रोज डे

रोज डे

“अरे, रूको – रूको”,
सुमेर ने बाईक रोक दी।
“यह तुम्हारी कौन लगती है, बहन?”
बीस से चालीस लोगों के हुजूम और उनके आक्रामक रुख को देख गुलाबी ठंढ़ के मौसम में भी सुमेर को पसीना आ गया, उसने बाईक रोकी और दोनों बाईक से नीचे उतर गए।
“जी नहीं…”,
हेलमेट उतारते हुए वह इतना ही कह पाया था कि उनमें से एक की नजर गुलाब के फूल पर पड़ी जिसे सिंचिता ने अपने चुटकियों में पकड़ा था।
“अरे – अरे इसके पास तो गुलाब का फूल है,” उसने अजीब सी नजरों से सिंचिता को घूरते हुए कहा, अभी नई-नई नौकरी में आई सीधी – सादी सिंचिता सहम सी गई।
“अच्छा अंग्रेज के…. , रोज डे मना रहा है, एक पड़ेगी, अक्ल ठिकाने आ जाएगी, भागता है कि नहीं।” एक घनी और बेतरतीब मूछों वाले पहलवान जैसे दिखने वाले व्यक्ति ने भद्दी सी गाली देते हुए सुमेर के कमीज के कॉलर को पकड़ कर हड़काया। परिस्थितियों को भांपते ही सुमेर ने वहां से अकेले भागना ही उचित समझा।….. सिंचिता अकेली खड़ी रह गई, उसकी मुट्ठी में गुलाब का फूल कसमसा रहा था, वह फूल जिसे सुषमा आंटी ने आज सुबह – सुबह उसे बहुत प्यार से दिया था।
ऑटो वालों का हड़ताल था और बैंक जाना जरूरी था इसलिए जब उसका सहकर्मी सुमेर बैंक जा रहा था तो वह भी बाईक की पिछली सीट पर बैठ गई थी।… और अब सिंचिता बैंक की ओर पैदल ही चल पड़ी… रास्ता लंबा था, पर कोई और चारा भी तो नहीं था।

ऋचा वर्मा

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