मजदूर का बेटा
हम साथ साथ पढ़ते तब , 8 वीं की बात रही होगी, मेरी टक्कर हमेशा से ही उससे हो जाती थी, और मैं हमेशा उससे हार जाता था। खेल में, कक्षा के रिजल्ट के स्थान में, हमेशा वो मुझसे बाजी मार लेता था। मुझे इस बात से उससे चिढ़ हो गई थी, वो मजदूर का बेटा ,और मैं सरकारी कर्मचारी का बेटा हमारी बरोबरी कैसे हो सकती थी, बल्कि वो तो मुझसे दो कदम आगे ही रहता था। मेरी बार बार की हार मुझे तिलमिला देती थी, मैंने एक दिन अपनी हार का बदला ले लिया उससे, जब कक्षा में कोई नहीं था उसके बस्ते से उसकी दो किताबें निकाल कर फाड़ दी। जब उसने अपना बस्ता सम्भाला तो फ़टी हुई किताबें देखकर उसकी आँखों से झर्र झर्र आंसू बहने लगे। उसने केवल रोती हुई आंखों से मुझे देखा था, कुछ कहा नहीं।
अगले रोज उसकी आंख के पास चोट का निशान था, एक दोस्त ने बताया उसकी किताब फट गई इसके लिए उसके बापू ने उसे मारा था। मुझे बहुत शांति मिली, उसकी पिटाई का सुनकर। अगली कक्षा में वो पढ़ने नहीं आया, पता चला उसने पढाई छोड़ दी है और अपने बापू के साथ मजदूरी पर जाने लगा है,मुझे ये किसी बड़ी जीत से कम न लगा, उसी साल पापा का ट्रांसफर होने के कारण हमें गांव से दूर जाना पड़ा।
वक़्त आगे बढ़ गया था, मैं अफसर बन गया था।
अपना मकान बनाने के लिए मुझे मजदूर मंडी से मजदूर लाने थे, मैं अपनी गाड़ी लेकर मंडी की और निकल गया था। वहां जाते ही मजदूरों ने मेरे गिर्द घेरा बना लिया मैने उनको झिड़कते हुए दूर किया, और मजदूरी का मोल भाव करने लगा, अचानक मुझे टिफिन लिए खड़ा वो दिखाई दिया,मैंने उसे इशारे से बुलाया, वो भी मुझे पहचान गया था, मेरे लिए इससे अच्छा मौका नहीं था उसे नीचे दिखाने का, मैंने उससे भी मोल भाव किया और उसे पीछे आने को कहा, वो अपनी साइकिल से पीछे पीछे चल पड़ा कुछ और मजदूर पैदल आ रहे थे,अचानक मेरे मन मे शरारत सूझी, मैंने अपने प्लॉट से कोई 200 मीटर दूर ही गाड़ी झटके से कार बन्द कर दी। उसको रुकने का इशारा किया, वो पास आया मैंने कार का शीशा उतार कर कहा पता नहीं कार कैसे बन्द हो गई, धक्का लगाना पड़ेगा, उसने साईकिल पर से अपना गमछा उठाया गले में लपेटा और अकेला ही कार को धक्का लगाकर कार को आगे बढ़ाने लगा, मैंने बैक व्यू मिरर में देखा, वो पसीने से लथपथ था, मुझे मजा आ रहा था।
काम के दौरान मैंने मजदूरों की खोटी नियत, काम धीरे करने के लांछन और सीमेंट बजरी के व्यर्थ करने के नाम पर जब तब उनको खूब लताड़ा, वो बस अपने काम में व्यस्त रहता था,पलटकर न उसने कभी कोई बात की न कुछ कहा। हां मेरी बेटी महक से वो बड़े प्यार से बात करता था, वो भी उछलती कूदती हुई उसके पास पहुंच जाती थी, मुझे ये अच्छा नहीं लगता था, एक दिन उसका बेटा उसके साथ काम पर आया, उसकी बीवी मायके गई थी, तो वो उसे घर पर अकेला छोड़कर नहीं आ सकता था, मैं शाम को ऑफिस से लौटा तो देखा महक उसके लड़के के साथ खेल रही थी, मुझे बड़ा गुस्सा आया, मैंने उसे और उसके बेटे को बहुत डाँटा, और महक पर चिल्लाया , “मजदूर के बेटे के साथ खेलकर मजदूर ही बनना है क्या? ये हमेशा मजदूर थे मजदूर रहेंगे, खबरदार जो कभी इसके साथ बात भी की तो।” मेरी बीवी ने देखा और इस दुर्व्यवहार पर मुझे उलाहना भी दी।
काम पूरा हुआ तो हिसाब में से मैंने हर किसी का कुछ न कुछ काट पिट लिया और कुल मजदूरी से लगभग चार हजार रुपये कम कर दिये। सब चले गए पर वो नहीं गया उसने आवाज लगाई, “महक गुड़िया आना तो।” उसकी आवाज सुनकर वो दौड़ी आई, “हाँ ताया” उसने 500 का नोट निकाला और मेरी बेटी के हाथ पर रख दिया, बोला “तेरे पापा और मैं बचपन के दोस्त हैं इस तरह से मैं तेरा ताया हूँ, और तू मेरी बेटी ये ले बेटी, अगले महीने तेरा जन्मदिन है ना, मैं नहीं आ पाऊंगा पर तु अच्छा गिफ्ट ले आना।” कहकर वो महक के सर पर हाथ फिराकर सायकिल ले निकल गया, मेरे बिवि रसोई से मुझे देख रही थी और मैं उस मजदूर के बेटे को जो आज फिर मुझे हराकर चला गया था।
संजय नायक”शिल्प”
साहित्यकार
झुन्झुनू ,राजस्थान