॉस्टिन, वर्जिनिया उल्फ, टॉलस्टॉय, सलमान रुश्दी, तस्लीमा नसरीन आदि विश्व प्रसिद्ध लेखकों के साहित्य पढ़ना सबसे प्रिय टाईम पास है, सो घर में साहित्यिक पुस्तकों का एक छोटा सा पुस्तकालय आज तक विद्यमान है। पिता के बड़े भाई जिन्हें हम बाबूजी कहते वे गांव पर रहते, गर्मी की छुट्टियों में जब हम गांव जाते तो वे हमें पंचतंत्र की कहानियां भोजपुरी में सुनाते, उनकी कोशिश होती कि हम सब अपनी संस्कृति और भाषा से प्रेम करना सीखें। उनके द्वारा भोजपुरी में सिखाई गई कुछ कविताएं मुझे आज भी याद हैं, उनमें से एक थी :

‘आओ रे चिल्हरा खेत खरिहान,
तोरा के देबऊ तिलगिया धान,
उहे धान के पपरा बनइहे,
उहे पपरा हमर बउआ के खियईहे।’

उनकी कोठरी में बहुत सारे रहस्यों को समेटे एक संदूक पड़ा रहता, जिसे हमलोग चोरी छिपे खोलते, और उसमें रखे तरह-तरह के मुकूट और वस्त्राभूषणों को देखकर विस्मित होते, शायद उन्होंने कभी रंगमंच के लिए भी काम किया होगा, यह बात आज समझ में आती है। उनके पास भी हिन्दी साहित्य के उत्कृष्ट पुस्तकों का अच्छा संग्रह हुआ करता। ऐसी परिस्थितियों में मुझे जब भी खाली समय मिलता कोई न कोई पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगती और उसे खत्म किये बिना उठती भी तो किसी न किसी मजबूरीवश। इस तरह साहित्य के प्रति रुझान का बीज अवचेतन मन में बचपन में ही डल गया था, जो किशोरावस्था में प्रवेश होते ही प्रस्फुटित होने लगा था।

मेरे जीवन पर माता-पिता दोनों का प्रभाव बराबर- बराबर रहा, माता मुझे अक्सर वाद – विवाद और भाषण प्रतियोगिता के लिए विषय – वस्तु लिखवातीं और पिता उन बातों को ठीक ढंग से बोलना सीखाते।
विद्यालय में भी मेरे द्वारा लिखे गए निबंधों को कभी- कभार शिक्षिका कक्षा में सभी को पढ़कर सुनाने को कहतीं। विद्यालय में मैं एक और बात के लिए लोकप्रिय थी, जिसे आजकल ‘स्टैंड अप कॉमेडी’ कहते हैं, मैं वह किया करती। खुद ही हास्य संवाद लिखती और खुद ही प्रस्तुत भी करती।

ऐसे ही खुशनुमा माहौल में पढ़ते – बढ़ते सेंट कोलंबस कॉलेज हजारीबाग पहुंची, स्नातक की छात्रा बनकर पढ़ने के लिए अंग्रेजी साहित्य चुना। उन्हीं दिनों अमिताभ बच्चन को ‘कुली’ फिल्म की शुटिंग के दौरान चोट लगी थी और मैंने उस समय के लोकप्रिय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका ‘संडे’ जिसके संपादक आदरणीय अरुण शौरी हुआ करते थे, के ‘लेटर्स टू द एडीटर’ कॉलम के लिए एक पत्र लिखा जो अगले अंक में प्रकाशित हो गया। यह मेरे लिए बहुत ही उत्साहित करने वाली बात थी, क्योंकि उन दिनों ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ और ‘धर्मयुग’ पत्रिकाओं में जब कभी ममता कालिया, सूर्यबाला, रॉबिन शॉ पुष्प, उषा किरण खान, मन्नू भंडारी की रचनाओं को पढ़ती तो लगता कि ऐसे लोग किसी दूसरे लोक के होते हैं जिनकी रचनाएं प्रकाशित होती हैं, यही कारण है कि जब अपनी फेसबुक मित्र, ममता कालिया मैम से मेसेंजर पर बात करने का सुअवसर प्राप्त हुआ तो मुझे अपार खुशी हुई। सो अपने पत्र के प्रकाशन से प्रोत्साहित होकर मैंने भी अंग्रेजी में एक कविता लिखकर उस समय के अंग्रेजी अखबार शायद ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशनार्थ भेजा, जिसे संपादक जी ने कुछ त्रुटि सुधार के उपरांत वापस कर दिया।
उसके बाद वही हुआ जो उस जमाने में होता था, पिता ने एक बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व वाले इंजीनियर से मेरी शादी करा दी। शादी के बाद मैंने अपने पति से सबसे पहला प्रश्न किया था,
“आप अमृता प्रीतम को जानते हैं?”
और उन्होंने उल्टा प्रश्न किया,
“हजारीबाग में रहती हैं क्या?”

… बेचारे इंजीनियर साहब… ।
उन्होंने और सासू मां ने मुझे खाना बनाना सिखाया, जिंदगी अपने रफ्तार से चल रही थी, दो प्यारे बच्चों की माँ बनकर मैं अपने गृहस्थ जीवन में मगन थी कि तभी ईश्वर ने मेरी जिंदगी पर अनपेक्षित रूप से वज्रपात किया, अभी 29 मई 1995 को हमलोग अपने विवाह के दसवीं वर्षगांठ की तैयारियों में लगे ही थे कि 4 मई 1995 का वह मनहूस दिन आ गया जब मेरे पति मुझे छोड़कर सदा के लिए चले गए । साढ़े तीन वर्ष के पुत्र और आठ वर्षीय पुत्री को लेकर मैं जीवन राह में नितान्त अकेली खड़ी थी लेकिन…. परिवार वाले, शुभचिंतकों और मित्रों के सहयोग और सांत्वनाओं ने मुझे जिंदगी की चुनौतियों से जुझने के लिए तैयार किया, अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति हुई और जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी, घर वाले धीरे – धीरे आश्वस्त हो कर अपनी – अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गए, पिता शक्ति भर साथ देते थे परंतु बढ़ती उम्र के साथ उनकी अपनी सीमाएं रहीं। उन्हीं झंझावात भरे दिनों में मुझे मिल गई वंदना शरण, हम छपरा में साथ – साथ पढ़े थे और अब हमारे बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ते थे। स्कूल में भले हम पक्के दोस्त न रहें हों पर जिंदगी के इस दौर में वंदना… जो अब वंदना सहाय हो गई थी, ने गजब का साथ निभाया, बच्चे बीमार हों या कुछ और काम , खुद कार लेकर आती और जहां भी जाऊँ साथ साथ जाती।

समय के साथ वंदना भी अपने परिवार के साथ दिल्ली चली गई, 2003 में मैंने अपना फ्लैट खरीद लिया 2011 में बेटा का नामांकन आई आई टी खड़गपुर में हो गया, 2012 में बेटी की शादी हुई। इस बीच मैं अपनी एक और प्यारी सहेली अनुभा और प्यारी बेला दीदी के संपर्क में रही परंतु वंदना से संपर्क टूट गया। लेकिन भला हो फेसबुक का हम फिर मिल गए 2016 के अक्तूबर माह में , और इस बार जब हम मिले तो वंदना सहाय एक जानी-मानी लेखिका बन चुकी थी, यही वह बिंदु रहा जहां से मेरी लेखकीय पारी शुरू हुई। वंदना के प्रोत्साहन से ही मैं अपनी रचनाएं प्रकाशनार्थ भेजने लगी और ईश्वर की कृपा से संपादकों की स्वीकृतियां भी आसानी से मिलने लगीं यहां तक कि मेरी पहली रचना भी आसानी से प्रकाशित हो गई। लेखन और प्रकाशन के सिलसिले से उत्साहित होना स्वाभाविक है, सो उत्साहित हूँ, वंदना को मैं अपना लकी चार्म मानतीं हूँ, इसके पहले जब मिली तो जिन्दगी की गाड़ी सरपट दौड़ने लगी और इस बार जब मिली तो मुझे उसने मेरी जिंदगी के मायने बता दिया, क्योंकि साहित्य मेरे रगों में रक्त के साथ प्रवाहित होता है, लिखना और प्रकाशित होने की आकांक्षा तब से थी जब से मैंने साहित्यिक पुस्तकों को पढ़ना शुरू किया, देखती हूँ कहाँ तक जाती हूँ फिलहाल तो विश्व हिंदी उत्सव मॉरीशस – 2019 एवं अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन माॅरीशस द्वारा हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए, हिन्दी संगठन , ऋषि दयानंद संस्थान आर्य सभा व आधारशिला द्वारा आयोजित समारोह में ‘हिन्दी गौरव सम्मान’ प्राप्त कर मगन हूँ।

ऋचा वर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना

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