माँ
तुम देतीं देतीं और बस देती ही रहीं
ममता दी, प्यार दिया, संरक्षण और अधिकार भी,
पीड़ा सहकर मुस्कुराने की कला,
लांछनों, आक्रोशों को पी जाने की अदा,
माँ कहाँ से लाई इतना बड़ा दिल
कि हमारी माफ़ न कर सकने वाली
भूलों पर भी, कभी न दी सजा.
चोट हमें लगती थी, भर आते नैन तुम्हारे,
खाते जब तक न हम खाना,
एक कौर भी न जाता पेट में तुम्हारे,
आम की बौरों संग आता परीक्षा का मौसम
सो जाते सब तुम जागती संग हमारे,
न कुछ चाहा, न कभी कुछ माँगा,
तुम देतीं देतीं और बस देती ही रहीं
माँ, कैसे कर पातीं थीं तुम यह सब,
आज आया है समझ में हमारे,
क्योंकि आज मुझे भी किसी ने पुकारा है,
तोतली बोली में माँ………
सुधा गोयल ‘नवीन’