भारत बनाम इंडिया विकास-गाथा !!

भारत बनाम इंडिया विकास-गाथा !!

अनेक नामों में इस देश का एक नाम है भारतवर्ष। इस नाम में इसका प्राचीन गौरव समाहित है। ‘अमरकोश’ में वाचस्पति का एक श्लोक आता है-

स्यात भारतं किंपुरुष च दक्षिणां: रम्यं हिरण्यमयकर, हिमाद्रेरुत्तरास्त्राय:।
भद्रश्वकेतुमालो तू द्वहो वर्षो पूर्वपश्चिमो इलाव्रित्त तू मध्यस्थ सुमेरुयर्ष तिष्ठति।।”

इस श्लोक के अनुसार प्राचीनकाल में पूरी पृथ्वी पर केवल नौ वर्ष(देश) ही थे। हिमालय से उत्तर में तीन, दक्षिण में तीन, पूरब और पश्चिम में एक-एक तथा उसके मध्य में एक। यह मध्य स्थित देश ही भारतवर्ष है। अन्य वर्षो(देश) के नाम हैं- किम्पुरुष वर्ष, हरि वर्ष, रम्यं वर्ष, हिरण्मय वर्ष, कुरु वर्ष, भद्राश्व वर्ष, केतुमाल वर्ष और इलव्रित वर्ष। इन वर्षों का आधुनिक नाम क्या है, कोई नहीं जानता, किन्तु भारतवर्ष आज भी विद्दमान है। जो अपने आरंभिक दिनों में हिमालय से समुद्र तक(उत्तर-दक्षिण) तथा बांग्लादेश से काबुल(पूरब-पश्चिम) तक फैला था। तब यह देश ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था। संसार में भारत की समृद्धि की कथाएँ फैली हुई थी, जिससे आकर्षित होकर अनेक विदेशी आक्रांताओं के कदम इस देश पर पड़ें। यूनानी आयें, लूट-खसोट कर चलें गएं। मुग़ल आएं, अपनी बुद्धिमत्ता से यहीं रह गएं। फिर डच, पुर्तगाल आदि आयें और लूटकर चलें गएं।

लगभग 1000 वर्ष की गुलामी और शोषण झेलने के बाद 15 अगस्त,1947 को जब एक नए भारत का उदय हुआ, तब आर्थिक दृष्टि से यह देश चाहे जितना क्षत-विक्षत हो चूका हो, किन्तु ब्रिटिश शासन से इसे विकास की आधुनिक अवधारणा के अनेक उपहार भी मिले; मसलन लोकतंत्र की अवधारणा, कानून का राज, मशीन, रेलवे आदि। नए भारत के रहनुमाओं ने इन्हीं चीजों के आधार पर नए सिरे से देश को सँवारने और सम्रद्ध करने के सपने को स्वरुप देना आरम्भ किया।
भारत की उम्र 73 वर्ष हो गयी। गणतंत्र दिवस धूमधाम से मनाया जा रहा है। भारतीय मीडिया 15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 2020 के बीच के प्रमुख घटनाक्रम और विकास का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर रही है तो देश के बुद्धिजीवी विशेषकर अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री आजादी की प्रगति-गाथा के समाजार्थिक गौरव से अवगत करा रहे हैं। बावजूद इसके कि देश के अनेक प्रान्त आज भी अलगाववादियों और नक्सलियों के चपेट में हैं और कश्मीर एक बार फिर से हिंसा के गिरफ्त में है, देश में गणतंत्र दिवस का माहौल भी उफान पर है, जो बताता है कि सुख-दुख को समान भाव से जीने वाला यह महान भारतवर्ष अपनी गौरवमयी परंपराओं में भी जीते हुए, उससे ऊर्जा ग्रहण करता रहा है।

 

हम अपने युवा वर्ग को विरासत में जो भारत सौंपने वाले हैं उसकी छवि निराशाजनक है। सन् 1947 में भारत और भारतवासी विदेशी दासता से मुक्त हो गये। भारत के संविधान के अनुसार हम भारतवासी संप्रभुता सम्पन्न गणराज्य के स्वतन्त्र नागरिक है। परन्तु विचारणीय यह है कि जिन कारणों ने हमें लगभग एक हजार वर्षोंं तक गुलाम बनायें रखा था। क्या वे कारण खत्म हो गये हैं? जिन संकल्पों को लेकर हमने 90 वर्षों तक अनवरत् संघर्ष किया था क्या उन संकल्पों को हमने पूरा किया है? आज हमारे भीतर देश-भक्ति का अभाव है। हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन को जिस भाषा द्वारा देश मुक्त किया गया, उस भाषा हिन्दी को प्रयोग में लाते हुए शर्म का अनुभव होता है। भारत गूँगा है जिसकी कोई अपनी भाषा नहीं है, विचारणीय है कि वाणी के क्षेत्र में आत्महत्या करने के उपरान्त हमारी अस्मिता कितने समय तक सुरक्षित रह सकेंगी।

राजनीति के नाम पर नित्य नए विभाजनों की माँग करते रहते है। कभी हमें धर्म के नाम पर सुरक्षित स्थान चाहिए तो कभी अल्पसंख्यकों/दलितों के वोट लेने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान की माँग करते हैं। एक वह युग था जब सन् 1905 में बंगाल के विभाजन होने पर पूरा देश उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ था। परन्तु आज इस प्रकार की घटनाएं हमारे मर्म का स्पर्श नहीं करती हैं। सन् 1947 में देश के विभाजन से सम्भवतः विभाजन-प्रक्रिया द्वारा हम राजनीतिक सौदेबाजी करना सीख गए हैं।

आपातकाल के उपरान्त एक विदेशी राजनयिक ने कहा था कि भारत को गुलाम बनाना बहुत आसान है, क्योंकि यहाँ देशभक्तों की प्रतिशत बहुत कम हैं। हमारे युवा वर्ग को चाहिए कि वे संगठित होकर देश-निर्माण एंव भारतीय सामाजिक विकास की योजनाओं पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करें। उन्हे समझ लेना चाहिए- हमें आगें आना होगा और ये सोच को छोडना होगा कि इतना बडा भारत- “हमसे क्या होगा”। याद रखें एक व्यक्ति भारत को बदल सकता है आवश्यकता तो सकारात्मक सोच की है। नारेबाजी और भाषणबाजी द्वारा न चरित्र निर्माण होता है और न राष्ट्रीयता की रक्षा होती है। नित्य नई माँगों के लिए किये जाने वाले आन्दोलन न तो महापुरुषों का निर्माण करते हैं और न स्वाभिमान को बद्धमूल करते हैं। आँखें खोलकर अपने देश की स्थिति-परिस्थिति का अध्ययन करें और दिमाग खोलकर भविष्य-निर्माण पर विचार करें।

क्या आजादी का संघर्ष इसीलिए किया गया था? युवाओं ने इसीलिए बलिदान दिया था कि अंग्रेजों के स्थान पर कुछ ‘स्वदेशी’ लोग सत्ता का उपयोग करें। सत्ता का हस्तानांतरण हुआ है, लेकिन उसके आचरण में बदलाव नहीं आया है। देश में बढ़ते एकाधिकारवादी आचरण ने सत्ता को इतना भ्रष्ट और निरंकुश कर दिया है कि उसकी चपेट में आकर सारा अवाम कराह रहा हैं। महात्मा गांधी का मानना था कि गांवों का विकास ही उत्थान का प्रतीक होगा। गांवों में जीवन मूल्य के बारे में अभी भी संवेदनशीलता है। हमने पंचायती राज व्यवस्था को तो अपनाया है, लेकिन गांवों को उजड़ते जाने से नहीं रोक पा रहे हैं। कृषि प्रधान देश में खेती करना सबसे हीन समझा जाने लगा है। किसानों को आज अपने ही शासकों से अपने पैदावार की उचित मूल्य प्राप्ति के लिए सडकों पर उतरना पड़ता है या फिर बढ़ते कर्ज के कारण जुट के बने रस्से से बने फंदों में अपनी जीवन-लीला को समाप्त करने के लिए विवश होना पड़ता है। शिक्षा के लिए अनेक आधुनिक ज्ञान वाले संस्थान जरूर स्थापित हो गए हैं, लेकिन वहां से ‘शिक्षित’ होकर निकलने वालों की पहचान किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचा वेतन पाने के आधार पर हो रही है। स्वदेशी, स्वाभिमान और स्वावलंबन की भावना तिरोहित होती जा रही है। कर्ज जिसे आजकल ‘एड’ का नाम दे दिया गया है, एकमेव साधन बनकर रह गया है, जिसने हमें फिर गुलामी की तरफ धकेल दिया है। राजनीतिक आजादी तो मिली, लेकिन आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास न होने के कारण हम आर्थिक रूप से गुलाम होते जा रहे हैं, जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में हुआ था। तब भी शासक तो स्वदेशी ही थे, लेकिन उनको चलना ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुसार पड़ता था। आज हम भी अपने आर्थिक क्षेत्र को विश्व बैंक या विश्व मुद्रा कोष के पास गिरवी रख चुके हैं।

आज देश-दुनिया जिन भीषण संकटपूर्ण हालातों से गुजर रही है, कदाचित भारत के लिए यह स्थिति मध्यकाल जैसी है, जब देशी-विदेशी आक्रांताओं से जनता चतुर्दिक दमन का शिकार हो रही थी और उसके अंर्तनाद को सुनने वाला कोई नहीं था। ऐसे में उसने अपने को ईश्वर के हवाले कर रखा था जनता के उस दर्द -कराह को तात्कालीन भक्ति साहित्य में देखा जा सकता है। आज भी जनता चतुर्दिक दमन और शोषण का शिकार हो रही है।आजादी एक स्वाभाविक भाव है या यूँ कहें कि आजादी की चाहत मनुष्य को ही नहीं जीव-जन्तु और वनस्पतियों में भी होती है। सदियों से भारत मुगलों के और फिर अंग्रेजों की दासता में था, उनके अत्याचार से जन-जन त्रस्त था। खुली फिजा में सांस लेने को बेचैन भारत में आजादी का पहला बिगुल 1857 में बजा किन्तु कुछ कारणों से हम गुलामी के बंधन से मुक्त नहीं हो सकें। वास्तव में आजादी का संघर्ष तब अधिक हो गया जब बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि “स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है”।

अनेक क्रांतिकारियों और देशभक्तों के प्रयास तथा बलिदान से आजादी की गौरव गाथा लिखी गई है। यदि बीज को भी धरती में दबा दें तो वो धूप तथा हवा की चाहत में धरती से बाहर आ जाता है क्योंकि स्वतंत्रता जीवन का वरदान है। व्यक्ति को पराधीनता में चाहे कितना भी सुख प्राप्त हो किन्तु उसे वो आन्नद नही मिलता जो स्वतंत्रता में कष्ट उठाने पर भी मिल जाता है। तभी तो कहा गया है कि ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’।

जिस देश में चंद्रशेखर, भगत सिंह, राजगुरू, सुभाष चन्द्र, खुदिराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रान्तिकारी तथा गाँधी, तिलक, पटेल, नेहरु, जैसे देशभक्त मौजूद हों उस देश को गुलाम कौन रख सकता था। आखिर देशभक्तों के महत्वपूर्ण योगदान से 14 अगस्त की अर्धरात्री को अंग्रेजों की दासता एवं अत्याचार से हमें आजादी प्राप्त हुई थी। ये आजादी अमूल्य है क्योंकि इस आजादी में हमारे असंख्य भाई-बन्धुओं का संघर्ष, त्याग तथा बलिदान समाहित है। ये आजादी हमें उपहार में नही मिली है। वंदे मातरम् और इंकलाब जिंदाबाद की गर्जना करते हुए अनेक वीर देशभक्त फांसी के फंदे पर झूल गए। 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला हत्याकांड, वो रक्त रंजित भूमि आज भी देश-भक्त नर-नारियों के बलिदान की गवाही दे रहीं हैं।

आजादी अपने साथ कई जिम्मेदारियां भी लाती हैं, हम सभी को जिसका ईमानदारी से निर्वाह करना चाहिए किन्तु क्या आज हम 73 वर्षों बाद भी आजादी की वास्तिवकता को समझकर उसका सम्मान कर रहें हैं ? आलम तो ये है कि यदि स्कूलों तथा सरकारी दफ्तरों में 26 जनवरी और 15 अगस्त न मनाया जाए और उस दिन छुट्टी न की जाए तो लोगों को याद भी न रहे कि गणतंत्र दिवस/ स्वतंत्रता दिवस हमारा राष्ट्रीय त्योहार है जो हमारी जिंदगी के सबसे अहम् दिनों में से एक है।
एक सर्वे के अनुसार ये पता चला कि आज के युवा को स्वतंत्रता के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी फिल्मों के माध्यम से मिलती है और दूसरे नम्बर पर स्कूल की किताबों से जिसे सिर्फ मनोरंजन या जानकारी ही समझता है। उसकी अहमियत को समझने में सक्षम नही है। ट्विटर और फेसबुक पर खुद को अपडेट करके और आर्थिक आजादी को ही वास्तविक आजादी समझ रहा है। वेलेंटाइन डे को स्वतंत्रता दिवस से भी बङे पर्व के रूप में मनाया जा रहा है।

अगर इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ा जाये, तो पता चल जायेगा कि 1947 में जिन आदर्शों और मूल्यों के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाया था, आज वे मूल्य पूर्णतया तिरोहित हो चुके हैं। गुजरते वक्त के साथ आजादी की बात भी पुरानी हो चली है। आज न तो पुराने तेवर बचे हैं, न पुराने भाव। हम केवल तिरंगा फहरा और देश भक्ति के कुछ गीत बजाकर अपनी जिम्मेवारी पूरी समझ लेते हैं। अत: साथियों, लोकतंत्र की रक्षा के लिए हम सभी को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा, तभी हमारा लोकतंत्र स्थायी व मजबूत रह सकेगा। कहने को हम लोकतंत्र व्यवस्था में हैं, पर सभी जानते हैं कि साम्राज्यशाहियों ने ‘तंत्र’ के द्धारा ‘लोक’ को अपने कब्जे में कर रखा हैं , इसलिए आज राजनेताओं में जनता की विश्वसनीयता नहीं रह गई हैं।

डॉ नीरज कृष्ण
पटना, बिहार

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