वे सड़कें बना रहे हैं..

वे सड़कें बना रहे हैं..

गर्म तपती भट्ठियों सी ,
तप्त सड़कों पर
कोलतार की धार गिराते ,
मजदूरों के झुलस रहे हैं पाँव.
पर तपती धरती पर, गिट्टियां बिछाते,
मानो स्नेह का लेप लगा रहे हैं,
वे सड़कें बना रहे हैं.
गर्म जलाते टायरों का ,
फैलता है धुंआ ,आग उगलता,
जला रहा है उनके-
तन को, मन को,पूरे वजूद को,
इस आग के बीच भी बरसती ,
आंसुओं की धार को पोंछ,
वे फिर अपने काम में लीं हो जाते हैं,
वे सड़कें बना रहे हैं.
एक आग उनके तन को तपिश देती है
और एक आग जलती है..
पेट की आग,भूख की आग.,
जो उन्हें मजबूरकरती है.
नंगे पाँव ..गर्म पत्थरों को काटने,
बिछाने और खुद भी ,
इस ज्वाला में पिघलने के लिए,
फिर भी वे मुस्करा रहे हैं,
वे सड़कें बना रहे हैं,
जानते वे,- रौंद कर निकलेंगे ,
कितने पांव ,कितने दर्द सह कर भी ,
मुस्कराएगी सड़क, फिर भी ,
वे हंसकर ,दूरियों को पाटते,कहते,-
”हम इंसानियत का पुल बना रहे हैं”
वे सड़कें बना रहे हैं.
और जब थक हार कर ,
बीती दुपहरी, सेंकते वे बाटियाँ,
खिलखिलाते ,बांटते दुःख दर्द अपना,
वे राग ,विरहा, फाग ,चैती गा रहे हैं,
वे सड़कें बना रहे हैं…

पद्मा मिश्रा
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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