संघर्ष ही मेरे जीवन की प्रेरणा है

 

संघर्ष ही मेरे जीवन की प्रेरणा है।

 

क्या कहूँ, मैं कौन हूँ!
कैसे करूँ, मैं स्वयं को परिभाषित!
वर्षों की चिंगारियों की धुंध में,
सुलगती आग, संवेदना की ज्वार हूँ।
जटिल संघर्षों से उपजी,
मौन अकुलाहट….!
संभ्रांत, मर्यादित…..
शब्दों की व्रिहद अभिव्यक्ति,
“सरस व्यवहार हूँ मैं।”

अपनी लिखी कविता की इन्हीं पंक्तियों के साथ अपने जीवन में आये उतार- चढ़ाव को मैं विस्तार देने की चेष्टा कर रही हूँ।

कहते हैं संघर्ष से ही मनुष्य आगे बढ़ता है । हरेक व्यक्ति का जीवन किसी ना किसी संघर्ष से जरुर गुजरा होता है ।यदि मनुष्य के जीवन में सुख दु:ख ,उतार-चढ़ाव ना हो तो हम कुछ सिख नही पायेंगे।मेरे जीवन में भी कई ऐसे उतार-चढ़ाव आये ।

 

मेरा बचपन एवं किशोरावस्था कड़े अनुशासनों एवं संस्कारों के बीच पला बढ़ा। मेरे पिताजी डॉ० हरेराम त्रिपाठी “चेतन” एक कठोर अनुशासन प्रिय व्यक्ति हैं। बहुत बड़े विद्वान और साहित्यकार हैं ।साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी एकनिष्ठ पकड़ है। अतएवं बचपन से ही मुझे साहित्यिक एवं धार्मिक, संस्कारों से ओतप्रोत परिवेश मिला । परिवार में हम चार भाई बहन हैं।मैं दूसरे नंबर पर हूँ।मुझसे बड़े एक भैया हैं और दो मुझसे छोटे भाई। तीन भाइयों में मैं अकेली बहन होने के कारण मुझे ज्यादा प्यार दुलार मिला।मैं बचपन से ही जिद्दी स्वभाव की थी, जो मेरे मन में आता ,उसी जिद पर अड़ी रहती।
पिता से अधिक मुझे अपनी माँ से ज्यादा लगाव रहा। हिंदी साहित्य से स्नातक प्रथम वर्ष की पढ़ाई के दौरान ही मेरी शादी एक वृहद परिवार में हो गई । तत्पश्चात मैं अपनी हिंदी साहित्य से एमए की पढ़ाई पूर्ण की। कविता लिखने की रुचि मुझे 8वीं,9वीं कक्षा से प्रारंभ हुई। पिताजी की लिखी पुस्तकों को मैं अक्सर पढ़ा करती थी। इसके अतिरिक्त बड़े लेखकों की कविताएँ पढ़ना मेरा शौक हमेशा से रहा।महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अज्ञेय, सुभद्रा कुमारी चौहान,इत्यादि।इसके अलावा प्रेमचंद जी का गोदान, नमक का दारोगा जैसी पुस्तकें बहुत पढ़ा करती थी। मुझे गाने का भी शौक है।मौका मिलने पर गाती भी हूँ। शादी के पश्चात मेरी पढ़ने का शौक और लेखनी पर पूर्ण विराम लग गया । बड़े परिवार में मेरी शादी होने के कारण कुछ और सोचने का समय ही नहीं मिला।परिवार की देखभाल में ही मेरा जीवन व्यतीत होने लगा। शादी के तीन साल बाद मेरी बेटी श्रेया का जन्म हुआ।जिम्मेदारी और बढ़ गई। फिर दो साल बाद मेरे बेटे प्रत्युष का जन्म हुआ। मेरे पति श्री सुनील उपाध्याय भी शुरू से बिजनेस में रहे हैं। ये दिनभर अपने बिजनेस में व्यस्त और मैं घर के कार्यों एवं बच्चों में व्यस्त रहा करती थी। यहाँ तक मैं अब यह भी भूल गई थी कि मुझमे भी कुछ योग्यता है । पढ़ी लिखी हूँ । बस यूं ही मेरा जीवन सामान्य तरीके से चल रहा था। किंतु कभी-कभी जब मैं एकांत होती तब अपने आप को जांचती और परखती, तब मुझे ऐसे वातावरण से घुटन -सी महसूस होने लगती थी । सोचती थी,क्या मेरे जीवन का सिर्फ यही ध्येय है? मेरी पढ़ाई ,मेरी डिग्री सब व्यर्थ ही तो है ।मेरे जीवन में उस पढ़ाई की उपयोगिता ही क्या है …! कभी-कभी तो मन इतना बेचैन हो उठता था,मानों सबकुछ छोड़ छाड़ कर कही एकांतवास में चली जाऊँ। लेकिन दूसरे ही पल अपने ह्रदय को मना लिया करती थी।

 

सदा मैं मौन रहकर प्रीत का संसार रचती हूँ।
सहनशीला “लौ” हूँ,मैं अमावस के अंधेरो की।
सदा मैं मौन रहकर गीत का श्रृंगार रचती हूँ।
सुनो! खामोशियाँ मेरी…मैं स्त्री हूँ।
मैं स्वयं ही स्वयं का विस्तार लिखती हूँ।

देखते-देखते समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला । बच्चे भी अब बड़े होने लगे।पारिवारिक बोझ भी धीरे-धीरे सिमटने लगा । पहले की अपेक्षा अब मुझे समय भी मिलने लगा। अतएवं पुन: मेरे मन-मष्तिष्क में साहित्य के प्रति लगाव पैदा होना स्वाभाविक था। मेरी लिखने की इच्छा -शक्ति प्रबल होने लगी। लेकिन आगे नियती को कुछ और ही मेरे संग घटित करवाना था।

30 अप्रैल सन 2013 की बात है।मैं नई -नई स्कूटी चलाना सिख रही थी । मन में बहुत ज्यादा उत्साह था। स्कूटी चलाने का बस मुझे बहाना चाहिये था। उस दिन सुबह-सुबह मैं स्कूटी लेकर अपनी बेटी के साथ निकल गई और दो- चार चक्कर लगाने के बाद ही मेरी स्कूटी अचानक स्कीट कर गई और मैं दुर्घटनाग्रस्त हो गई । मेरा दाहिना हाथ टूट गया, केहुनी चूर -चूर हो गई थी। कुछ पल तो मुझे कुछ आभास ही नही हुआ कि मेरे साथ ये क्या हुआ? मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। वह बहुत कठिन समय था मेरे जीवन का। एक ही हाथ के दो- दो सर्जरी की असहनीय पीड़ा से मुझे गुजरना पड़ा ।पूरे एक डेढ़ वर्ष मेरे जीवन के यूँ ही बर्बाद हो गए। उसके बाद हाथ में धीरे-धीरे सुधार होने लगा, लेकिन उस हाथ से मैं कोई भी कार्य करने में असमर्थ थी ।वैसी विषम परिस्थिति में मैने अपनी कलम उठाई और धीरे-धीरे लिखना शुरू की।

पूर्ववत साहित्यिक संस्कार तो थे ही ,अपनी भावनाओं को मैं स्वयं के शब्दों में पिरोने लगी। यही मेरे जीवन का सही मोड़ साबित हुआ ।

2016 में मैं अपना फेसबुक अकाउंट खोली और उसी वर्ष “विचार प्रवाह” नामक अपने ग्रुप का निर्माण की ,जिसमे मैं नियमित अपनी कवितायें लिखकर ड़ाला करती थी । मैं छंदबध कविता, गीत, श्रृंगार रस प्रधान गीत ,मुक्त विधान की कविता की रचना करना मेरी प्रमुखता है।अब तब बहुत सारे मंचों पर सस्वर काव्य पाठ कर चुकी हूँ, मुझे काफी प्रशंसा भी मिली। मेरा उत्त्साह दिनोंदिन दोगुना होता गया।

मेरे ग्रुप में मेरी कविताओं को काफी सराहना मिल रही थी, मैं बहुत ज्यादा उत्साहित थी। अच्छे -अच्छे लोगों और साहित्यकारों से जुड़कर आगे बढ़ने और उत्कृष्ट रचना लिखने की प्रेरणा मिलने लगी। मैं अनेकों सहित्यिक समूहों से जुड़ती चली गई।

जिसमे प्रमुखतः- अंतरा शब्दशक्ति , विश्व हिंदी संस्थान कनाडा, विश्व हिंदी रचनाकार मंच,विश्व हिंदी लेखिका मंच इत्यादि । सभी साहित्यिक ग्रुप मे मेरी कविताओं को बहुत सराहना मिली । अंतरा शब्द- शक्ति में मेरी अनेकों रचनायें प्रकाशित हुई। विश्व हिंदी लेखिका मंच के द्वारा मुझे सम्मान भी प्राप्त हुआ और मेरी कविता को उनकी पत्रिका में स्थान मिला,जो मेरे लिए अत्यंत गौरव की बात है। हिन्दी साहित्य पीडिया में “माँ” काव्य प्रतियोगिता में योगदान के लिए मुझे सम्मान मिला। इतना सब कुछ होने के बाद अब मैं रुकने वाली कहाँ थी? अनवरत अपनी लेखनी की धार को पिजाती चली गई।बड़े- बड़े साहित्यकारों की उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं मुझमें नवल जोश एवं उर्जा का संचार करती रही ।

इसी बीच जमशेदपुर शहर के नामी सहित्यिक संस्था “हिंदी साहित्य परिषद ” तुलसी भवन से जुड़ी ।इस संस्था से जुड़ने के बाद मेरी काव्यात्मकता को स्थाइत्व और नई दिशा मिली ।

जीवन की प्रथम प्रेरणा,मेरी ताकत ….मेरी माँ श्यामा देवी रही। पिता तो है ही मेरे साहित्यिक सूत्रधार और तीसरी मजबूत कड़ी और प्रेरणा मेरे पति सुनील उपाध्याय, जो पग-पग पर मेरा साथ निभाते चले आ रहें हैं । मेरी बेटी श्रेया उपाध्याय मेरे लेखन कार्य में सदैव मेरा मनोबल बढ़ाती है।और स्वयं भी अच्छी कविता लिखती है। इन सब के बीच हाल के वर्षों में मेरा जीवन अनगिनत झंझावातों से गुजरा लेकिन, लिखना बंद नही हुआ। अब सबकुछ सामान्य रूप से चल रहा है, लिखने की निरंतरता बनी हुई है ।आगे सब ईश्वरीय कृपा!

मैं’ को ‘मैं’ ही रहने दो,
अपनी धारा में बहने दो।
कुछ ओसों की बूंदों -सी
आंखों से मोती झरने दो।
‘मैं ‘को ‘मैं’ ही रहने दो।

माधवी उपाध्याय
कवयित्री
जमशेदपुर, झारखंड

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